अज्ञानता दूर करती है गीता
गीता मात्र एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का शास्त्र है। यह कर्म, ज्ञान, युद्ध, यज्ञ आदि विषयों की विस्तृत व्याख्या कर आम लोगों की अज्ञानता दूर करती है।
गीता मात्र एक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का शास्त्र है। यह कर्म, ज्ञान, युद्ध, यज्ञ आदि विषयों की विस्तृत व्याख्या कर आम लोगों की अज्ञानता दूर करती है।
भली प्रकार से मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है गीता, जो पद्मनाभ भगवान के श्रीमुख से नि:सृत
वाणी है। गीता एक शास्त्र है, जिसका भगवान ने गायन किया। उस गायन में उन्होंने आत्मा के बारे में सत्य बताया। सिवाय आत्मा के कुछ भी शाश्वत नहीं है। उस गायन में महायोगेश्वर ने जन को जपने के लिए क्या कहा? ओम्। अर्जुन! ओम्। अर्जुन! ओम् अक्षय परमात्मा का नाम है।
उसका जप कर और मेरा ध्यान धर। गीता में सिर्फ एक ही कर्म वर्णित है- परमदेव एक परमात्मा की सेवा। उन्हें श्रद्धा के साथ अपने हृदय में धारण करें। गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म, यज्ञ, वर्ण, वर्णसंकर, युद्ध, क्षेत्र, ज्ञान आदि शब्दों पर बार-बार बल दिया है। इन शब्दों का अपना आशय है और पुनरावृत्ति में भी इनका अपना सौंदर्य है।
श्रीकृष्ण एक योगेश्वर हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के स्वरूप को समझने के लिए पाठकों को गीता के अध्याय तीन तक पढ़ना होगा। अध्याय तेरह तक यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रीकृष्ण योगी हैं।
अध्याय दो से यह विचार सामने आ जाता है कि सनातन और सत्य तो एक-दूसरे के पूरक हैं। अध्याय चार तक युद्ध के बारे में स्पष्ट होने लगता है। अध्याय ग्यारह तक मनुष्य के सारे संशय निर्मूल हो जाते हैं। अध्याय चार से ज्ञान के बारे में अज्ञानता दूर हो जाती है। अध्याय तेरह में यह बात भली प्रकार समझ में आ जाती है कि प्रत्यक्ष दर्शन का नाम ज्ञान है। अध्याय दो में ‘निष्काम कर्मयोग’ आरंभ होकर अंतिम अध्याय तक चलता रहता है। कर्म
का नाम अध्याय 2 के 39 वें श्लोक में प्रथम बार लिया गया है। इससे यह बात सामने आ जाती है कि कर्म का अर्थ आराधना, भजन भी क्यों है। गीता जीविका-संग्राम का साधन नहीं, अपितु जीवन-संग्राम में शाश्वत विजय का क्रियात्मक प्रशिक्षण है। इसलिए यह ऐसा युद्ध ग्रंथ है, जो जीवन में वास्तविक विजय दिलाता है। लेकिन गीतोक्त युद्ध तलवार, धनुष, बाण, गदा और फरसे से लड़ा जाने वाला सांसारिक युद्ध नहीं है और न ही
इन युद्धों में शाश्वत विजय निहित है। यह सदसत् प्रवृत्तियों का संघर्ष है, जिनके रूपात्मक वर्णन की परंपरा रही है। वेद में इंद्र और वृत्र, विद्या और अविद्या, पुराणों में देवासुर संग्राम, महाकाव्यों में राम और रावण, कौरव एवं पांडवों के संघर्ष को ही गीता में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र, दैवी संपद एवं आसुरी संपद, सजातीय एवं विजातीय, सद्गुणों एवं दुर्गुणों का संघर्ष कहा गया है।
गीता का धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र भारत का कोई भूखंड नहीं, बल्कि स्वयं गीताकार के शब्दों में- इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। - कौन्तेय! यह शरीर ही एक क्षेत्र है, जिसमें बोया हुआ भला और बुरा बीज संस्कार रूप से सदैव उगता है। दस इंद्रियां, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, पांचों विकार और तीनों गुणों का विकार इस क्षेत्र का
