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मान्यता है कि कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ होली खेलने यहां पहुंचे हैं

आज भी यहां होली के मौके पर प्रतिवर्ष अखंड विष्णु नाम महायज्ञ और ब्रज उत्सव का आयोजन किया जाता है। इसकी तैयारियां कई दिनों पहले ही प्रारंभ हो जाती हैं।

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 11 Mar 2017 12:01 PM (IST)Updated: Sat, 11 Mar 2017 12:10 PM (IST)
मान्यता है कि कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ होली खेलने यहां पहुंचे हैं
मान्यता है कि कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ होली खेलने यहां पहुंचे हैं

  जनजातीय बाहुल्य जशपुर जिले में रंगों का त्योहार होली को मनाने की अपनी अलग -अलग परंपरा है। पत्थलगांव के समीप स्थित ग्राम गाला में ब्रज के तर्ज पर मनाए जाने वाली होली जशपुर में प्रसिद्व है। यहां की होली में दही-हांडी की परंपरा भी करीब 66 वर्षों से किया जा रहा है। गाला के होली उत्सव का प्रारंभ कलश यात्रा से होती है। कृष्ण के बाल लीला को दर्शाती हुई झांकी के साथ निकलने वाली शोभायात्रा के नगर भ्रमण कर वापस मंडप में पहुंचने के साथ ही यहां की मिट्टी और अखंड ज्योति के काजल से तिलक होली की शुरुआत होती है। हरे राम हरे कृष्ण की गूंज के बीच चारों ओर गुलाल उड़ता दिखाई देने लगता है। गांव के कुछ ग्रामीण कृष्ण के बाल-सखाओं का वेश धारणकर इसमें शामिल होते हैं।

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 माना जाता है कि कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ होली खेलने यहां पहुंचे हैं। लोग गुलाल लगाकर एक दूसरे को होली की शुभकामनाएं देते हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और बढ़ती व्यावसायिक स्पर्धा के बीच होली जैसे पर्व जहां अपना महत्व खोते जा रहे हैं। ग्राम गाला में होली आज भी अपनी संस्कृति और परंपराओं से जुड़ने का पर्याय है।

पैंसठ वर्ष पूर्व स्व.जागेश्वर खुंटिया व गांव के अन्य लोगों ने ब्रज की होली के प्रतीकात्मक स्वरुप में इसकी शुरुआत की थी। यादव समाज के लोगों में ब्रज की होली का विशेष महत्व है और लोग इसमें शामिल होकर खुद को धन्य समझते हैं। परंतु दूरदराज के क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए इसमें शामिल हो पाना संभव नहीं हो पाता। वहीं आधुनिकता के प्रभाव में बिखरती संस्कृति को बचाए रखने के उद्देश्य से ग्राम गाला के लोगों द्वारा ब्रज की होली के प्रतीक स्वरुप में गांव में इस परंपरा को प्रारंभ किया गया था। समाज के चंद लोगों द्वारा शुरू की गई इस परंपरा ने लोगों को जोड़ा और धीरे-धीरे पूरा गांव इसमें शामिल होने लगा। पीढ़ियां गुजरने के बाद भी यह परंपरा आज भी अपने मूल स्वरुप में कायम है।

