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गीता के अनुसार, सत्य सनातन केवल आत्मा है

यज्ञ एक ऐसी विधा है, जो सनातन ब्रह्म में प्रवेश और स्थिति दिलाता है। ये यज्ञ जिस उपाय से संपन्न होते हैं,उसका नाम है कर्म।

By Preeti jhaEdited By: Published: Fri, 24 Mar 2017 01:17 PM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 01:21 PM (IST)
गीता के अनुसार, सत्य सनातन केवल आत्मा है
गीता के अनुसार, सत्य सनातन केवल आत्मा है

 गीता के अनुसार, सत्य सनातन केवल आत्मा है। उसे विदित करने की विधि योग-विधि यज्ञ है। चौदह प्रस्तरों में गीता में यज्ञ समझाया गया है। जैसे-यज्ञस्वरूप महापुरुष की शरण, उसके स्वरूप का ध्यान, इंद्रियों का संयम, ओम का जप, श्वास-प्रश्वास का यजन, प्राणायाम इत्यादि। इस यज्ञ का परिणाम है ज्ञानामृत अर्थात अमृत का ज्ञान, अजर-अमर शाश्वत तत्व परमात्मा का ज्ञान और उस ज्ञानामृत का पान करने वाला योगी

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सनातन ब्रह्म में स्थित हो जाता है।
यज्ञ एक ऐसी  विधा है, जो सनातन ब्रह्म में प्रवेश और स्थिति दिलाता है। ये यज्ञ जिस उपाय से संपन्न होते हैं,
उसका नाम है कर्म। अब हल जोतने, सर्विस करने जैसी क्रिया-कलापों के परिणाम में परमात्मा मिलते हों तो करें, किंतु ऐसा होता नहीं। यह कर्म शांत एकांत में चिंतन द्वारा सचेतावस्था में करने से ही होता है। सारांशत: सत्य, नित्य, सनातन है आत्मा। उसे विदित करने की योग-विधि यज्ञ है। इस यज्ञ को चरितार्थ करना कर्म है। कर्म की
परिपक्व अवस्था में मृत्यु से परे अमृत-तत्व का ज्ञान और स्थिति है। इस कर्म को करने की दृष्टियां दो हैं-ज्ञानमार्ग और निष्काम कर्मयोग। ज्ञानमार्ग का यह अभिप्राय नहीं है कि हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं और कहते रहें कि मैं आत्मा हूं। ब्रह्म हूं। पूर्ण हूं। मैं शरीर नहीं हूं। ज्ञानमार्ग में भी युद्ध करना है। विजातीय प्रवृत्तियों से पार पाना है। हानि-लाभ का निर्णय स्वयं लेकर जानकारी रखते हुए कर्म में प्रवृत्त होना ज्ञानयोग है। इसके
दो परिणाम हैं। हारने पर देवत्व और जीतने पर महामहिम स्थिति। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।। (गीता 2 /37)
इसी को अब निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, जिससे तू कर्म-बंधन का भली प्रकार नाश कर सकेगा। भगवान ने निष्काम कर्म की पहली विशेषता बताई कि यह कर्मों के बंधन, जो जन्म- मृत्यु का कारण है, का अंत कर देता है। कर्म की दूसरी विशेषता बताते हुए भगवान ने धर्म शब्द का प्रयोग किया- अर्जुन, इस निष्काम कर्मयोग
में आरंभ का नाश नहीं है। प्रकृति केवल आवरण डालती है। वे भी आपके ही कभी के संस्कार हैं, वही आवरण बन जाते हैं। कुछेक जन्मों के अनंतर आप वहां होंगे, जिसका नाम परमगति है, परमधाम है।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंदजी कृत
श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य यथार्थ गीता से साभार 

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