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मनुष्य पांच मिनट भी नि:स्वार्थ भाव से काम करे तो वह एक महापुरुष बन सकता है

ऐसे व्यक्ति संयम का रहस्य जान कर अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं। कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 02 Dec 2016 11:38 AM (IST)Updated: Fri, 02 Dec 2016 11:44 AM (IST)
मनुष्य पांच मिनट भी नि:स्वार्थ भाव से काम करे तो वह एक महापुरुष बन सकता है

उपार्जन करने से ही व्यक्ति को किसी भी वस्तु की प्राप्ति होती है। संभव है कि हम इस बात को न मानें, लेकिन आगे चलकर हमें इसका दृढ़ विश्वास हो जाता है। एक मनुष्य चाहे तो जीवन भर धनी होने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना बहा सकता है। वह कई मनुष्यों को धोखा देने की कोशिश भी कर सकता है। लेकिन अंत में वह यही पाता है कि वह संपत्तिशाली होने का अधिकारी नहीं है। तब उसके लिए जीवन दुखमय और दूभर हो उठता है।

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हम अपने भौतिक सुखों के लिए भिन्न-भिन्न चीजों को भले ही इकट्ठा करते जाएं, लेकिन वास्तव में जिसका उपार्जन हम अपने कर्मों द्वारा करते हैं, वही हमारा होता है। दूसरी ओर, अपनी वर्तमान अवस्था के लिए व्यक्ति खुद जिम्मेदार होता है। व्यक्ति जो कुछ होना चाहता है, उसकी शक्ति उसके अंदर होती है। यदि हमारी वर्तमान अवस्था हमारे ही पूर्वकर्मों का फल है, तो यह निश्चित है कि जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते हैं, वह हमारे वर्तमान कार्यों द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता है। अतएव हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि किस प्रकार के कर्म किए जाएं। संसार में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी प्रकार से तो काम करता ही रहता है। परंतु यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी शक्तियों का कभी-कभार निरर्थक क्षय भी करते हैं।

गीता के अनुसार, ‘कर्मयोग का अर्थ है- कुशलता से अर्थात वैज्ञानिक प्रणाली से कर्म करना।’ समस्त कर्मों का उद्देश्य है मन के भीतर पहले से ही स्थित शक्ति को प्रकट कर देना। आत्मा को जाग्रत कर देना। प्रत्येक मनुष्य के भीतर पूर्ण शक्ति और पूर्ण ज्ञान विद्यमान है। भिन्न-भिन्न कर्म इन महान शक्तियों को जाग्रत करने तथा बाहर प्रकट कर देने में साधन मात्र बनते हैं। अपनी-अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य नाना प्रकार के कार्य करता है। कुछ लोग यश चाहते हैं, तो कुछ पैसा चाहते हैं। कुछ लोग अधिकार प्राप्त करना चाहते हैं, तो कुछ अपने बाद अपना नाम छोड़ जाने के लिए यत्न करते रहते हैं। कुछ लोग प्रायश्चित करने के लिए कर्म करते हैं।

अर्थात जीवन भर अनेक प्रकार के बुरे कर्म कर चुकने के बाद एक मंदिर बनवा देते हैं। अथवा पुरोहितों को कुछ धन दे देते हैें। प्रत्येक देश में कुछ ऐसे भी स्त्री-पुरुष होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते हैं। वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उनके कर्म से दूसरों की भलाई होती है। कुछ लोग उच्चतर उद्देश्य लेकर गरीबों की भलाई करते हैं तथा मानव जाति की सहायता करते हैं। वे लोगों की भलाई में विश्वास करते हैं और उनके प्रति प्रेम भी दर्शाते हंै। अक्सर नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य शीघ्र फलित नहीं होता है। यदि कोई इंसान नि:स्वार्थ भाव से काम करे, तो क्या उसे फलप्राप्ति नहीं हो सकती है?

असल में तभी तो फल प्राप्ति होती है। सच पूछा जाए, तो नि:स्वार्थता अधिक फलदायी होती है, पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धैर्य नहीं होता है। प्रेम, सत्य तथा नि:स्वार्थता सिर्फ आलंकारिक वर्णन मात्र नहीं हैं। वे तो हमारे सच्चे आदर्श हैं। वे शक्ति की महान अभिव्यक्ति हैं। यदि मनुष्य पांच मिनट भी नि:स्वार्थ भाव से काम कर सके, तो वह एक महापुरुष बन सकता है। यह शक्ति की महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसके लिए प्रबल संयम

की जरूरत पड़ती है। सभी बर्हिमुखी कर्मों की अपेक्षा इस आत्मसंयम में बहुत अधिक शक्ति खर्च होती है। मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्ण उद्देश्य की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है। यदि व्यक्ति संयमित होना सीख ले, तो इससे शक्ति की वृद्धि हो सकती है। इस आत्मसंयम से एक महान इच्छाशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है। इससे एक ऐसे चरित्र का निर्माण हो सकता है, जो संपूर्ण जगत को

अपने ज्ञान से रोशन कर सकता है। जिस प्रकार कुछ पशु अपने से दो-चार कदम आगे कुछ नहीं देख सकते,

इसी प्रकार हममें से ज्यादातर लोग भविष्य के बारे में नितांत अदूरदर्शी होते हैं। हम सभी में दूरदर्शिता के लिए

धैर्य नहीं रहता और इसीलिए हम नकारात्मक कार्य करने लगते हैं। यह हमारी कमजोरी है। शक्तिहीनता है।

अत्यंत सामान्य कर्मों को भी हमें कभी घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य को उच्चतर ध्येय की ओर बढ़ने तथा उन्हें समझने का प्रबल यत्न करते रहना चाहिए। हमें कर्म करने का अधिकार है। कर्म फल पर हमारा कोई अधिकार नहीं होता है। यदि आप किसी मनुष्य की सहायता करना चाहते हैं, तो इस बात की कभी चिंता मत करें कि उस आदमी का व्यवहार आपके प्रति कैसा रहता है। यह भी मत सोचें कि उसका फल क्या होगा? हमें सदैव कर्म करते रहना चाहिए। आदर्श पुरुष तो वे हैं, जो परम शांति व निस्तब्धता के बीच भी कर्म करते रहने तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल जैसी शंति का अनुभव करते हैं। ऐसे व्यक्ति संयम का रहस्य जान कर अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके होते हैं। कोई भी व्यक्ति यदि पूर्ण रूप से नि:स्वार्थ होकर कर्म करेे।


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