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पालपुंग शेरबलिंग : जहां मिलती है आध्यात्मिक शीतलता

देवभूमि हिमाचल की हसीन वादियां, यहां की प्राकृतिक सुन्दरता और तन-मन को शीतल करने वाली ठण्डी हवा के झोंकों के बीच बसा है तिब्बती बौद्धों का पवित्र स्थल - पालपुंग शेरबलिंग ।

By Lalit RaiEdited By: Published: Tue, 01 Dec 2015 07:30 AM (IST)Updated: Tue, 01 Dec 2015 01:25 PM (IST)
पालपुंग शेरबलिंग : जहां मिलती है आध्यात्मिक शीतलता

नई दिल्ली। देवभूमि हिमाचल की हसीन वादियां, यहां की प्राकृतिक सुन्दरता और तन-मन को शीतल करने वाली ठण्डी हवा के झोंकों के बीच बसा है तिब्बती बौद्धों का पवित्र स्थल - पालपुंग शेरबलिंग । इस मठ की पृष्ठभूमि में धौलाधार पर्वत श्रृखंला है तो चारों तरफ आसमान को चूमने की कोशिश करते चीर और देवदार के हरे भरे पेड़। पालपुंग शेरबलिंग मठ हजारों तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं के लिए बौद्ध धर्म और दर्शन के अध्ययन का प्रमुख केंद्र है । हिमाचल वैसे भी देवभूमि के रुप में जानी जाती है... इस देवभूमि की कांगड़ा घाटी की हसीन वादियां ..यहां की प्राकृतिक सुन्दरता..और तन-मन को शीतल करने वाली ठण्डी हवा के झोंकों के बीच पापलुंग शेरबलिंग में आध्यात्मिक शीतलता का अहसास होता है... पालपुंग शेरबलिंग मठ ..12वें केंतिंग ताई सितुपायानि महान गुरु वज्रधारा की पारंपरिक गद्दी है..इन्हें सितु रिनपोचे के रुप में भी जाना जाता है... सैकड़ों लामा यहां बौद्ध धर्म की शिक्षा लेते हैं । यह मठ 12वें केंतिंग ताई सितुपा यानि महान गुरु वज्रधारा की पारंपरिक गद्दी है जिन्हें सितु रिनपोछे के रुप में भी जाना जाता है ।

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ऐसी मान्यता है कि 1954 में तिब्बत के देरगे प्रांत के पालयुल में एक किसान परिवार में जन्में पेमा दोन्यो निंगचे वांगपू के रुप में 12वें केतिंग ताई सितुपा का उदय बिल्कुल 16वें ग्यालवा कर्मापा की भविष्यवाणी के अनुरुप हुआ था । 11वें ताई सितुपा पेमा वांगचोग की तरह हीं उन्होंने देह त्याग से पहले अपने अवतार के बारे में भविष्यवाणी कर दी थी ।
मान्य परंपराओं के मुताबिक ताई सितुपा बोधिसत्व मैत्रेय और गुरु पद्म संभव के उदगम हैं । मैत्रेय बोधिसत्व यानि भविष्य के बुद्ध .भगवान बुद्ध के उन प्रमुख अनुयायियों में से एक थे जो अब तुसिता स्वर्ग में बसते हैं..और जब मानव जाति के 80 हजार साल पूरे हो जाएंगे..तब वो फिर से धरती पर अवतरित होंगे ।
शाक्यमुनी बौद्ध ने कहा है – इस धरती पर अवतरित होने वाला मैं कोई पहला बौद्ध नहीं हूं...ना हीं मैं आखिरी बौद्ध हूं । काल चक्र के साथ दुनिया में नये बौद्ध का अवतरण होगा.. जो बेहद पवित्र और ज्ञानी होंगे..विवेकवान होंगे..शुद्ध आचरण के साथ इस ब्रहमाण्ड को समझने वाले होंगे..यानि एक अतुलनीय पथ प्रदर्शक... मेरी तरह वो भी दुनिया को शाश्वत सत्य की शिक्षा देंगे.. और वो मेत्रेय के रुप में जाने जायेंगे

दरअसल, पद्मसंभव बौद्धाचार्य.... जिन्हें बुद्ध का दूसरा अवतार माना जाता है, .पश्चिमी भारत के ओड्डियान क्षेत्र के मुनी थे । परंपरा के अनुसार, पद्मसंभव उद्यान (वर्तमान स्वात, पाकिस्तान) के निवासी थे। यह क्षेत्र अपने तांत्रिकों के लिए विख्यात था। वह एक तांत्रिक और योगाचार पंथ के सदस्य थे तथा भारत के एक बौद्ध अध्ययन केंद्र, नालंदा में पढ़ाते थे। 747 में उन्हें राजा ठी स्त्रीङ् देचन् ने तिब्बत में आमंत्रित किया। वहां उन्होंने कथित रूप से तंत्र-मंत्र से उन शैतानों को भगाया, जो भूकंप पैदा कर एक बौद्ध मठ के निर्माण में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने 749 में बौद्ध मठ का निर्माण कार्य पूर्ण होने तक उसकी देखरेख की थी।

