मनुष्य के चित्त का एकाग्र हो जाना ही समाधि है
श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य का चित्त इतना अधिक चंचल स्वभावी है कि यह एक क्षण भी बिना किसी कार्य में प्रवृत्त हुए स्थिर नहीं रह सकता।
श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मनुष्य का चित्त इतना अधिक चंचल स्वभावी है कि यह एक क्षण भी बिना किसी कार्य में प्रवृत्त हुए स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए जब भगवान बुद्ध ने समाधि के स्वरूप का निरूपण किया तो यही कहा कि मनुष्य के चित्त का एकाग्र हो जाना ही समाधि है। यहां पर यह भी विचारणीय है कि यह चित्त यदि संसार के यज्ञ, दान आदि कुशल कर्मो में प्रवृत्त रहता है; तब भी यह ईष्र्या, अहंकार आदि के दोष से दूषित होता रहता है। किंतु जब यह समाधि की दिशा में प्रवृत्त होकर एकाग्रता की ओर बढ़ता है, तब यह क्रोध रहित, द्वेष रहित, संदेह रहित और आलस्यादि दुगुर्णो से मुक्त हो जाता है। समाधिस्थ व्यक्ति के मन में संसार के सभी जीवों के प्रति करुणा तो होती है किंतु वह किसी एक जीव के मोह में फंसता नहीं है। वह सत्कर्मो में प्रवृत्त तो होता है किंतु उन सत्कर्मो के फलस्वरूप मिलने वाले स्वर्ग-आदि में उसकी कोई प्रवृत्ति नहीं होती है। वह जानता है कि शरीर के पांचों तत्व- पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश नितांत रूप से अनित्यात्मक हैं। इसलिए इस शरीर से भी कुछ पाया नहीं जा सकता है। वह इस शरीर के प्रति भी उपेक्षावान होता है।
समाधि की संपूर्णता में आने वाले चार ध्यान का वर्णन भगवान बुद्ध ने किया है। प्रथम अवस्था में चित्त की एकाग्रता करने पर साधक के मन में किसी प्रकार का कुतर्क उदित नहीं होता। वह शांतिपूर्वक संसार-धर्मो और स्वयं के सत्स्वरूप के विषय में विचार करता है तथा यथार्थ सुख की अनुभूति करता है। ध्यान की दूसरी अवस्था में अध्यात्म संपृत्यय के उदय होने के साथ-साथ सुख और प्रीति दृढ़ होती है। इसकी तृतीय अवस्था उपेक्षा, स्मृति और संप्रज्ञान से युक्त होती है, जिसमें अनित्यात्म पदार्थो की उपेक्षा कर सम्यक्-स्मृति से युक्त हो समाधि की ओर बढ़ता रहता है। चित्त की एकाग्रता की चतुर्थ अर्थात परिपूर्णावस्था में दुख-सुख से निरपेक्षता, उपेक्षा की परिशुद्धि और स्मृति की सम्यक-अवस्था आती है तथा साधक चित्त की परिपूर्ण एकाग्रता पाकर सम्यक-समाधि में अवस्थित हो जाता है।
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