मनुष्य कितना भी बलशाली हो उसकी सौम्यता ही उसे समाज में ऊंचा स्थान दिलाती है
संज्ञा सूर्यदेव को सौम्य पाकर उनसे बोली, ‘नाथ! वैभव कितना ही क्यों न हो, स्नेह तो सौम्यता ही ढूंढ़ेगा और उसी में तृप्ति मानेगा!’
By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 07 Mar 2017 10:59 AM (IST)Updated: Tue, 07 Mar 2017 11:05 AM (IST)
अपने परम तेजस्वी, रक्तवर्ण मुखारविंद के साथ जब सूर्यदेव घर पहुंचे, तो उनकी पत्नी संज्ञा ने आंखें बंद
कर लीं। कुपित होकर सूर्यदेव बोले, ‘क्यों, तुम्हें मेरा तेजस्वी रूप रुचता नहीं?’ संज्ञा की आंखें और भी नीची हो गईं। उन्होंने बादलों के घूंघट में अपने कोमल मुख को ढक लिया। यह अभद्रता सूर्यदेव को और भी अखरी और वे लाल-पीले होकर अपना दर्प दिखाने लगे। संज्ञा भयभीत होकर अपने पितृगृह कुरुप्रदेश चली गईं और तपस्या में लीन हो गईं।
सूर्यदेव अपनी पत्नी के बिना उदास रहने लगे। वे एक योगी का रूप धारण कर संज्ञा के पास पहुंचे और उन्होंने उनसे तपस्या का प्रयोजन पूछा। वह तपस्विनी बोलीं, ‘मेरे पति और भी अधिक तेजस्वी हों, पर उनका स्वभाव इतना सरल हो कि मैं अपलक उनके दर्शन कर सकूं।’ यह सुन सूर्यदेव द्रवित हो गए। दर्प की प्रचंडता को व्यर्थ मानते हुए उन्होंने अपनी सोलह कलाओं में से एक के साथ ही प्रकाशित होना आरंभ कर दिया।
तब संज्ञा घर लौटीं और सूर्यदेव को सौम्य पाकर उनसे बोली, ‘नाथ! वैभव कितना ही क्यों न हो, स्नेह तो
सौम्यता ही ढूंढ़ेगा और उसी में तृप्ति मानेगा!’
कथासार : मनुष्य कितना भी बलशाली, प्रभावशाली और बुद्धिमान क्यों न हो, उसकी सौम्यता ही उसे
समाज में ऊंचा स्थान दिलाती है।
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