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बौद्ध धर्म के उद्धारक धम्मपाल

श्रीलंकाई मूल के अनागारिक धम्मपाल को बौद्ध धर्म का उद्धारक माना जाता है। उन्हें बौद्ध धर्म के प्रति अगाढ़ आस्था व धर्म के प्रचार-प्रसार आदि के लिए किए कृत्यों के कारण कई बौद्ध ग्रंथों में धर्मदूत की संज्ञा दी गई है। उन्होंने न सिर्फ बौद्ध धर्म का कई देशों में प्रचार-प्रसार किया। बल्कि बौद्ध धर्म को जीवंत रखने के लिए मई 1

By Edited By: Published: Wed, 17 Sep 2014 03:01 PM (IST)Updated: Wed, 17 Sep 2014 03:02 PM (IST)
बौद्ध धर्म के उद्धारक धम्मपाल

बोधगया। श्रीलंकाई मूल के अनागारिक धम्मपाल को बौद्ध धर्म का उद्धारक माना जाता है। उन्हें बौद्ध धर्म के प्रति अगाढ़ आस्था व धर्म के प्रचार-प्रसार आदि के लिए किए कृत्यों के कारण कई बौद्ध ग्रंथों में धर्मदूत की संज्ञा दी गई है।

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उन्होंने न सिर्फ बौद्ध धर्म का कई देशों में प्रचार-प्रसार किया। बल्कि बौद्ध धर्म को जीवंत रखने के लिए मई 1891 में भारत, श्रीलंका व अन्य देशों में महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की। और महाबोधि मंदिर को आदि शंकराचार्य मठ के कब्जे से मुक्त कराने में अहम योगदान दिया। देश ही नहीं अपितु विदेशों में स्थित महाबोधि सोसाइटी आफ इंडिया का स्थापना दिवस अनागारिक धम्मपाल की जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इस वर्ष उनका 150 वीं जयंती सोसाइटी के सभी शाखाओं में धूमधाम से मनाई जा रही है।

अनागारिक का शाब्दिक अर्थ 'बिना घर का' (होम लेस) बताया जाता है। इनका बचपन का नाम डान डेविड हेवाविर्तना था। उनका शैक्षणिक जीवन ईसाई विद्यालय से प्रारंभ हुआ। अध्ययन के क्त्रम में भारत स्थित बौद्ध तीर्थस्थलों की ओर ध्यान तब आकृष्ट हुआ। जब उन्होंने 'लाइट आफ एशिया' के लेखक सर एडविन अर्नाल्ड के 1885 में छपे एक लेख में महाबोधि मंदिर की दयनीय दशा को पढ़ा। उस लेख में मंदिर की दशा और इसे नष्ट होने से बचाने का आह्वान भी किया गया था। जनवरी 1891 में अनागारिक धम्मपाल भारत भ्रमण के दौरान बोधगया आए। तब उन्होंने अक्टूबर माह में अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन का अयोजन बोधगया में कराया। और महाबोधि मंदिर की मठ के कब्जे से मुक्ति के लिए बिहार प्रांतीय कांग्रेस में मामले को रखा और अधीनस्थ न्यायालय से लेकर प्रीवी काउंसिल तक कानूनी लड़ाई भी लड़ी। उसके बाद इसका सर्वमान्य हल के लिए बिहार हिन्दू सभा की बैठक बुलाई गई।

इस मामले के निपटारे के लिए डा. राजेन्द्र प्रसाद के नेतृत्व में एक कमेटी गठित की गई। कमेटी के सदस्य धम्मपाल भी बनाए गए। इसी बीच 1933 में उनका निधन हो गया। ता उम्र सफेद वस्त्र धारण करने वाले अनागारिक धम्मपाल ढाई वर्ष के लिए बौद्ध भिक्षुओं का चीवर धारण किया। फरवरी 1933 में उन्होंने बौद्ध धर्म की उपसंदा ग्रहण की और अप्रैल में उनका सारनाथ में देहांत हो गया। उन्होंने कहा था-'यदि मुडो 25 जन्म भी लेना पड़े तो मैं भारत के महाबोधि मंदिर और बौद्ध धर्म का पुर्न उद्धार करूंगा और बुद्ध वचनों का प्रचार-प्रसार करूंगा।' लेकिन महाबोधि मंदिर की मुक्ति के लिए किया गया उनका प्रयास जीवंत रहा। और अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण डा. राजेन्द्र प्रसाद व पंडित जवाहर लाल नेहरू ने पहल किया। तब महाबोधि मंदिर को मठ के कब्जे से मुक्ति मिली थी।


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