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यथार्थ बुद्धिमान परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानंद का उपभोग करते हैं

एक बात जान लेना जरूरी है कि पढ़ने से सुनना अच्छा है। सुनने से भी अच्छा है देखना। देखना ही व्यावहारिक ज्ञान है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 15 Feb 2017 12:36 PM (IST)Updated: Wed, 15 Feb 2017 01:00 PM (IST)
यथार्थ बुद्धिमान परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानंद का उपभोग करते हैं
यथार्थ बुद्धिमान परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानंद का उपभोग करते हैं

काशी के बारे में पढ़ने या सुनने से भी अधिक प्रभावी होता है उसका प्रत्यक्ष दर्शन। ठीक उसी प्रकार जीवन का लक्ष्य हासिल करने के लिए किसी भी वस्तु का प्रत्यक्ष दर्शन यानी व्यावहारिक ज्ञान सबसे अधिक जरूरी है। रामकृष्ण परमहंस का चिंतन..।

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इन दिनों युवा व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की बजाय मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते हैं। यदि वे परम लक्ष्य की प्राप्ति करना चाहते हैं, तो उन्हें विद्या के वास्तविक उद्देश्य को समझना होगा। शास्त्र या ग्रंथ ईश्वर के निकट पहुंचने का मार्ग भर बताते हैं। एक बार यदि आप सही मार्ग जान लेते हैं, तो फिर शास्त्रों-ग्रंथों की जरूरत न के बराबर रह जाती है। तदुपरांत व्यावहारिक ज्ञान ही काम आता है। तब तो परम लक्ष्य यानी ईश्वर की प्राप्ति के लिए हमें स्वयं ही साधना करनी चाहिए। किसी आदमी को गांव से चिट्ठी मिली। उसमें रिश्तेदारों के यहां कुछ चीजें सौगात में भेजने की बात लिखी थी। चीजें मंगवाते समय उसने फिर एक बार उस चिट्ठी को देखना चाहा, ताकि उसमें लिखा सभी सामान ठीक-ठीक मंगाया जा सके, लेकिन वह चिट्ठी नहीं दिखाई दी। परेशान होकर उसने चिट्ठी को खोजना शुरू किया। काफी देर बाद वह चिट्ठी मिल गई। तब उस व्यक्ति को बड़ा आनंद हुआ और उसने बड़ी उत्सुकता के साथ हाथ में चिट्ठी लेकर पढ़ना शुरू किया। उसमें लिखा था- पांच सेर मिठाई, सौ संतरे, आठ धोतियां और अमुक-अमुक सामान भेजना है। यह जान लेने के बाद फिर उसे चिट्ठी की जरूरत नहीं रही। वह उसे छोड़कर उन चीजों का प्रबंध करने चल दिया। चिट्ठी की जरूरत कब तक है? जब तक उसमें लिखी वस्तुओं के विषय में न जान लिया जाए।

एक बार यह जान लेने के बाद अगला काम है वह सब प्राप्त करने की चेष्टा करना। इसी तरह शास्त्रों में केवल ईश्वर के पास पहुंचने का मार्ग बताया जाता है। इससे उनकी प्राप्ति के उपाय जरूर मालूम किए जा सकते हैं, लेकिन इसके लिए प्रयास स्वयं अपनी बुद्धि के अनुसार करना होगा। तभी लाभ होगा। असली विद्या तो वह है, जो लक्ष्य प्राप्ति में सहयोग करे। दर्शन, न्याय, व्याकरण आदि सारे शास्त्र केवल भार स्वरूप हैं। वे चित्त में भ्रम पैदा करते हैं। यदि वे ईश्वर का ज्ञान करा दें, तभी उनसे लाभ है।

कुछ लोग यह सोचते हैं कि पुस्तक न पढ़ने से ईश्वर विषयक ज्ञान नहीं हो सकता। एक बात जान लेना जरूरी है कि पढ़ने से सुनना अच्छा है। सुनने से भी अच्छा है देखना। देखना ही व्यावहारिक ज्ञान है। स्वयं पढ़ने की बजाय आचार्य के मुख से सत्य का श्रवण करने पर धारणा अधिक गहरी होती है, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन का प्रभाव सबसे अधिक होता है। काशी के बारे में पढ़ने की बजाय जो काशी जाकर आया है, उसके मुख से सुनना ज्यादा अच्छा है। सबसे अच्छा तो यही है कि स्वयं अपनी आंखों से काशी के दर्शन कर लिए जाएं। दो प्रकार के लोग आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं- एक तो वे, जो विद्या के बोझ से नहीं लदे हैं। जिनका मन दूसरों से उधार लिए हुए विचारों से नहीं भरा है। दूसरे वे, जिन्होंने सारा शास्त्र, विज्ञान आदि पढ़ने के बाद यही जाना है कि 'हम कुछ भी नहीं जानते।' कुछ लोग अपनी विद्या पर घमंड करते हैं और बेवजह की बातों पर चिंतन किया करते हैं। उदाहरण के लिए, दो मित्र किसी अमराई में घूमने गए। उनमें से एक, जिसकी सांसारिक बुद्धि प्रबल थी, अमराई में पहुंचते ही वहां कितने आम के पेड़ हैं, किस पेड़ पर कितने आम लगे हैं, समूची अमराई की कीमत कितनी होनी चाहिए आदि तमाम बातों का हिसाब करने लगा। दूसरे ने जाकर अमराई के मालिक के साथ मित्रता कर ली और एक पेड़ के नीचे बैठकर बड़े मजे से आम तोड़-तोड़कर खाने लगा। अब बताओ, इन दोनों में कौन बुद्धिमान है? यदि आम खाओगे, तो उससे पेट भरेगा। पेड़-पत्तों को गिनने और हिसाब-किताब करने से क्या लाभ? जो ज्ञानाभिमानी होते हैं, वे निरर्थक तर्क-युक्ति द्वारा सृष्टि की कारण-मीमांसा आदि में व्यस्त रहते हैं, लेकिन यथार्थ बुद्धिमान भक्तजन सृष्टिकर्ता परमेश्वर की कृपा प्राप्त कर संसार में परमानंद का उपभोग करते हैं।


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