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यहां भगवान से की गई प्रार्थना की स्वयं अनुभूति होती है

हिमाचल प्रदेश के चप्पे-चप्पे में आस्था की झलक मिलती है। यहां की संस्कृति, देवी-देवताओं पर गहरी आस्था के कारण ही इसे देवभूमि का नाम दिया गया है। देवभूमि के जिला कांगड़ा के बैजनाथ में ऐतहिासिक शिव मंदिर स्थित है। जहां शिव भगवान से सच्चे मन से की गई प्रार्थना की

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 24 Nov 2015 04:07 PM (IST)Updated: Tue, 24 Nov 2015 04:11 PM (IST)
यहां भगवान से की गई प्रार्थना की स्वयं अनुभूति होती है

हिमाचल प्रदेश के चप्पे-चप्पे में आस्था की झलक मिलती है। यहां की संस्कृति, देवी-देवताओं पर गहरी आस्था के कारण ही इसे देवभूमि का नाम दिया गया है। देवभूमि के जिला कांगड़ा के बैजनाथ में ऐतहिासिक शिव मंदिर स्थित है। जहां शिव भगवान से सच्चे मन से की गई प्रार्थना की स्वयं अनुभूति होती है कि कहीं प्रार्थना की गई है और किसी ने उसे सुना है। शिखराकार शैली में निर्मित यह मंदिर कई रहस्यों से भी भरा हुआ है। यहां दशहरे में लंकापति रावण को नहीं जलाया जाता है, क्योंकि रावण ने यहां भगवान शंकर की तपस्या की थी। यही नहीं आज तक जिस ने भी यहां रावण के पुतले को जलाने का प्रयास किया। उसे भारी हानि उठानी पड़ी। इसी मंदिर के आसपास किसी सुनार को भी अपना व्यवसाय खोलने की इजाजत नहीं है। जो दुकान चलाता है, वह दुकान ही नष्ट हो जाती है।

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मंदिर से जुड़ी एक परंपरा जिसे अखरोट मार यानी अखरोटो की बरसात भी कहते हैं, बेहद रोचक है। इस परंपरा को हर साल बैकुंठ चौदस के दिन निभाया जाता है। इस बार बैंकुठ चौदस 24 नवंबर को है। इस परंपरा के तहत शाम ढलते ही बैजनाथ शिव मंदिर की छत से हजारों अखरोटों की बरसात की जाती है। इन अखरोटों को नीचे मंदिर परिसर में खड़े लोग प्रसाद के रूप में एकत्रित करते हैं। यह परंपरा सदियों से निभाई जा रही है। इस बार भी 11 हजार अखरोटों की बरसात यहां की जाएगी।

इसलिए मनाई जाती है परंपरा

मंदिर के पुजारी सुरेंद्र आचार्य बताते हैं कि इस परंपरा को मनाने के पीछे पौराणिक कथा है कि शंकासुर नामक राक्षस ने देवताओं पर जीत हासिल की मगर देवताओं की शक्ति से पार न पा सका। जब उसे पता चला के देवता वेद मंत्रों के कारण उस पर भारी पड़ रहे हैं तब उसने वेद मंत्रों को छीनकर जल में प्रवाहित कर दिया। उसके बाद भगवान विष्णु ने मत्स्य का रूप धारण कर वेद मंत्रों को वापस लाकर देवताओं को सौंप दिया। इसी खुशी में पहले यहां आभूषणों की बारिश की जाती थी। इसे कई दशक पहले बंद कर दिया गया था तथा इसके स्थान पर अब अखरोटों की बारिश की जाती है।

नौवीं शताब्दी में निर्मित है मंदिर

पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे में स्थित यह मंदिर नौंवी शताब्दी में निर्मित है। इसका निर्माण उस समय मयूक और अहूक नाम के दो भाइयों ने करवाया था। कांगड़ा के अंतिम राजा संसाद चंद ने इस मंदिर की मरम्मत व सुरक्षा दीवार लगवाई थी। मंदिर में एक ही पत्थर को तराश कर बनाई गई नंदी बैल की प्रतिमा आकर्षण का केंद्र है। इस मंदिर में स्थापित शिवङ्क्षलग काफी पुरानी है। कहा जाता है कि यह वही शिवङ्क्षलग है, जिसे लंकापति रावण लंका ले जा रहा था लेकिन एक शर्त पूरी न करने के कारण यह यहीं स्थापित हो गई थी। बाद में रावण ने यहीं तपस्या भी की थी।

शिवरात्रि व घृत पर्व भी है आकर्षण का केंद्र

मंदिर में शिवरात्रि और घृत पर्व भी आकर्षण का केंद्र है। यहां हर साल शिवरात्रि का महोत्सव राज्य स्तर पर पांच दिन मनाया जाता है। इसके अलावा मकर संक्रांति के दिन यहां घृत पर्व शुरू होता है। इसमें शिवङ्क्षलग के ऊपर सात दिन तक कई क्विंटल देशी घी को फिर से मक्खन का रूप देकर घृत चढ़ाया जाता है। इसे बाद में लोग चर्म रोगों से मुकित के लिए लगाते है।


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