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राजजात में दिखा अतीत का प्रतिबिंब

राजकुंवरों का गांव कांसुवा राजजात का तीसरा एवं महत्वपूर्ण पड़ाव। पहाड़ में बड़े भाई को जेठू और छोटे को काणसू कहा जाता है। राजशाही के दौर में कुंवर परिवार का छोटा भाई जिस गांव में बसा, उसे कांसुवा कहा गया, जबकि बड़े भाई के गांव का नाम कालांतर में जूलगढ़ पड़ा। पंवारवंशी राजा ने जब से अपन

By Edited By: Published: Fri, 22 Aug 2014 02:37 PM (IST)Updated: Fri, 22 Aug 2014 02:40 PM (IST)
राजजात में दिखा अतीत का प्रतिबिंब

चांदपुरगढ़ी, [सुभाष भट्ट]। राजकुंवरों का गांव कांसुवा राजजात का तीसरा एवं महत्वपूर्ण पड़ाव। पहाड़ में बड़े भाई को जेठू और छोटे को काणसू कहा जाता है। राजशाही के दौर में कुंवर परिवार का छोटा भाई जिस गांव में बसा, उसे कांसुवा कहा गया, जबकि बड़े भाई के गांव का नाम कालांतर में जूलगढ़ पड़ा। पंवारवंशी राजा ने जब से अपनी पुरानी राजधानी चांदपुरगढ़ी छोड़ी, तब से राज परिवार के प्रतिनिधि के रूप में कांसुवा के कुंवर ही राजजात की मनौती मांगते हैं और नंदा की छंतोली को चौसिंग्या खाडू के साथ विदा करते हैं।

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देखने में यह गांव भी सामान्य है, मगर इसका धार्मिक एवं सामाजिक तानाबाना काफी हद तक राजशाही संस्कृति से प्रभावित है। यही वजह है कि भगोती नंदा को यहां राजराजेश्वरी नंदा के नाम से पुकारा जाता है। खैर! कांसुवा में अव्यवस्थाओं के बीच एक रात बिताने के बाद हम भी आगे की यात्रा के लिए तैयारी कर रहे हैं। गांव के बीच स्थित नंदा की बहन व कांसुवा की कुलदेवी भराड़ी के मंदिर में सुबह से ही पूजा-अर्चना चल रही है। इसके बाद राजछंतौली व चौसिंग्या खाडू कांसुवा के राजकुंवरों के पुश्तैनी मकान में पहुंचते हैं। मकान के एक छोर में बने नंदादेवी मंदिर के समक्ष राजकुंवर सपरिवार देवी की स्तुति करते हैं। देवी के पश्वा ही मंदिर के कपाट खोलते हैं और फिर उन्हें नंदा की विदाई के बाद बंद कर दिया गया। अब अगली राजजात में ही वह दोबारा खुलेंगे। राजकुंवरों के लिए यह क्षण बेहद ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण है। असल में नंदादेवी राजजात के जरिये कुंवर परिवार अपनी सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत से एक बार फिर रू-ब-रू हो रहे हैं। उनके चेहरे पर इसका गर्व साफ झलक रहा है। देवी नंदा इसी मकान के चौक से कुंवरों को आशीर्वाद देने के बाद ससुराल के लिए विदा लेती है। यानी, राजजात में आज हर तरफ पंवार राजवंश एवं उसके प्रतिनिधि कुंवरों की पृष्ठभूमि ही चर्चा का केंद्र बिंदु है। करीब तीन किमी की चढ़ाई के बाद हम चांदपुरगढ़ी पहुंचे तो यहां किले के भग्नावशेष देख पंवार राजवंश की ऐतिहासिक विरासत से रूबरू होने का मौका मिला।

ऊंचे टीले पर बने किले की बनावट खास है। चारों ओर नजर दौड़ाई तो आटागाड घाटी में दोनों ओर तकरीबन 20 से 25 किलोमीटर दूर की पहाड़ियां भी साफ नजर आ रही हैं। मन में ख्याल आया कि शायद दुश्मन पर दूर तक नजर रखने के उद्देश्य से ही राजा ने अपने अभेद किले के लिए इस स्थान का चयन किया होगा। यहां राजपरिवार के प्रतिनिधि के तौर पर ठाकुर भवानी प्रताप सिंह ने भगवती नंदा की आराधना कर राजकुंवरों को तलवार व पगड़ी भेंट की। राजजात में आज भले ही पंवार राजवंश व कुंवरों का प्रभाव अधिक देखने को मिला, मगर चांदपुरगढ़ी में जिस तरह हजारों-हजार भक्त जुटे, उससे साफ हो गया कि नंदा के प्रति हर दिल में गहरी आस्था बसी है।

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