सभी प्रकार की परेशानियों की वजह है मोह
क्या कारण है जो तकलीफ, पीड़ा व घुटन होने के बावजूद हम अपना लगाव छोडऩा नहीं चाहते हैं?
- राजयोगी ब्रह्माकुमार निकुंजजी
हमने मोह के मायाजाल में स्वयं तो फंसे ही हैं, अन्य को भी इस दलदल में अपने साथ घसीट लिया है। अब इससे बहार कैसे निकला जाए? आत्मानुभूति, जी हां! जब तक हम स्वयं इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि मोह का यह मायाजाल हमारी ही अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है, तब तक हम इससे बाहर निकल नहीं पाएंगे।
यदि हम अपना उद्धार चाहते हैं, तो हमें सभी प्रकार की इच्छा-कामनाओं का त्याग कर एक परमात्मा की तरह सभी आत्माओं से निस्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा। श्रीमद्भगवद्गीता के दुसरे अध्याय में श्री हरि अर्जुन से कहते हैं कि जिस काल में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को पूर्णत: पार कर लेगी,लेशमात्र भी मोह तेरे भीतर नहीं रहेगा। उस समय जो सुनने योग्य है, उसे तू सुन सकेगा और सुने हुए के अनुसार वैराग्य को प्राप्त हो सकेगा अर्थात उसे आचरण में ढाल सकेगा।
इसी प्रकार से गौतम बुद्ध ने भी कहा है कि मोह-लगाव सभी प्रकार के दुखों का स्रोत है। मोह के विषय में बताई गई उक्त बातों से इतनातो स्पष्ट होता है कि मोह या लगाव कोई अच्छी चीज नहीं है, बावजूद इसके हम सभी मोह के इस जाल में बड़ी आसानी से फंस भी जाते हैं और यह जानते हुए भी उसमें से निकलना नहीं चाहते हैं, भला ऐसा क्यों? क्या कारण है जो तकलीफ, पीड़ा व घुटन होने के बावजूद हम अपना लगाव छोडऩा नहीं चाहते हैं?
सरल भाषा में यदि समझाया जाए तो मोह एक प्रकार से माया का ही शाहीस्वरूप है। जी हां! यह एक सर्वसिद्ध हकीकत है कि संसार में जिसे भी हम अपना मानने लगते हैं, उससे हमें मोह हो जाता है और फिर हम उससे तनिक भी दूर नहीं रह पाते हैं।
मोह किसी से भी हो सकता है, फिर चाहे वो कोई व्यक्ति हो, वस्तु हो या वैभव, परन्तु अक्सर उसका दीर्घकालिक परिणाम दु:ख व पीड़ा के सिवाय और कुछ भी नहीं निकलता, क्योंकि मोह के वशीभूत लोग अति भावनात्मक बोझके तले दबे रहते हैं।
अमूमन ज्यादातर लोग प्रेम और मोह को एक समान ही मानते हैं, जबकि हकीकत यह हैं कि उनमें जमीन आसमान जितना अन्तर है। प्रेम गंगा की भांति वह पवित्र जल है, जिसे जहां छिडक़ा जाये वहीं पवित्रता पैदा करेगा, जबकि किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति इतनी अधिक आसक्ति कि उन्हें पाने के लिए कुछ भी करने पर उतारूहो जाना, वह मोह है।
मोह सदैव यही चाहता है कि प्रिय वस्तु का साथ छूटने न पाये, चाहे इसके लिए अपना अथवा प्रिय पात्र का कितना ही अहित क्यों न होता हो। इसीलिए ही मोटी बुद्धि वाले लोगों को यह मोह भी प्रेम लगता है और इसी सह से उस आसक्ति का उल्लेख भी किया जाता है।
वास्तव में हमें यह समझना चाहिए की प्रेम का आरंभ किसी व्यक्ति से हो तो सकता है पर उस पर सीमित नहीं रह सकता क्योंकि यदि वह सीमित रह जाता और कुछ पाने की कामना करता है तो फिर वह मोह बन जाता है।
सच्चा प्रेम वही होता है जिसमें कुछ पाने की नहीं अपितु देने की भावना निहित रहती है जबकि मोह में पड़ा हुई व्यक्ति आदान-प्रदान की उपेक्षा और उपभोग की कामना करता है। प्रेम वस्तुओं से जुडक़र सदुपयोग की, व्यक्तियों से जुडक़र उनके कल्याण की और समस्त विश्व से जुडक़र परमार्थ की बात सोचता है, जबकि मोह में फंसे हुए लोगों का, व्यक्ति, पदार्थ और संसार से किसी न किसी प्रकार का स्वार्थ जुड़ा रहता है।
मसलन, जिसके प्रति उनका मोह होताहै, वे उसे अपनी इच्छानुसार चलाने की जिद्द रखते हैं और इसमें व्यवधान होने पर फिर उनके भीतर झुंझलाहट और असंतोष का उद्वेग उमड़ता है, जबकि सच्चा प्रेम इस तरह की कोई भी तुच्छ कामना नहीं करता और केवल अपने प्रेमी के हित चिन्त और उसके प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति में ही संतोष अनुभव करता है।
मोह या लगाव कोई अच्छी चीजनहीं है, बावजूद इसके हमसभी मोह के इस जाल में बड़ी आसानी से फंस भी जाते हैं और यह जानते हुए भी उसमें से निकलना नहीं चाहते हैं, भला ऐसा क्यों? क्या कारण है जो तकलीफ, पीड़ा व घुटन होने के बावजूद हम अपना लगाव छोडऩा नहीं चाहते हैं?
सभी आत्माओं से प्रेम करना हमें सीखना होगा: हमने मोह के मायाजाल में स्वयं तो फंसे ही हैं, अन्य को भी इस दलदल में अपने साथ घसीट लिया है। अब इससे बहार कैसे निकला जाए?
आत्मानुभूति, जी हां! जबतक हम स्वयं इस बात को स्वीकार नहीं करेंगे कि मोह का यह मायाजाल हमारी ही अपनी मानसिक रुग्णता का परिणाम है, तब तक हम इससे बाहर निकल नहीं पाएंगे।
यदि हम अपना उद्धार चाहते हैं, तो हमें सभी प्रकार की इच्छा-कामनाओं का त्याग कर एक परमात्मा की तरह सभी आत्माओं से निस्वार्थ प्रेम करना सीखना होगा।