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दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं भगवान भोलेनाथ

शिवमहापुराण भी 29 उप-पुराणों में से एक है। इसमें 24,000 श्लोक हैं। जिनमें शिव का संगीत के प्रति स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 03 Jan 2017 03:33 PM (IST)Updated: Wed, 22 Feb 2017 06:12 PM (IST)
दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं भगवान भोलेनाथ
दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं भगवान भोलेनाथ

पुराणों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मनाद से जब शिव प्रकट हुए तो उनके साथ 'सत', 'रज' और 'तम' ये तीनों गुण भी जन्मे थे। यही तीनों गुण शिव के 'तीन शूल' यानी 'त्रिशूल' कहलाए।

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संगीत प्रकृति के हर कण में मौजूद है। भगवान शिव को 'संगीत का जनक' माना जाता है। शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था, क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए हैं?

भगवान भोलेनाथ दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं। पहला जब वो गुस्सा होते हैं, तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं। लेकिन दूसरे तांडव नृत्य करते समय जब, वह डमरू भी बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं।

नाद और भगवान शिव का अटूट संबंध है। दरअसल नाद एक ऐसी ध्वनि है जिसे 'ऊं' कहा जाता है। पौराणिक मत है कि 'ऊं' से ही भगवान शिव का जन्म हुआ है। संगीत के सात स्वर तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके केंद्रीय स्वर नाद में ही हैं। नाद से ही 'ध्वनि' और ध्वनि से ही 'वाणी की उत्पत्ति' हुई है। शिव का डमरू 'नाद-साधना' का प्रतीक माना गया है।

भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखने के बाद अपने शिष्यों को तांडव का प्रशिक्षण दिया था। उनके शिष्यों में गंधर्व और अप्सराएं थीं। नाट्यवेद के आधार पर प्रस्तुतियां भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं।

भरत मुनि के दिए ज्ञान और प्रशिक्षण के कारण उनके नर्तक तांडव भेद अच्छी तरह जानते थे और उसी तरीके से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते थे। पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था। धीरे-धीरे ये नृत्य युगों- युगान्तरों से वर्तमान काल में भी जीवंत है। शिव का यह तांडव नटराज रूप का प्रतीक है।

नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है। नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। 'नट' और 'राज', नट का अर्थ है 'कला' और राज का अर्थ है 'राजा'। भगवान शंकर का नटराज रूप इस बात का सूचक है कि 'अज्ञानता को सिर्फ ज्ञान, संगीत और नृत्य से ही दूर किया जा सकता है।'

नाट्य शास्त्र में उल्लेखित संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान आदि के प्रवर्तक शिव ही हैं। शिवमहापुराण भी 29 उप-पुराणों में से एक है। इसमें 24,000 श्लोक हैं। जिनमें शिव का संगीत के प्रति स्नेह के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।

वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जिनती भी विद्याएं प्रचलित हैं। वह तांडव नृत्य की ही देन हैं। तांडव नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है। वहीं लास्य सौम्य है। लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं यह लास्य शैली से प्रेरित हैं। जबकि कथकली तांडव नृत्य से प्रेरित है।


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