ईश्वर के लिए
कठोपनिषद में कहा गया है कि सभी प्राणियों के भीतर रहने वाले परमात्मा एक हैं, जबकि प्राणियों का रूप अलग-अलग है।
एक समय ऋषि शौनक और ऋषि अभिप्रतारी अपने आश्रम में भोजन कर रहे थे। उसी समय किसी ब्रह्मचारी ने भिक्षा के लिए आवाज लगाई। ऋषियों ने उसे भोजन देने से इंकार करते हुए कहा कि यह समय उन्हें भोजन देने का नहीं है। यह सुनकर ब्रह्मचारी ने ऋषियों से प्रश्न किया कि आप अपना कर्म किसके लिए करते हैं? ऋषियों
ने उत्तर दिया, ‘ईश्वर के लिए’।
ब्रह्मचारी के आगे के प्रश्नों के जवाब में ऋषियों ने बताया कि वे ईश्वरीय कार्य तन से करते हैं और उसे चलाने के
लिए भोजन लेते हैं। तब ब्रह्मचारी ने उन लोगों से कहा, ‘ईश्वर के कार्यों का दायित्व कुशलता से पूर्ण हो, इसलिए आप शरीर को भोजन देते हैं। आप यह भी मानते हैं कि अंत:करण में ईश्वर का अंश है, इस नाते तन को भोजन देना ईश्वरीय उपहार को सम्मानित करने के बराबर है। मैं भी इसी तन के माध्यम से ईश्वरीय कार्य करता
हूं और मेरे अंत:करण में भी उसी परम पिता परमेश्वर का अंश है, जो आपके तन में है। फिर मेरे अंदर मौजूद ईश्वर को आप भोजन क्यों नहीं देना चाहते हैं?’ यह सुनकर ऋषिगण लज्जित हो गए और उन्होंने तुरंत भोजन की व्यवस्था कराई। कठोपनिषद में कहा गया है कि सभी प्राणियों के भीतर रहने वाले परमात्मा एक हैं, जबकि
प्राणियों का रूप अलग-अलग है। इसलिए कुछ व्यक्तियों के प्रति प्रेम, तो कुछ के प्रति घृणा का भाव रखना उचित नहीं है। यदि हम यह मानते हैं कि घट-घट में ईश्वर रमता है, तो सभी प्राणियों को हम ईश्वर का ही रूप क्यों नहीं मान सकते?