अज्ञान और मिथ्या धारणाएं हमें भयाक्रांत रखती हैं
अज्ञान और मिथ्या धारणाएं हमें भयाक्रांत रखती हैं। ज्ञान की वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के डर स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं।
डर कर मैदान छोड़ने की बजाय संकटों का यदि डटकर मुकाबला किया जाए, तो जीत निश्चित है। पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का चिंतन...
विपत्तियां सभी के जीवन में आती हैं। साहसी व्यक्ति उत्साह के साथ उनका मुकाबला करते हैं, जबकि कायरों को आंतरिक दुर्बलता या काल्पनिक भय परास्त कर देता है। बहुत लोगों को अंधेरा देखते ही पसीना आने लगता है। वहां शेर, सांप, बिच्छू, भूत, चोर, डाकू आदि होने की आशंकाओं से मन घिरने लगता है। यदि उसी समय दीपक लेकर देखा जाए, तो डरने योग्य कुछ भी देखने में नहीं आता। कृषक रात को खेतों पर अंधेरे में अकेले ही सोते हैं। बहुत से लोग घने वन-प्रदेशों के बीच छोटी झोपड़ियां बनाकर मजे से जीवन जीते हैं। यदि मन दुर्बल
होता है, तो वह यदा-कदा घटने वाली दुर्घटनाओं को ही विशेष रूप से याद रखता है।
जोखिम तो कूदने-दौड़ने, पेड़ पर चढ़ने, तैरने, पर्वतारोहण, मोटर या स्कूटर चलाने आदि में भी है। खतरे की आशंका से इन साहसिक कार्यों से लोग विरत नहीं हो जाते। संकट भयंकर तभी तक लगते हैं, जब तक उनसे भिड़ा न जाए। जैसे-जैसे संकटों से जूझने का अभ्यास होता जाता है, वे दैनिक कार्यों की तरह सरल-स्वाभाविक प्रतीत होने लगते हैं। मनोबल ही संकटों का डर खत्म करते हैं। सिंह को देखते ही हिरण भयाक्रांत हो चौकड़ी मारना भूल जाते हैं।
वे खड़े रह जाते हैं और बेमौत मारे जाते हैं। यदि वे साहस बनाए रखें और छलांगें लगाते रहें, तो सिंह से अधिक दौड़ सकने की सामथ्र्य के कारण उसकी पकड़ से बच सकते हैं। संकट का सामना करने की बजाय भयभीत होने पर मनुष्य भी इसी तरह अपनी शक्ति भुलाकर अपने को क्षतिग्रस्त कर लेते हैं।
अज्ञान और मिथ्या धारणाएं हमें भयाक्रांत रखती हैं। ज्ञान की वृद्धि के साथ अनेक प्रकार के डर स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं। संकट के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान भी उनसे भिड़ने के बाद ही पता चलता है। इसलिए आवश्यकता भयभीत होने की नहीं, संकटों का डटकर मुकाबला करने की है।