तिब्बती बौद्ध पंथ ञिङ् मा पा (पुरातन पंथ) के सदस्य पद्मसंभव की तांत्रिक क्रियाओं, पूजा तथा योग की शिक्षा का पालन करने का दावा करते हैं। पंथ की शिक्षा की मौलिक पाठ्य सामग्री, जिसके बारे में कहा जाता है कि पद्मसंभव ने उन्हें दफ़न कर दिया था, 1125 के आसपास मिलनी आरंभ हुई थी। उन्होंने कई तांत्रिक पुस्तकों का मूल संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनुवाद भी कराया था।

बाद में मरपा लोतस्वा जैसे अवतार भी हुए, जो तिलोपा और नरोपा जैसे बौद्ध गुरुओं के अनुयायी रहे और जिन्होंने बौद्ध ग्रंथों का तिब्बत में अनुवाद भी किया । 12 वीं ताई सितुपा जब मात्र 6 साल के थे तब तिब्बत में राजनीतिक स्थितियां कुछ ऐसी बनी की उन्हें तिब्बत छोड़ने को मजबूर होना पड़ा ।.भूटान के रास्ते वो भारत पहुंचे और यहां सिक्किम में आखिरकर उनकी भेंट 16वें कर्मापा से हुई । .लंबे सफर ने उन्हें बीमार और थका डाला था । आखिरकर वो बीमारी और थकान से उबरे तो उनके लिए सिक्किम का रुमटेकर मठ तैयार था...वो इसी मठ की गद्दी पर विराजमन हुए । यहीं उन्होंने 16वें कर्मापा से औपचारिक दीक्षा ग्रहण की थी ।1989 में सितु रिनपोछे ने एक्टिव पीस यात्रा की अगुवाई भी की..इसमें विभिन्न धर्मों के गुरु और मानवतावादी शामिल हुए थे...

भारतीय नृत्य उतने ही विविध हैं जितनी हमारी संस्कृति, भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रही हैं एसे ही तिब्बतियों में मशहूर छाम नृत्य का उद्भव 1200 साल पूर्व हुआ था जिसे ड्रैगन डांस भी कहा जाता है....तब तिब्बत के राजा त्रिसोंग डेस्टेन ने गुरु पद्मसंभव से एक खास अनुष्ठान का अनुरोध किया था..अनुष्ठान का अनुरोध साम्ये में नवनिर्मित एक बौद्ध मठ के शुभारंभ के मौके पर होना था..... छाम नृत्य ध्यान का एक रूप है.. और इसे परमेश्वर को एक भेंट के रुप में पेश किया जाता है....इसलिए पूजा से पहले यह नृत्य प्रस्तुत कर एक तरह से परमेश्वर का आह्वान किया जाता है...ताकि काग्यू वंश, गुरु पद्मसंभव और दूसरे गुरुओं का आशिर्वाद प्राप्त किया जा सके.. डके लिए एक भेंट माना जाता है। इसलिए आमतौर पर छाम हमेशा उनके आशीर्वाद आह्वान औपचारिक प्रसाद वंश के लिए समर्पित कर दिया जाता है, जिसमें पूजा, गुरु पद्मसंभव और अन्य गुरुओं से पहले है। मास्क प्रकोप देवता के प्रतीक हैं। वे बुरी ताकतों के दिलों में डर ड्राइव करते समय, मास्क भी ध्यान और प्रार्थना के माध्यम से आत्मज्ञान की मांग कर रहा है जो बौद्ध व्यवसायी को स्थिरता और शांति प्रदान करते हैं। नृत्य में मुखौटे एक तरह से क्रोधित देवता के प्रतीक होते हैं...जो एक तरफ तो अमानुषी दुष्ट शक्तियों में भय और खौफ पैदा करते हैं...वहीं दूसरी तरफ बौद्ध धर्मावलंबियों में आत्मविश्वास और शांति का भाव जगाते हैं..ताकि वो शांत मन से ध्यान और पूजा कर कर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकें..
1975 में कांगड़ा के बीर में बसे तिब्बती शरणार्थियों ने बीर और भट्टू गांव के बीच की जमीन गुरु सितु रिनपोछे को दान में दे दी ताकि वो यहां अपना मठ बना सकें । .वो जमीन जंगलों से भरी पड़ी थी । गुरु रिनपोछे जब यहां पहुंचे तो उन्हें जगह जंच गई .और फिर देखते ही देखते पालपुंग शेरबलिंग मठ का काम शुरु हो गया। । पालपुंग शेरबलिंग का मुख्य मठ तीस एकड़ जमीन पर फैला हुआ है... यहां बौद्ध भिक्षुओं के लिए ढाई सौ क्वार्टर और 6 विशाल मंदिर बने हैं..निर्माण में प्राचीन पारंपरिक मठ कला के साथ साथ आधुनिक वास्तुकला का मिला जुला रुप दिखाई पड़ता है...मठ का पूरा डिजाइन खुद ताई सितुपा का है ।

