यथार्थ गीता संपूर्ण शास्त्र है श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्य मात्र का धर्मशास्त्र है
निर्झरिणी मनुष्य का मूल्य उसके काम या उसके कथन से नहीं, बल्कि वह जीवन में स्वयं क्या बन रहा है, उसे देखकर आंकना चाहिए.
द्वैत दर्शन के प्रणेता माधवाचार्य माधवाचार्य भारत में भक्ति आंदोलन के महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे आनंदतीर्थ और पूर्णप्रज्ञ के के नाम से प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे, जिसे द्वैतवाद भी कहा जाता है। वेदांत के तीन प्रमुख दर्शनों में से यह एक है। वे कई बार समाज में प्रचलित रीतियों के खिलाफ गए। इन्होंने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य भी लिखा है।
गीता और उपनिषदों पर टीकाएं, श्रीमद्भागवत पुराण पर टीका तथा महाभारत तात्पर्य निर्णय टीका आदि इनके अन्य ग्रंथ हैं। माधवाचार्य जी का जन्म लगभग 1238 में दक्षिण कन्नड़ जिले के उड्डप्पी शिवल्ली नमक स्थान के पास पाजक गांव में हुआ। बाल्यावस्था में ही वे वेद और वेदांगों के प्रख्यात ज्ञाता हुए। सत्य का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने संन्यास लिया। संन्यास के बाद इनका अधिकांश समय पूजा, ध्यान, अध्ययन व शास्त्रचर्चा में बीतता था। माधवाचार्य के अनुसार, भगवान विष्णु परमात्मा हैं। आचार्य रामानुज जी की तरह उन्होंने भगवान श्रीविष्णु जी के शंख, चक्र, पद्म के चिह्नों से अपने अंगों को अलंकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इनके अनेक अनुयायी बने। माधवाचार्य जी ने उड्डप्पी में भगवान श्रीकृष्ण के मंदिर की स्थापना की, जो इनके सारे अनुयायियों के लिए तीर्थ स्थान बन गया। यथार्थ गीता संपूर्ण शास्त्र है गीता श्रीमद्भगवद्गीता मनुष्य मात्र का धर्मशास्त्र है। 'एकं शास्त्रं देवकीपुत्र गीतं' - शास्त्र एक ही है, जिसका गायन देवकीपुत्र भगवान श्रीकृष्ण ने किया। उस गायन में क्या सत्य बताया? एक परमात्मा। एक ही मंत्र है, किस नाम से उन्हें पुकारें 'ओम' और वही तत्व है, वही परम सत्य है। दुर्लभ मानव-तन मिला है, तो आप सबका एक ही कर्तव्य है, 'कर्माप्येको तस्य देवस्य सेवा' - उन परमदेव परमात्मा की सेवा करें, उनका सेवन करें। चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय उनका नाम याद आए, प्रभु का स्मरण बना रहे। प्रात: सायं आधा घंटा समय इस स्मरण के लिए अवश्य दें। पांच मिनट से ही आरंभ करें, किंतु समय अवश्य दें।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी चार प्रकार के भक्त मुझे भजते हैं। चारों उदार हैं, क्योंकि जिसे भजना चाहिए, उसे भजते हैं और जिससे मांगना चाहिए, उससे मांगते हैं। वस्तु तो मिलती ही है और ईश्वर से जुड़े रहने के कारण इस पथ में आरंभ का नाश भी नहीं है। वस्तु का उपभोग करते हुए क्रमश: आगे बढ़ते जाएंगे और एक दिन प्रभु का दर्शन, स्पर्श और उनमें स्थिति प्राप्त कर लेंगे। इसलिए संपूर्ण शास्त्र गीता ही है। आप अध्ययन अवश्य करें। परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद कृत यथार्थ गीता भाष्य से साभार
निर्झरिणी मनुष्य का मूल्य उसके काम या उसके कथन से नहीं, बल्कि वह जीवन में स्वयं क्या बन रहा है, उसे देखकर आंकना चाहिए.