राष्ट्रीय एकता का प्रतीक गणेशोत्सव
लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को पूजा-पाठ और कर्मकांड से बाहर निकाल कर राष्ट्रीय एकता और जागरण का प्रतीक बना दिया.. श्री गणेश पुराण के अनुसार, भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के मध्याह्नकाल में सिद्धिविनायक श्रीगणेश ने जन्म लिया था। चतुर्थी तिथि होने के कारण ही इसे 'गणेश चतुर्थी' भी कहा जाता है। महाराष्ट्र सहित अनेक प्रदेशों में इस
लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को पूजा-पाठ और कर्मकांड से बाहर
निकाल कर राष्ट्रीय एकता और जागरण का प्रतीक बना दिया..
श्री गणेश पुराण के अनुसार, भाद्रपद
शुक्ल चतुर्थी के मध्याह्नकाल में सिद्धिविनायक श्रीगणेश ने जन्म लिया
था। चतुर्थी तिथि होने के कारण ही इसे 'गणेश चतुर्थी' भी कहा जाता है। महाराष्ट्र सहित अनेक प्रदेशों में इस दिन से गणेशोत्सव का शुभारंभ हो
जाता है। लोग मंगलमूर्ति विनायक की प्रतिमा अपने घरों में स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। गणेशोत्सव का अंत प्रतिमा के विसर्जन
से होता है। पहले गणेशोत्सव की धूम सिर्फ महाराष्ट्र तक ही थी, परंतु आज देश-विदेश में गणेश उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
गणेश जी ने दिलाई आजादी
विभिन्न धर्म के लोगों को एकजुट कर
सांप्रदायिक एकता के पर्याय भी बने हैं श्रीगणेश। वे देश की गुलामी के दौर में आजादी के आंदोलन में देशवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों से आजादी दिलाने वाले देवता भी रहे हैं। हालांकि मान्यता है कि सातवाहन, राष्ट्रकूट
व चालुक्य आदि राजाओं ने इसकी शुरुआत की थी, मगर पेशवाओं ने इस उत्सव को लोकप्रिय किया। शिवाजी की मां जीजाबाई ने पुणे में कस्बा
गणपति की स्थापना की थी। मगर गणपति को राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बनाया लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने। 1893 में उन्होंने गणेशोत्सव
शुरू किया। तिलक ने इस पूजा को कर्मकांड से बाहर निकालकर राष्ट्रीय एकता और जागरण का प्रतीक बना दिया। आजादी की लड़ाई के दौर में तिलक ने सभी धर्मो व संप्रदाय के लोगों को संगठित करने, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए गणेशोत्सव को जरिया बनाया। यह आवाज धीरे-धीरे आंदोलन में परिवर्तित होती चली गई।
तिलक, सावरकर, सुभाषचंद्र बोस, मदनमोहन मालवीय, सरोजनी नायडू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने गणेशोत्सव के मंच से समाज को एकजुट होने तथा आजादी के आंदोलन में शामिल होने का आहवान किया।
गणपति बप्पा मोरया
यह उत्सव आज भी राष्ट्रीय एकता की मिसाल है। इसमें सभी धमरें के लोगों की भागीदारी होती है। दस दिनों के उत्सव के अंत में मूर्ति का विसर्जन
किसी जलाशय में किया जाता है। गणपति की विदाई का उत्सव गणपति बप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ के उद्घोष से होता है।
जन्म को लेकर अनेक मत ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, भगवती जगदंबा
ने परब्रह्म को पुत्र रूप में प्राप्त करने के लिए देवाधिदेव महादेव के कहने पर पुण्यक व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके पूर्ण होने पर साक्षात परब्रह्म परमेश्वर बालक श्री गणेश के रूप में
उनके यहां आए।
एक अन्य मान्यता के अनुसार, शिवा
(पार्वती) ने शरीर में लगाए गए उबटन से एक पुरुषाकृति बनाई गई और उसमें जीवन का संचार कर दिया। उसे पहरेदार बनाकर अपनी गुफा के
द्वार पर खड़ा कर दिया था, ताकि जब तक पार्वती स्नान करें, कोई गुफा में प्रवेश न कर सके। यह पुरुषाकृति गणेश जी की ही थी। उसके बाद
श्रीगणेश के गजानन बनने की कथा तो सबको मालूम है।
संध्या टंडन / रुचि आनंद