पालपुंग शेरबलिंग आज दुनिया में तिब्बती बौद्धवाद के अध्ययन और ध्यान के प्रमुख केंद्र के रुप में उभरा है । तिब्बती बौद्ध पंथ में रुचि रखने वाले दुनिया भर के विद्वान और छात्र यहां खींचे चले आते हैं ।
पालपुंग शेरबलिंग मठ की सबसे ऊपरी मंजिल पर एक अनोखा मंडला मंदिर है । त्रिआयामी मंडला वाला यह मंदिर एक झलक में हीं किसी का भी मन मोह सकता है। .मंडला दरअसल ब्रह्माणड का धार्मिक प्रतीक होता है । चौकोर में बने इस मंडला के चार दरवाजे हैं,जिनके बीचो-बीच एक चक्र बना है ।मंडल एक पवित्र स्थान का अहसास तो दिलाता ही है,एक ध्यान केंद्र के रुप में भी इसका महत्व है ।यानि भाव समाधि से लेकर अधिष्ठापन तक । यहां एक हस्त शिल्प केंद्र भी है, जहां तिब्बत की पारपंरिक तंगखा पेंटिंग से लेकर काष्ठ नक्काशी, धातु शिल्प और तिब्बती शिल्पकला की ट्रेनिंग दी जाती है । मठ के भीतर एक इंटरनेशनल बौद्ध इंस्टीच्यूट के साथ साथ उन लोगों के लिए एक गेस्ट हाउस भी है जो तिब्बती बौद्धवाद को करीब से जानने या फिर ताई सितुपा के दर्शन करने यहां पहुंचते हैं ।


यहां निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री डॉ. लोबसांग सांगे का भी आगमन हो चुका है । 2004 में लॉस एंजिल्स में 46वें ग्रैमी अवार्ड समारोह में द मॉन्क ऑफ शेरबलिंग मॉनेस्ट्री अलबम को बेस्ट ट्रेडिशनल वर्ल्ड म्यूजिक अलबम का अवार्ड भी मिल चुका है...पालपुंग शेरबलिंग की तरफ से तेनम लामा ने ग्रैमी अवार्ड प्राप्त कर इतिहास रच डाला था ।

देखा जाए तो पालपुंग शेरबलिंग मठ तिब्बत की सभ्यता और संस्कृति को भारत किसी न-किसी रूप में प्रभावित करता रहा है। आज भी तिब्बतियों की सांस्कृतिक परंपरा का प्रमुख संरक्षण केंद्र भारत ही है। उनके सपनों को सँजोए रख सकने के लिए भारत ने ही जमीन दी है। उन प्राचीन संस्कृति और कला को सतत जीवन रस देकर परवान चढ़ाने का काम भी भारत करता आ रहा है। तिब्बती कला के कई रूप उसके हस्तशिल्प, चित्रकला, स्थापत्यकला, काष्ठकला, कशीदाकारी, सौंदर्य प्रसाधन आदि में देखने को मिलते हैं, जिनमें 'रेत मंडल' और 'मक्खन शिल्प' तो बेहद ही अनूठे हैं।

कैसे पहुंचे पालपुंग मॉनेस्ट्री

रेल मार्ग :
आप पठानकोट से जोगिन्दर चलने वाली ट्रेन से बैजनाथ स्टेशन उत्तर कर टैक्सी से 20 मिनट में पालपुंग मॉनेस्ट्री जा सकते है


सड़क मार्ग :

पठानकोट – मनाली हाईवे से भी आप बैजनाथ पहुंच सकते है ,दिल्ली और चंडीगढ़ से बैजनाथ के लिए वॉल्वो और साधारण बहुत सी बसे चलती है । बैजनाथ उतर कर टैक्सी से पालपुंग मॉनेस्ट्री पहुंच सकते हैं ।

वायु मार्ग : निकटतम एयरपोर्ट गग्गल ( धर्मशाला ,काँगड़ा )


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