ईश्वर को भी सृष्टि की रचना में माया का आश्रय लेना पड़ता
ईश्वर को भी सृष्टि की रचना में माया का आश्रय लेना पड़ता है। मनु के समक्ष जब भगवान राम प्रकट हुए, तो उन्होंने सीता को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की।
गुण और दोष अलग नहीं हैं। इन दोनों को अलग करके देखना अज्ञान है। जिस तरह काला-सफेद, रात्रि-दिन, स्त्री-पुरुष, धूपछांव, गीला- सूखा, क्रोध-क्षमा, संशयविश्वास, ये सभी विपरीत गुणों वाले होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं। विरोधी गुण को मिश्रित किए बिना सृजन संभव ही नहीं है। इन्हें जान लेना ज्ञान है और न जानना अज्ञान।
ईश्वर को भी सृष्टि की रचना में माया का आश्रय लेना पड़ता है। मनु के समक्ष जब भगवान राम प्रकट हुए, तो उन्होंने सीता को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की। भगवान ने कहा कि ये मेरी आदि शक्ति हैं। मैं इनके सहयोग के बिना आपकी इच्छापूर्ति नहीं कर सकूंगा। तब उन्होंने सीता का परिचय दिया, वह ‘माया’ के रूप में ही दिया :
आदि सक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोर यह माया।। ये मेरी ही माया शक्ति हैं। अवतार और लीला के विस्तार में इन्हीं की प्रमुख भूमिका रहती है। मनुष्य (जीव) और ईश्वर का अंतर यह है कि संसार में व्यवहार करते हुए भी जिसकी नित्यता, चैतन्यता और आनंद खंडित न हो, वह ईश्वर (ज्ञान स्वरूप- अखंड ज्ञानघन) है। व्यवहार में प्रत्येक कार्य में जो अनित्यता, जड़ता-अज्ञान और दुख एवं विषाद को प्राप्त हो, वह जीव और
अज्ञानी का स्वरूप है : हर्ष विषाद ज्ञान अज्ञाना। जीव धर्म अहिमिति अभिमाना।। क्योंकि ईश्वर की दृष्टि में दोष-गुण, ज्ञानअज्ञान, हर्ष-विषाद कुछ है ही नहीं। वह उन सब विरोधी मानी जाने वाली वस्तुओं का सम्यक
उपयोग करके स्वयं को अलग रखता है।
उसका कार्य में अभिनिवेश नहीं होता है : जथा अनेकन वेष धरि नृत्य करइ नट कोई। सोई सोई भाव दिखावई आपनु होई न सोई।। उसका कारण है कि गुण-दोष में गुण या दोष देखने के स्थान पर दोनों की उपयोग शक्ति का
सदुपयोग कर स्वयं को अलग रखता है। इसीलिए वह कार्य-कारण से परे है। किस पदार्थ या व्यक्ति का उपयोग कहां करना है, इस विधा को जानने वाला ज्ञानी होता है। भगवान श्रीराम ने जिस व्यक्ति में जो गुण था, उसका उपयोग कर लिया और ‘राम राज्य’ बना लिया। सभी लोगों में दोष निकालने के कारण रावण ने अपने अर्जित
ज्ञान और विद्वता का उपयोग अपने विरोध में ही कर लिया। जिसे वह ज्ञान का परिणाम समझ रहा था, वह उसका ज्ञानाभिमान था। उसने जिन-जिन में दोष देखा, उनके गुणों का उपयोग श्रीराम ने कर लिया।