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श्रेष्ठ कर्म ही मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं

जीवन में लक्ष्य-प्राप्ति व संकटों से पार पाने हेतु आत्मविश्वास जरूरी है। यह स्वयं की सामर्थ्य का सूचक है। जब आत्मविश्वास कोरे आशावाद पर आधारित होता है, तो प्राय: मनुष्य को निराशा सहनी पड़ती है। कोई चमत्कार हो जाएगा, ऐसा सोचना अकर्मण्यता को जन्म देता है। खासकर भारतीय संस्कृति कर्मशीलता

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 27 Nov 2015 03:11 PM (IST)Updated: Fri, 27 Nov 2015 03:25 PM (IST)
श्रेष्ठ कर्म ही मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं

जीवन में लक्ष्य-प्राप्ति व संकटों से पार पाने हेतु आत्मविश्वास जरूरी है। यह स्वयं की सामर्थ्य का सूचक है। जब आत्मविश्वास कोरे आशावाद पर आधारित होता है, तो प्राय: मनुष्य को निराशा सहनी पड़ती है। कोई चमत्कार हो जाएगा, ऐसा सोचना अकर्मण्यता को जन्म देता है। खासकर भारतीय संस्कृति कर्मशीलता को प्रोत्साहित करने वाली है। जितने भी धर्म, संप्रदाय भारतीय भूभाग में पनपे, उनमें यह समान तत्व उभरा कि अंतत: श्रेष्ठ कर्म ही मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं।

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आत्मविश्वास इस कर्मशीलता का एक आयाम है। बहुत से गुण हों और कर्म करने की इच्छाशक्ति न हो, तो उन गुणों का कोई तात्पर्य नहीं रह जाता। कर्म करने की क्षमता हो, पर संशय भरे हों, तो उन कर्मों की सफलता संदिग्ध हो जाती है। सफलता पूर्ण मनोयोग से किए गए प्रयासों से ही मिलती है। सफलता पाने से पहले यह दृढ़ निश्चय करना पड़ता है कि इसे मैं पाकर ही रहूंगा। यही आत्मविश्वास है।

हर सफलता की पृष्ठभूमि में योग्यता, गुण, क्षमता और कर्मठता निश्चय ही दिख जाती है। जब मनुष्य यह स्वीकार कर लेगा कि चमत्कार नहीं होते, यह स्वप्नजीवी लोगों के आलस्य भाव की उपज है, तभी वह गुणों को धारण करने व क्षमताओं में वृद्धि के लिए सोचना शुरू करेगा। ऐसा करना मनुष्य को व्यावहारिक दृष्टि देता है, जिससे वह अपने लक्ष्य और अपनी योग्यताओं के बीच सापेक्षता स्थापित करने में सफल रहता है।

यह वह आधार है, जिस पर आत्मविश्वास का दुर्ग खड़ा होता है। इससे लक्ष्यभेद सहज हो जाता है। यदि नाकामी हाथ लगे, तो निराशा नहीं, विश्लेषण कर स्वयं को अधिक समर्थ बनाने और पुन: प्रयास की इच्छा जन्म लेती है। चमत्कार जैसी कोई चीज होती तो भगवान राम को चौदह वर्ष के वनवास पर क्यों जाना पड़ता और युद्ध करके मां सीता को क्यों मुक्त कराना पड़ता।

भगवान कृष्ण का उपदेश ही कर्म से संबंधित था। आज उनकी आराधना उनके गुणों के कारण होती है, जो उनके कर्मों में संसार के सामने प्रकट हुए। मनुष्य जिस परमतत्व की अर्चना करता है, वास्तव में उसी का अंश है। खुद पर भरोसा करना उस परमतत्व पर और उसके गुणों पर विश्वास करना है।


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