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जिसने प्रेम को महसूस किया, उसे स्वत: ही परमात्मा की झलक मिल जाती है

प्रार्थना से भक्ति भाव का उदय होता है और भक्त और परमात्मा के बीच के आवरण फिरने लगते हैं। पूरी तरह अहंकार शून्य होकर भक्त केवल प्रभु की ही आकांक्षा करता है और तब प्रभु को आना ही पड़ता है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Mon, 23 May 2016 11:30 AM (IST)Updated: Mon, 23 May 2016 11:34 AM (IST)
जिसने प्रेम को महसूस किया, उसे स्वत: ही परमात्मा की झलक मिल जाती है

कहते हैं कि एक बार अनेकानेक भौतिक उपलब्धियां हासिल कर चुका व्यक्ति एक बार भगवत्ता को उपलब्ध संत के पास पहुंचा और बोला कि मुङो परमात्मा को पाना है। मुङो परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग बता दीजिए। संत ने उसकी आंखों में गौर से झांका, तो उन्हें वहां सूक्ष्म अहंकार ही परमात्मा को भौतिक उपलब्धियों की तरह ही प्राप्त कर लेने की जिद करता नजर आया। उनका हृदय करुणा से भर उठा।

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उन्होंने उससे पूछा तुमने कभी किसी से प्रेम किया है। नहीं, इसका मुङो वक्त ही नहीं मिला। मुङो तो बस परमात्मा तक पहुंचने का राज बता दीजिए। इस पर संत ने कहा कि याद करिए। स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी किसी को भी देखकर कभी हृदय में प्रेम की चाहत उठी हो। ‘‘नहीं। ऐसी बेकार चीजों के लिये मेरे पास वक्त नहीं। ’’ उसकी गर्व पूर्ण बात सुनकर संत को उस पर दया ही आई और वे निराश भाव से सिर हिलाकर बोले, ‘तब व्यर्थ है। परमात्मा से तुम्हारा मिलन कभी नहीं हो सकता। यह सुनकर वह व्यक्ति आश्चर्यचकित हुआ। संत ने स्पष्ट किया-‘प्रेम हालांकि है सासांरित ही, फिर भी वह परमात्मा की अभिव्यक्ति है। जब भी तुम प्रेमपूर्ण भाव से देखते हो या कोई तुम्हारी ओर देखता है, तो उस पल में परमात्मा की अभिव्यक्ति ही होती है। यही प्रेम गहरा हो, तो समर्पण का अभ्युदय होता है। समर्पण से ऐसी प्रार्थना का जन्म होता है, जिसमें कोई मांग नहीं होती।

प्रार्थना से भक्ति भाव का उदय होता है और भक्त और परमात्मा के बीच के आवरण फिरने लगते हैं। पूरी तरह अहंकार शून्य होकर भक्त केवल प्रभु की ही आकांक्षा करता है और तब प्रभु को आना ही पड़ता है। तब परमात्मा और भक्त में कोई भेद नहीं रह जाता। इसलिए जिसने प्रेम को महसूस किया, उसे स्वत: ही परमात्मा की झलक मिल जाती है। तभी कोई भी पुरुष या स्त्री हमें आकर्षित भले ही कर ले किंतु सर्वगुण संपन्न नहीं नजर आता। चुपके से हमारा मन कह ही देता है कि अगर इसमें ऐसा होता तो और भी अच्छा होता। सर्वगुण सम्पन्न (सम्पूर्ण) केवल परमात्मा ही है, जिसे पाने के लिए हमें प्रेम रूपी द्वार को खोलना होगा और फिर आवश्यकता होगी प्रेम को गहराते जाने की। शेष स्वत: ही होता चला जायेगा। स्मरण रहे परमात्मा की ओर हम एक कदम चलें तो वह सौ कदम हमारी ओर चलता है।


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