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देवोत्थान एकादशी इस पूजा में भगवान के साथ हम भी जाग कर इस पर्व को सफल करें

देवोत्थान एकादशी में भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं। यह संकेत है कि हमें अपनी शक्तियों को पहचान कर जगाने के बाद, भलाई के कार्र्यों में जुट जाना चाहिए...

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 21 Nov 2015 12:59 PM (IST)Updated: Sat, 21 Nov 2015 01:05 PM (IST)
देवोत्थान एकादशी इस पूजा में  भगवान के साथ हम भी जाग कर इस पर्व को सफल करें

देवोत्थान एकादशी में भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं। यह संकेत है कि हमें अपनी शक्तियों को

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पहचान कर जगाने के बाद, भलाई के कार्र्यों में जुट जाना चाहिए...

ाीन ग्रंथों में वर्णित ईश्वर की सारी गतिविधियां संकेत रूप में हमारे लिए प्रबोधन की तरह होती हैं। उन संकेतों

को हमें सीखना चाहिए। पद्म पुराण में लिखा है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष एकादशी से लेकर चार मास तक भगवान विष्णु क्षीर सागर में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। इसीलिए इसे देवोत्थान एकादशी कहते हैं।

यह मान्यता हमें संकेत देती है कि जिस प्रकार भगवान विष्णु चार मास योग निद्रा में जाकर स्वयं की शक्तियों को जगाते हैं और फिर वे निद्रा से बाहर आकर संसार के संचालन में प्रवृत्त हो जाते हैं, उसी प्रकार यह हमारे लिए भी जागृति का दिन है। हमें भी अपनी शक्तियों को पहचानने और जगाने के बाद उसे कल्याणकारी कार्र्यों में कार्यान्वित करना चाहिए। इस दिन हमें अपनी जिम्मेदारियों और कर्तव्यों के प्रति जाग जाना चाहिए। भगवान विष्णु की योग-निद्रा सामान्य निद्रा नहीं थी, यह सोने की नहीं, बल्किआत्मबोध की निद्रा थी। हमें भी अपने भीतर के आत्मबोध को जाग्रत करना होगा, जिससे हम अपनी शक्तियों को पहचान पाएंगे।

जागरण का अर्थ है कि हमें अपनी जिम्मेदारी को सचेत रहकर निभाना है। अपने परिवार के प्रति, अपने

समाज के प्रति, अपने परिवेश के प्रति हमारे जो भी कर्तव्य बनते हैं, हमें उन्हें पूरा करना है। भगवान सृष्टि के संचालन की अपनी जिम्मेदारियों के लिए जागते हैं। देखा जाए, तो यह सचेतन होने का पर्व है। हमें अपनी चेतना

को बहुआयामी और कल्याणकारी बनाना होगा। हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे भीतर प्रेम, करुणा और विवेक का अवतरण हो, ताकि तृष्णा, कामना, अहंकार आदि हमें सता न सकें।

संत कवि तुलसी दास लिखते हैं - नर तन सम

नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।।

जिसका भावार्थ यह है कि अगर मनुष्य का शरीर

पाने के बाद भी सत्कर्म नहीं किया गया, तब सब

व्यर्थ है। गीता में भगवान कहते हैं, अहंकारं बलं

दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम। विमुच्य निर्मम: शांतो

ब्रह्मभूयाय कल्पते।। अर्थात अहंकार, शक्ति

के घमंड, काम, क्रोध और संग्रह की प्रवृत्ति

का त्याग करके ही शांति पाई जा सकती है।

श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि जिसके इंद्रिय

रूपी घोड़े और बुद्धि रूपी सारथी बिगड़े हुए हैं,

जिसके हृदय में न ज्ञान है न वैराग्य है, वह कोई

भी वेश-भूषा क्यों न धारण कर ले, लेकिन

भगवान का कृपा पात्र नहीं बन सकता।

देवोत्थान एकादशी जीवन के विकारों को हटाने

के लिए प्रेरित करती है। यह हमें कर्तव्यों के प्रति

जगाती है। गीता में कहा गया है

कि ईश्वर सभी में विद्यमान

हैं, तो ईश्वर अपने कर्तव्यों

के प्रति जाग रहे हैं, तो

हमारा भी कर्तव्य बनता है

कि हम भी अपने दुर्गुणों

को त्यागकर जागरण के

इस पर्व को सफल करें।


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