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आराध्य की नगरी में ही उपेक्षित हैं तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास ने आराध्य के लिए जीवन समर्पित करने में भले ही कोई कसर न छोड़ी हो पर आराध्य की नगरी में उनकी अवहेलना हो रही है। यह अवहेलना नयाघाट स्थित तुलसी उद्यान में बयां होती है। उद्यान के केंद्र में स्थापित मंडप के नीचे तो बाबा की प्रतिमा सही-सलामत

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 31 Jan 2015 10:33 AM (IST)Updated: Sat, 31 Jan 2015 10:39 AM (IST)
आराध्य की नगरी में ही उपेक्षित हैं तुलसीदास

अयोध्या। गोस्वामी तुलसीदास ने आराध्य के लिए जीवन समर्पित करने में भले ही कोई कसर न छोड़ी हो पर आराध्य की नगरी में उनकी अवहेलना हो रही है। यह अवहेलना नयाघाट स्थित तुलसी उद्यान में बयां होती है। उद्यान के केंद्र में स्थापित मंडप के नीचे तो बाबा की प्रतिमा सही-सलामत है पर मंडप के पृष्ठ में एक और प्रतिमा अपनी भव्यता और जीवंतता के बावजूद कवि कुल भूषण की उपेक्षा अभिव्यक्त करती है।

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कोई 12 फीट ऊंची आदमकद यह प्रतिमा मानसकार के तप:पूत, यशस्वी और उपलब्धिपरक जीवन को सहज ङ्क्षबबित करती है। इस जीवंत प्रतिमा को मंडप से बाहर खुले आकाश के नीचे बगैर किसी प्रयोजन के देखना अचानक हैरत में डालता है पर प्रतिमा को ध्यान से देखने और दिमाग पर जोर डालने से इसके पीछे की विडंबना उजागर होती है। सधी भव्यता के अनुरूप प्रतिमा का दाहिना हाथ अंगूठे में माला के साथ आशीर्वाद की अभय मुद्रा में है तो जानु के नीचे तक पहुंचती बाईं भुजा सहज स्थिति में है। निगाह इसी भुजा की हथेली की ओर जाते ही दिल टूट जाता है। बाईं हथेली का अग्र भाग प्रतिमा से नदारद मिलता है।

ब्रिटेन की साम्राज्ञी विक्टोरिया के नाम से स्थापित इस उद्यान को तुलसी का नाम देने के साथ मुख्य मंडप में जो प्रतिमा स्थापित हुई, वह बाबा की यही आदमकद प्रतिमा थी। वह 1963 की 28 दिसंबर की तारीख थी, जब प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल विश्वनाथदास ने इस प्रतिमा का उद्घाटन किया। तुलसी के अनुरागियों के लिए यह अत्यंत उत्साह का मौका था। मुख्य मार्ग पर रामनगरी के ह्रदय क्षेत्र में तुलसी के नाम का प्रशस्त और आकर्षक उद्यान, संगमरमर के शानदार मंडप में बाबा की प्रतिमा। वह भी उनके विशद वैदुष्य, सम्यक साधना और शुभता-सौमनस्यता से ओत-प्रोत छवि से न्याय करने वाली। भगवान राम के साथ तुलसी के भी अनन्य अनुरागी महंत गिरीशपति त्रिपाठी के अनुसार तुलसी के किरदार को बयां करने में इस प्रतिमा के कद की शायद ही कोई प्रतिमा हो। जिन समाजसेवी रानी शर्मा के सौजन्य से इस प्रतिमा का निर्माण कराया गया था, उनका कहना है कि कोई प्रतिमा की हथेली पारस पत्थर की मानकर लोलुप हुआ, तो यह भी कहा गया कि दाढ़ी, मूंछ और केशविहीन प्रतिमा में बाबा तेजोमय ब्रह्मचारी तो लगते हैं पर रामानंदीय विरक्त परंपरा के प्रतिनिधि साधु नहीं नजर आते। स्थापना के समय से ही सवालों के ऐसे निशाने पर आई प्रतिमा कुछ ही वर्षों तक सलामत रह सकी और आखिर वह स्याह दिन भी आ गया, जब प्रतिमा का हाथ नदारद मिला। इस अपराध को अंजाम देने वालों के खिलाफ एफआईआर हुई पर पुलिस मामले का खुलासा नहीं कर सकी। इसके बाद भी दशकों तक प्रतिमा मंडप के नीचे स्थापित रही पर दो दशक पूर्व खंडित प्रतिमा को हटाकर बाबा की दाढ़ी-मूंछ वाली अन्य प्रतिमा स्थापित कर दी गई और इस प्रतिमा को मंडप से बाहर कर अपने हाल पर छोड़ दिया गया। आस्था और कला की नजीर के रूप में हो सम्मानपूर्ण स्थापना-

सरयू के साथ तुलसी उद्यान के नियमित दर्शनार्थियों में से एक समाजसेवी कौस्तुभ आचारी का सुझाव है कि विशेषज्ञों की सहायता से बाबा की आदमकद प्रतिमा में खंडित हथेली फिर से संयोजित कराई जाय और उसे आस्था के साथ कला की नजीर के रूप में पूरे सम्मान के साथ स्थापित कराया जाय। तुलसी उद्यान के ही परिसर में मुख्य मंडप से कुछ फासले पर एक बाबा की एक और प्रतिमा स्थापित है। इसे आर्ट स्कूल आफ जयपुर की ओर से सन 1982 में तुलसी उद्यान को समर्पित किया गया था।


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