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इससे हमारी छवि अच्छी बनेगी

बेशक मन चंचल है और उसे वश में करना कठिन है, पर अभ्यास से उसे साधा जा सकता है। सोचें नहीं, खुद के लिए इस अभ्यास की ओर कदम बढ़ाएं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Thu, 09 Feb 2017 11:42 AM (IST)Updated: Thu, 09 Feb 2017 11:47 AM (IST)
इससे हमारी छवि अच्छी बनेगी
इससे हमारी छवि अच्छी बनेगी

गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं 'मनुष्य को अपना उद्धार खुद करना चाहिए, न कि पतन'। हम दंड के भय से सरकारी कानूनों का पालन तो करते हैं, पर खुद को अनुशासित नहीं रख पाते। अपने अधिकार को समझने के साथ-साथ हर किसी को सुखी देखना चाहते हैं, तो स्वयं को अनुशासित रखना सीख लें।

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एक शाम एक मित्र अपनी गाड़ी से ऑफिस से घर जा रहे थे। सड़क थोड़ी संकरी थी। तभी पीछे आ रही कार का चालक आगे निकलने के प्रयास में लगातार हॉर्न बजाने लगा। सामने से आ रही गाडिय़ों के कारण मित्र उसे पास नहीं दे पा रहे थे। कुछ दूर चलने के बाद जब उसे मौका मिला, तो उसने मित्र की गाड़ी के आगे अपनी कार तिरछी करके खड़ी कर दी। उससे एक बुजुर्ग निकले और उग्र तेवर के साथ मित्र की कार की ओर बढ़े। मौके की नजाकत को भांप मित्र भी नीचे उतरे और विनम्रता से उनसे पूछा, आखिर बात क्या है? वे क्यों इतने गरम हो रहे हैं? इस पर बुजुर्ग ने अपशब्द कहते हुए साइड न देने की शिकायत की। उनका क्रोध कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मित्र अच्छी डील-डौल वाले आदमी हैं। वह बुजुर्ग के समझाने के लिए आगे बढ़े। एक लंबे-चौड़े व्यक्ति को अपनी ओर आते देख बुजुर्ग शायद यह सोच कर सहमे कि अब उनकी खैर नहीं। वह शांत हो गए और क्षमा मांगने लगे, लेकिन मित्र ने शांति से उनसे कहा कि क्षमा की कोई जरूरत नहीं। वे उन्हें तब तक भला-बुरा कह सकते हैं, जब तक कि उनके मन को शांति न मिल जाए। इसके बाद बुजुर्ग शर्मिंदगी में उनसे आंख तक नहीं मिला पाए और बिना कुछ कहे वहां से चले गए।

यह घटना यह दर्शाती है कि दो व्यक्तियों का आचरण कैसा हो सकता है। बुजुर्ग सज्जन संभवत: अपनी प्रवृलिा या परिस्थिति के कारण अपने स्वभाव की उग्रता दर्शा रहे थे, जबकि दूसरी तरफ मित्र का व्यवहार उनके स्वभाव की विनम्रता प्रकट कर रहा था। अगर ऐसा नहीं होता, तो वह भी उग्र हो सकते थे। उनकी जगह कोई उग्र व्यक्ति होता, तो हो सकता है कि उन बुजुर्ग को अपनी आक्रामकता का शिकार बना सकता था। सुखद बात यह रही कि एक शांत व्यक्ति ने दूसरे को विनम्रता का पाठ जरूर सिखा दिया।

हालांकि, आमतौर पर ऐसा हर बार होता नहीं दिखता। आपको भी सड़क पर रोड-रेज की घटनाएं दिख जाती होंगी या फिर आपने खुद ऐसी असहज स्थिति का सामना किया होगा, जिसमें अक्सर गर्मा-गर्मी और हाथा-पाई तक की नौबत आ जाती है। यह माहौल इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि आज के समय में हर आदमी (खासकर शहरों में) अति व्यस्त होने के कारण हर समय जल्दबाजी में रहता है। यही कारण है कि लोगों में धैर्य समाप्त होता जा रहा है। कम समय में कई काम पूरे करने के दबाव में अधिकतर लोग खुद के स्वभाव पर नियंत्रण नहीं रख पाते और थोड़ी सी असहज स्थिति होने पर ही बिफर पड़ते हैं। लेकिन स्वभाव में शामिल होते जा रहे क्रोध, अधैर्य आदि नकारात्मक आदतों से कहीं न कहीं हमारा ही नुकसान होता है।

गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

उद्धरेद् आत्मनाऽऽत्मानं नात्मानम् अवसादयेत्।

आत्मैव चत्मनो बंधुर्आत्मैव रिर्पु आत्मन: ।।

यानी 'हमें स्वयं को ऊपर उठाना चाहिए, नीचे गिराना नहीं। अपने मित्र हम स्वयं ही हैं और स्वयं ही हम अपने शत्रु हैं।' कहने का मतलब यह कि हम अपने आचरण से बड़े बनते हैं और इसी आचरण से दूसरों की नजर में छोटे भी हो जाते हैं।

विनम्रता और धैर्य जैसे गुण आज के समय में हर किसी के लिए आवश्यक हैं, पर इसे आत्मसात करके अपनी आदत में शुमार करना इतना आसान नहीं। क्रोध तो हर कोई कर सकता है, लेकिन किसी को उसकी गलतियों के लिए हम क्षमा तभी कर सकते हैं, जब हमारे भीतर तक विनम्रता का वास होगा। इस बारे में एक छोटी-सी कथा का जिक्र करना जरूरी लगता है। एक संन्यासी अपने शिष्य के साथ रोज एक जंगल से होकर गुजरते थे। एक बार उस रास्ते पर चलते हुए उन्हें एक बिच्छू ने डंक मार दिया। वे दर्द से कराहने लगे। दूसरे दिन फिर उन्हें बिच्छू ने काटा। दर्द से बिलबिलाने के बावजूद उन्होंने बिच्छू को नहीं मारा। जब तीसरे दिन भी उसने डंक मार दिया और वह दर्द से छटपटा रहे थे, तो शिष्य से रहा नहीं गया। वह बोला, 'गुरुजी, इस बिच्छू ने आपको इतनी बार सताया। आप इसे मार क्यों नहीं देते।' इस पर उन्होंने जवाब दिया, 'डंक मारना इसका स्वभाव और धर्म है, जबकि विनम्रता और क्षमा मानव स्वभाव है।' जब यह अपना धर्म नहीं छोड़ सकता, तो भला मैं क्यों अपना धर्म छोड़ दूं।' मनुष्य की यही मनुष्यता समझने की बात है। लेकिन यह मनुष्यता आत्मानुशासन यानी स्वयं के अनुशासन से ही आ सकती है।

हर देश का एक संविधान होता है। कानून-व्यवस्था होती है। उसका पालन कराने के लिए प्रशासन और पुलिस होती है। कानून-व्यवस्था का उल्लंघन करने वालों के लिए समुचित सजा का प्रावधान होता है। सभ्य समाज का नागरिक होने और कानून का डर होने के कारण हम सरकारी नियम-कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं। हमें सजा का भय होता है। लेकिन अपने समाज और देश को सभ्य और विकासशील बनाने के लिए नागरिक का आत्मानुशासित होना भी जरूरी है। हमें अपने घर को साफ-सुथरा रखना अच्छा लगता है, पर जब हम सड़क, बस, ट्रेन में चलते हैं, तो जहां-तहां थूक देते हैं या खाने-पीने के बाद बचा-खुचा सामान जहां-तहां फेंक कर गंदा कर देते हैं। क्या इसे एक मनुष्य का धर्म कहा जाएगा? कदापि नहीं। अपने गांव, कस्बे, शहर और देश को साफ-सुथरा रखने से हम तो स्वस्थ-स्वच्छ दिखेंगे ही, इससे हमारी छवि भी अच्छी बनेगी।

गीता के छठे अध्याय में ही श्रीकृष्ण कहते हैं :

बन्र्धु आत्मात्मनस् तस्य येनात्मैवाऽऽत्मना जित:।

अनात्मनस् तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥

अर्थात 'अपना मित्र वह है, जिसने स्वयं को जीत लिया है। जिसने अपने को नहीं जीता, वह खुद अपने शत्रु जैसा बरताव कर रहा है।'

यहां यह तर्क दिया जा सकता है कि मानव मन तो चंचल होता है और हर कोई एक जैसा तो हो नहीं सकता, ऐसे में सभी लोग विनम्र और आत्मानुशासित कैसे हो सकते हैं? इसका उत्तर श्रीकृष्ण के उस संदेश में छिपा है, जहां उन्होंने कहा है कि बेशक मन चंचल है और उसे वश में करना कठिन है, पर अभ्यास से उसे साधा जा सकता है। सोचें नहीं, खुद के लिए इस अभ्यास की ओर कदम बढ़ाएं।


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