आज भी यहां होली के मौके पर प्रतिवर्ष अखंड विष्णु नाम महायज्ञ और ब्रज उत्सव का आयोजन किया जाता है। इसकी तैयारियां कई दिनों पहले ही प्रारंभ हो जाती हैं। यज्ञ के लिए यहां के राधाकृष्ण मंदिर परिसर में पारंपरिक रीति रिवाजों से मंडप का निर्माण किया जाता है। हवन-पूजन से लेकर नाम यज्ञ की पूरी प्रक्रिया यहां संपादित की जाती है। होली के एक दिन पूर्व प्रातः 7 बजे अखंड नाम जप की शुरुआत होती है जो दूसरे दिन प्रातः 7 बजे तक निरंतर जारी रहता है। इसके लिए अलग-अलग क्षेत्रों से कीर्तन मंडलियों को भी यहां बुलाया जाता है। तीसने दिन पूर्णाहुति के साथ इसका समापन होता है। युवा व बुजुर्गों समेत गांव के सभी वर्गों के लोग पूरे उत्साह से इसमें शामिल होते हैं। गाला की यह परंपरा क्षेत्र के लिए मिसाल बन गई है। कलश यात्रा से आयोजन शुरू होली के दो दिन पहले कलश यात्रा से आयोजन की शुरुआत होती है। ग्रामीणों ने बताया कि इसमें मन व तन की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा जाता है। सबसे पहले छह विवाहित जोड़ों का चयन किया जाता है जो पूजा की जिम्मेदारी उठाते हैं। पूरे दिन के उपवास के बाद चयनित जोड़ों की अगुवाई में शाम को करीब चार बजे मंडप से कलश यात्रा प्रारंभ होती है। भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को सुसज्जित कर उसकी झांकी तैयार की जाती है। पवित्र जोड़ों द्वारा पूजा के पश्चात्‌ पवित्र जल उठाकर कलशों को मंडप तक पहुंचाया जाता है। इसी दौरान विशेष रूप से तैयार की गई दधी हांडी में दही भरकर उसे मंडप स्थल पर ही लटका दिया जाता है जिसे पूजा की समाप्ति पर श्रद्धालुओं को वितरित किया जाता है। हर घर में प्रभु की पूजा ग्रामीणों ने बताया कि अखंड नाम जप की समाप्ति के बाद प्रभु की प्रतिमा को नगर भ्रमण कराया जाता है। माना जाता है कि अखंड नाम जप के बाद प्रभु का अवतरण होता है और चैतन्य प्रभु के प्रतीकस्वरुप झांकी में सजाकर भगवान की प्रतिमा को घर-घर ले जाया जाता है जहां दूध व दही से भगवान की पूजा की जाती है। इस यात्रा में गांव भर के लोग शामिल होते हैं। भगवान की प्रतिमा के साथ आने वाले अतिथियों का भी घर-घर में स्वागत होता है। हल्दी और पानी से उनके पैरों को धोया जाता है। माना जाता है कि अतिथियों के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के सखा उनके घर पहुंचे हैं। हर घर में भगवान के पूजन के पश्चात्‌ ग्रामीण मिलकर होली खेलते हैं। ब्रज उत्सव का आयोजन नगर भ्रमण के पश्चात्‌ झांकी पुनः यज्ञ मंडप पहुंचती है जहां ब्रज उत्सव का आयोजन किया जाता है। प्रभु के पुनः यज्ञ मंडप में पहुंचने पर लोग हर्षित होकर खुशियां मनाते हैं। पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुनों पर प्रभु संकीर्तन के साथ ही लोग होली की मस्ती में डूब जाते हैं। मंडप की मिट्टी और अखंड ज्योति के काजल से तिलक इसकी शुरुआत होती है। हरे राम हरे कृष्ण की गूंज के बीच चारों ओर गुलाल उड़ता दिखाई देने लगता है। गांव के कुछ ग्रामीण कृष्ण के बाल-सखाओं का वेश धारण कर इसमें शामिल होते हैं।

माना जाता है कि कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ होली खेलने यहां पहुंचे हैं। लोग गुलाल लगाकर एक दूसरे को होली की शुभकामनाएं देते हैं। अंत में दधी भंजन की बारी आती है। ग्रामीणों ने बताया कि बाल्यकाल में प्रभु श्रीकृष्ण मटकी फोटकर उसमें रखा माखन व दही अपने बालसखाओं के बीच बांट देते थे। दधी भंजन की प्रक्रिया उसी घटना का प्रतीक मानी जाती है। इसमें पवित्र दही हांडी को फोड़कर इसे प्रसाद के रुप में उपस्थित लोगों के बीच बांटा जाता है। इसे पाने के लिए लोगों में होड़ सी लग जाती है।


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