विस्तार है। प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से विवश होकर मनुष्य को कर्म करना पड़ता है। वह क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता है। ‘पुनरपि जननम् पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ जन्म-जन्मांतरों से करते ही तो बीत रहा है। यही कुरुक्षेत्र है। सद्गुरु के माध्यम से साधना के सही दौर में पड़कर साधक
जब परमधर्म परमात्मा की ओर अग्रसर होता है, तब यह क्षेत्र धर्मक्षेत्र बन जाता है। यह शरीर ही क्षेत्र है। गीता छंदोबद्ध है। व्याकरण-सम्मत है, किंतु इसके पात्र प्रतीकात्मक हैं, अमूर्त योग्यताओं के मूर्तरूप मात्र हैं। गीता के आरंभ में तीस-चालीस पात्रों का नाम लिया गया है, जिनमें आधे सजातीय हैं, आधे विजातीय। कुछ पांडव
पक्ष के हैं, कुछ कौरव पक्ष के। विश्वरूप दर्शन के समय इनमें से चार-छह नाम पुन: आए हैं, अन्यथा संपूर्ण गीता में इन नामों की चर्चा तक नहीं है। एकमात्र अर्जुन ही ऐसा पात्र है, जो आरंभ से अंततक योगेश्वर के समक्ष है। वह
अर्जुन भी केवल योग्यता का प्रतीक है, न कि व्यक्ति विशेष का। गीता के आरंभ में अर्जुन सनातन कुलधर्म के लिए विकल है, किंतु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने इसे अज्ञान बताया और निर्देश दिया कि आत्मा ही सनातन है, शरीर
नाशवान है, इसलिए युद्ध कर। गीता के ग्यारहवें अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य देखने पर अर्जुन अपनी क्षुद्र त्रुटियों के लिए क्षमायाचना करने लगे। श्रीकृष्ण ने क्षमा किया और याचना के अनुरूप सौम्य स्वरूप में आकर कहा, ‘मेरे इस स्वरूप को न पहले किसी ने देखा है और न भविष्य में कोई देख सकेगा।’ तब तो गीता हम
लोगों के लिए व्यर्थ है, क्योंकि उस दर्शन की योग्यताएं अर्जुन तक सीमित रह गईं, जबकि उसी समय संजय भी श्रीकृष्ण को देख रहा था।
पहले भी उन्होंने कहा, ‘बहुत से योगीजन ज्ञानरूपी तप से पवित्र होकर मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।’ अंतत: वे महापुरुष क्या कहना चाहते हैं? वस्तुत: अनुराग ही ‘अर्जुन’ है, जो आपके हृदय की भावना-विशेष है।
अनुरागविहीन पुरुष न कभी पूर्व में देख सका है और न ही वह भविष्य में कभी देख सकेगा। अत: अर्जुन एक प्रतीक है। यदि प्रतीक नहीं है, तो गीता का पीछा छोड़ दें। गीता आपके लिए नहीं है, क्योंकि उस दर्शन की योग्यता अर्जुन तक ही सीमित रह गई। अनन्य भक्ति अनुराग का ही दूसरा रूप है और यही अर्जुन का स्वरूप भी है। अर्जुन पथिक का प्रतीक है। इस प्रकार गीता के पात्र प्रतीकात्मक हैं और यथास्थान उनका संकेत भी है।
‘यथार्थ गीता’ से गुण और दोष अलग नहीं हैं। इन दोनों को अलग करके देखना अज्ञान है। जिस तरह
काला-सफेद, रात्रि-दिन, स्त्री-पुरुष, धूपछांव, गीला- सूखा, क्रोध-क्षमा, संशयविश्वास, ये सभी विपरीत गुणों वाले
होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। विरोधी गुण को मिश्रित किए बिना सृजन संभव ही नहीं है। इन्हें जान
लेना ज्ञान है और न जानना अज्ञान।
