शहीदों के सरताज, सच्चे पातशाह गुरु श्री अर्जुन देव जी
सिखों के पांचवें गुरु गुरु अर्जुन देव का प्रकाश श्री गुरु रामदास जी तथा माता भानी जी के यहां वैशाख बदी 7, संवत 1620 मुताबिक 15 अप्रैल 1563 ई. को गोइंदवाल साहिब में हुआ। आपका पालनपोषण गुरु अमरदास तथा बाबा बुड्ढ़ा की देखरेख में हुआ। मानव-कल्याण के लिए आजीवन शुभ
सिखों के पांचवें गुरु गुरु अर्जुन देव का प्रकाश श्री गुरु रामदास जी तथा माता भानी जी के यहां वैशाख बदी 7, संवत 1620 मुताबिक 15 अप्रैल 1563 ई. को गोइंदवाल साहिब में हुआ। आपका पालनपोषण गुरु अमरदास तथा बाबा बुड्ढ़ा की देखरेख में हुआ। मानव-कल्याण के लिए आजीवन शुभ कार्य करने वाले गुरु अर्जुन देव सिखों के पांचवें गुरु हैं।
कल्पना कीजिए, उस मंजर की जब मुगल बादशाह जहांगीर गर्म था, लाहौर शहर का वजीर गर्म था, चंदू व्यवसायी गर्म था, जेठ का महीना गर्म था, लोहे का तवा गर्म था, जल रही चूल्हे की आग गर्म थी, शरीर पर डाली जा रही रेत भी गर्म थी। केवल गुरु श्री अजरुन देव, इन सब की परवाह न करते हुए बिल्कुल ठंडे थे। तनिक भी विचलित नहीं हुए थे। किंचित मात्र क्रोध नहीं आया था इन जल्लादों पर। ‘वाहेगुरु’ के सिमरन (सुमिरन) में वह पूरी तरह लीन थे। शांति के पुंज, शहीदों के सरताज गुरु अजरुन देव की शहादत अतुलनीय है।
हर विचारवान व्यक्ति के मन में यह प्रश्न कौंध जाता है कि गुरु देव ने ऐसा कौन-सा ‘अपराध’ किया कि उन्हें इस तरह यासा व सियासत कानून के तहत शहीद कर दिया गया। अकबर के देहांत के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना। वह कट्टरपंथी था। अपने धर्म के अलावा उसे और कोई धर्म पसंद नहीं था। गुरु जी के धार्मिक व सामाजिक कार्य भी उसे बुरे लगते थे। इसी दौरान जहांगीर का पुत्र खुसरो बगावत करके आगरा से पंजाब की ओर आ गया। जहांगीर को सूचना मिली कि गुरु जी ने खुसरो की मदद की है। इसलिए उसने उन्हें गिरफ्तार करने के आदेश दिया। स्वयं जहांगीर भी गुरु जी के सिख धर्म के प्रचार-प्रसार से डर गया था। जहांगीर के आदेश पर उनकों गिरफ्तार कर लाहौर लाया गया तथा मृत्युदंड सुनाने का फरमान दे दिया गया। इसके साथ ही अमानवीय यातनाओं का अंतहीन दौर चल पड़ा। लाहौर के बजीर ने गुरु जी को एक रुढ़िवादी व्यवसायी चंदू को सुपुर्द कर दिया। कहा जाता है कि चंदू ने गुरुजी को तीन दिन तक ऐसी-ऐसी यातनाएं दीं, जो न तो शब्दों में बयां की जा सकती हैं, न ही वैसी कोई मिसाल इतिहास में ढूंढ़े मिलेगी। ऐसी दर्दनाक अवस्था में ही गुरुजी को लोहे की जंजीरों में बांधकर 30 मई सन् 1606 ईस्वी में रावी नदी में फेंकवा दिया गया। शांतिपूर्वक अपने धर्म के प्रचार -प्रसार के उनके इस प्रयास को आनेवाले समय में बदलने की आवश्यकता का बीजा रोपण उसी दिन हो गया।