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जीवन इच्छाओं से कहीं ज्यादा है और श्रद्धा जीवन से भी बढ़ कर है

श्रद्धा भी एक उपहार है। आप अपने दिल और दिमाग में श्रद्धा थोपने का प्रयास नहीं कर सकते। कभी-कभी, जब आपका दिमाग अपनी बक-बक और नकारात्मकता से श्रद्धा को नकार भी देता है, तब भी आपके अंदर कुछ होता है, जो आपको उस दिशा में धकेलता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 08 Feb 2016 11:04 AM (IST)Updated: Mon, 08 Feb 2016 11:14 AM (IST)
जीवन इच्छाओं से कहीं ज्यादा है और श्रद्धा जीवन से भी बढ़ कर है

श्रद्धा भी एक उपहार है। आप अपने दिल और दिमाग में श्रद्धा थोपने का प्रयास नहीं कर सकते। कभी-कभी, जब आपका दिमाग अपनी बक-बक और नकारात्मकता से श्रद्धा को नकार भी देता है, तब भी आपके अंदर कुछ होता है, जो आपको उस दिशा में धकेलता है।

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यदि आप विश्वास को लाने का प्रयास कर रहे हैं, तो कुछ नहीं होगा। अगर आप कहना चाहते हैं कि 'मैं अपनी श्रद्धा बनाए रखना चाहता हूं। कौन सी श्रद्धा आप बनाए रखना चाहते हैं? फेंक दीजिए श्रद्धा को! आप अपनी श्रद्धा को बरकरार रखने का 'प्रयास' कर रहे हैं। ये कितना बड़ा बोझ है! उल्टा कहिए, 'मुझे कोई परवाह नहीं है!'

यदि श्रद्धा है, तो है। यदि श्रद्धा नहीं है, तो नहीं है, आप कर भी क्या सकते हैं? यह सीधी-सी बात है। श्रद्धा भी एक उपहार है। आप अपने दिल और दिमाग में श्रद्धा थोपने का प्रयास नहीं कर सकते। कभी-कभी, जब आपका दिमाग अपनी बक-बक और नकारात्मकता से श्रद्धा को नकार भी देता है, तब भी आपके अंदर कुछ होता है, जो आपको उस दिशा में धकेलता है। जब ऐसा होता है, तो उसे पहचानिए। और यकीन मानिए ऐसा होता है। आपको उस क्षण में अपनी श्रद्धा के होने का अहसास होता है।

आप यह जान पाते हैं कि किसी के प्रति आपके मन में आदर और सम्मान का भाव है। लेकिन अगर कोई कहता है, 'मैं किसी में विश्वास नहीं करता", लेकिन फिर भी वह बैठकर ध्यान करता है और यदि आप उससे पूछेंगे, 'कि आप ध्यान क्यों कर रहे हैं?', तो वह कहेंगे, 'मेरे अंदर कुछ है, जो मुझे ध्यान करने के लिए कहता है।" एक व्यक्ति कहता है, 'मैं गुरु में विश्वास नहीं रखता!', लेकिन फिर भी जब गुरुदेव आते हैं, वह कहता है, 'क्योंकि अब मेरे पास कुछ और करने के लिए नहीं है, तो चलो मैं वहीं चलता हूं।', और वह वहां पहुंच जाता है। कुछ है, जो उस व्यक्ति को उस ओर खींचता है, उसे गुरु की तरफ ले जाता है, या सत्संग में आने पर विवश कर देता है। वह क्या है?

आपने यह निर्णय ले लिया, कि आपको श्रद्धा नहीं है, और आपने अपनी श्रद्धा को मिटाने के लिए बहुत जतन कर लिए, या मना करते गए कि आपमें कोई श्रद्धा है, लेकिन फिर भी कुछ ऐसा हुआ, जिसने आपको बांधे रखा। वहीं, आपको सजग हो जाना चाहिए। कि हां, श्रद्धा तो है!

इसलिए, श्रद्धा थोपी नहीं जा सकती, वह तो है ही। एक बार जब वह आ जाती है, तो हमेशा रहती है। अगर वह चली जाती है, तो वह आपको दुखी कर देती है। जब आप दुखी हों, तो इतना याद रखिए, श्रद्धा चली गई है, इसीलिए मैं दु:ख में हूं और आप दुखी नहीं रहना चाहते। तो इसीलिए, जिस क्षण आप यह ठान लेते हैं, कि 'मुझे दुखी नहीं रहना", तब श्रद्धा वापस आ जाती है।

श्रद्धा तो हमेशा से ही थी, बस वह दोबारा प्रकट हो जाती है। यदि आप श्रद्धा को रखने का भरपूर प्रयास करते हैं, तब वह एक बहुत ही मुश्किल काम है। कभी-कभी लोगों को ऐसा लगता है कि वे सिर्फ गुरु या भगवान की वजह से अपनी श्रद्धा बरकरार रखे हुए हैं। भगवान के लिए, इतना याद रखिए, कि वह 'आप" हैं, जो श्रद्धा रखते हैं। याद रखिए, कि यदि आप श्रद्धा नहीं रखते, तो उससे भगवान को कोई फर्क नहीं पड़ता। वह कहता है, 'ठीक है, विश्वास मत रखो, तो क्या हुआ? मैं तो यहीं हूं! अगर तुम्हें लगता है कि मैं यहां नहीं हूं, तो ठीक है, तुम्हें कुछ भी सोचने की आजादी है।'

बहुत से लोग कहते हैं, 'ओह! मैं भगवान में इतना विश्वास करता हूं।' तो क्या हो गया यदि आप इतना विश्वास करते हैं? जो होना है, वो तो होगा ही। हमारी श्रद्धा इतनी खोखली होती है। हमारी श्रद्धा केवल हमारी सुविधा के हिसाब से है, जिससे छोटी-छोटी चीजें हो जाएं। हमारी श्रद्धा, खास तौर से हमारी खुद की इच्छाएं पूरी करने के लिए होती हैं।

यदि हमारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, तब हम कहते हैं, 'ओह, मुझे श्रद्धा है।' यदि वे पूरी नहीं होती, तब हम कहते हैं, 'मेरी श्रद्धा हिल गई है, मुझे श्रद्धा नहीं है।' मैं आपसे कहता हूं, जीवन इच्छाओं से कहीं ज्यादा है और श्रद्धा जीवन से भी बढ़ कर है।

श्रद्धा रहती है, और वह तब प्रकट होती है जब आपके अंदर सत्व और सामंजस्य बना होता है। आप सिर्फ इतना कर सकते हैं कि सामंजस्य बनाए रखें, और उचित व्यायाम से, भोजन और ज्ञान से अपने मन को स्वच्छ रखें। ये सब उस दिशा में बढ़ने के लिए आपकी सहायता करेंगे।


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