ईश्वर को भी सृष्टि की रचना में माया का आश्रय लेना पड़ता है। मनु के समक्ष जब भगवान राम प्रकट हुए, तो उन्होंने सीता को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की। भगवान ने कहा कि ये मेरी आदि शक्ति हैं। मैं इनके सहयोग के बिना आपकी इच्छापूर्ति नहीं कर सकूंगा। तब उन्होंने सीता का परिचय दिया, वह ‘माया’ के रूप में ही दिया :
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोर यह माया।। ये मेरी ही माया शक्ति हैं। अवतार और लीला के विस्तार में इन्हीं की प्रमुख भूमिका रहती है। मनुष्य (जीव) और ईश्वर का अंतर यह है कि संसार में व्यवहार करते हुए भी जिसकी नित्यता, चैतन्यता और आनंद खंडित न हो, वह ईश्वर (ज्ञान स्वरूप- अखंड ज्ञानघन) है। व्यवहार में प्रत्येक कार्य में जो अनित्यता, जड़ता-अज्ञान और दुख एवं विषाद को प्राप्त हो, वह जीव और
अज्ञानी का स्वरूप है : हर्ष विषाद ज्ञान अज्ञाना। जीव धर्म अहिमिति अभिमाना।। क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में दोष-गुण, ज्ञान अज्ञान, हर्ष-विषाद कुछ है ही नहीं। वह उन सब विरोधी मानी जाने वाली वस्तुओं का सम्यक
उपयोग करके स्वयं को अलग रखता है। उसका कार्य में अभिनिवेश नहीं होता है : जथा अनेकन वेष धरि नृत्य करइ नट कोई। सोई सोई भाव दिखावई आपनु होई न सोई।। उसका कारण है कि गुण-दोष में गुण या दोष
देखने के स्थान पर दोनों की उपयोग शक्ति का सदुपयोग कर स्वयं को अलग रखता है।
इसीलिए वह कार्य-कारण से परे है। किस पदार्थ या व्यक्ति का उपयोग कहां करना है, इस विधा को जानने वाला ज्ञानी होता है। भगवान श्रीराम ने जिस व्यक्ति में जो गुण था, उसका उपयोग कर लिया और ‘राम राज्य’ बना लिया। सभी लोगों में दोष निकालने के कारण रावण ने अपने अर्जित ज्ञान और विद्वता का उपयोग अपने
विरोध में ही कर लिया। जिसे वह ज्ञान का परिणाम समझ रहा था, वह उसका ज्ञानाभिमान था। उसने जिन-जिन में दोष देखा, उनके गुणों का उपयोग श्रीराम ने कर लिया। युद्ध और उससे उपजी पीड़ा समाप्त करने के लिए लोग करुणामय बनें तथा आपसी सद्भाव रखें। तत्काल समाधान तो लगभग असंभव है, लेकिन अदम्य इच्छाशक्ति से ऐसा हो सकता है । यह सत्य है कि मन में छिपी हिंसा ही बाहर संघर्ष एवं युद्ध बनकर प्रकट होती
है, पर एक बात याद रखने लायक है कि जैसे हिंसा मानव मन का भाग है, वैसे ही शांति एवं प्रसन्नता भी उसी मन के भाग हैं। यदि लोग वास्तव में चाहें, तो अंदर और बाहर शांति पा सकते हैं। आखिर लोग मन के हिंसात्मक व आक्रामक पहलू पर ही क्यों जोर देते हैं? वे यह क्यों भूल जाते हैं कि वही मन अनंत करुणा तथा रचनात्मकता की ऊंचाइयां भी पा सकता है। अंतिम निचोड़ यही है कि सारे युद्ध मन की आंतरिक हिंसा के प्रकटीकरण हैं। इस आदिम प्रवृत्ति के पार जाने का सही मार्ग खोजना और उस पर अमल करना हिंसा एवं युद्ध की समस्या हल करने का स्वस्थ एवं समुचित तरीका है।
आध्यात्मिकता ही वह मार्ग है, जो हमारी विचार शैली का कायाकल्प करता है और कमजोरियों व सीमाओं से मन को पार ले जाता है। आध्यात्मिकता का लक्ष्य होता है आत्मा से साक्षात्कार। लक्ष्य पाने के लिए आवश्यक है
अंतत: दिशा सूचक शब्दों के पार जाना।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद का दर्शन...