आत्मा का महत्व शरीर से है
ऐसा माना गया है कि मनुष्य-तन अत्यंत दुर्लभ है और पूर्व जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त होता है। हम प्राय: अपने इस शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इसीलिए संसार में रहकर हम शरीर-सुख के लिए प्रतिपल प्रयासरत रहते हैं, जबकि प्राणी का शरीर तुच्छ है, क्षणभंगुर
ऐसा माना गया है कि मनुष्य-तन अत्यंत दुर्लभ है और पूर्व जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप प्राप्त होता है। हम प्राय: अपने इस शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इसीलिए संसार में रहकर हम शरीर-सुख के लिए प्रतिपल प्रयासरत रहते हैं, जबकि प्राणी का शरीर तुच्छ है, क्षणभंगुर है। शारीरिक सुख क्षणिक हैं, अनित्य हैं। इसलिए ज्ञानी जन शरीर के प्रति ध्यान न देकर, अंतरात्मा के प्रति सचेत रहने की बात करते हैं।
अंतरात्मा के प्रति ध्यान देने से प्राणी का जीवन सार्थक होता है। शरीर नाशवान है और आत्मा अजर-अमर। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि मृत्यु के पश्चात हमारा शरीर केवल वस्त्र बदलता है। आत्मा तो अपने अस्तित्व के साथ सर्वदा वर्तमान है, क्योंकि उसका अवसान नहीं होता। इतना सब कुछ जानने के बाद भी हम शरीर को पहचानते हैं, उसका गर्व करते हैं और आत्मा के महत्व को हम गौण मानते हैं। यह हमारी अज्ञानता ही तो है। शरीर से हम कर्म भले ही करते हों, किंतु प्रेरक शक्ति आत्मा ही है। आत्मा के अभाव में शरीर तो मात्र शव है और शास्त्र कहते हैं कि शव अपवित्र होता है, उसका परित्याग तुरंत आवश्यक है। हम शव होते ही अपना महत्व, अपना व्यक्तित्व सभी कुछ खो बैठते हैं।
जिस प्रकार दीपक का महत्व ज्योति से है, उसी प्रकार आत्मा का महत्व शरीर से है, किंतु हम शरीर को ही सत्य मानकर उसका मोह करते रहते हैं। यह हमारी भयंकर भूल है। यह अज्ञान है।1यह तो सभी जानते हैं कि मोह का चिरंतन मूल्य नहीं होता। एक न एक दिन व्यक्ति के मन से मोह दूर हो जाता है। उसे शरीर का रूप, गर्व, अहंकार आदि सभी महत्वहीन लगते हैं। महलों में रहने वाले संपन्न लोगों और जंगलों में तपलीन संन्यासियों-ऋषियों में शरीर के प्रति अलग-अलग अवधारणाएं होती हैं।
संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को सत्य मानकर सदैव उसे सुंदर बनाए रखने का प्रयास करते हैं और भौतिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं। वहीं संन्यासी शरीर को नाशवान और गौण मानकर आत्मा की आराधना में लीन रहते हैं और सभी प्रलोभनों से दूर रहकर भजन में व्यस्त रहते हैं। ऋषि को शरीर के चोला बदलने का सत्य ज्ञात हो चुका है। इसीलिए वह मस्त है और संपन्न या सांसारिक व्यक्ति सदैव चिंताओं से ग्रस्त रहता है और वह भौतिक सुविधाओं को प्राप्त करने में व्यस्त रहता है। दोनों में यही मौलिक अंतर है।