अवध की होली
होली का त्योहार लोकोत्सव का पर्याय है ही, इसमें संस्कृति और आध्यात्मिकता के भी सूत्र निरूपित हैं। इस तथ्य की तस्दीक अवध की होली से होती है। किसी अन्य नगरी की तरह यहां की होली भी रंग-गुलाल से सराबोर होती है और हंसी-ठिठोली, गीत-संगीत, रंग-राग की भी खास कशिश होती
अयोध्या। होली का त्योहार लोकोत्सव का पर्याय है ही, इसमें संस्कृति और आध्यात्मिकता के भी सूत्र निरूपित हैं। इस तथ्य की तस्दीक अवध की होली से होती है। किसी अन्य नगरी की तरह यहां की होली भी रंग-गुलाल से सराबोर होती है और हंसी-ठिठोली, गीत-संगीत, रंग-राग की भी खास कशिश होती है पर इस हुलास में कहीं मर्यादा का अतिक्रमण नहीं होता बल्कि भक्ति की संजीदगी होती है।
लोग होली मनाने में कोई कोताही नहीं बरतते पर केंद्र में आराध्य होते हैं।
अवध में होली गीतों की भी समृद्ध परंपरा है और इसमें भी आराध्य से सरोकार की पुष्टि होती है। बात अवध के होली गीतों की हो, तो यह गीत अवध का प्रतिनिधि होली गीत है- आजु अवध के अवध किशोर, सरयू जी के तीरे खेलैं होली। होली के एक अन्य प्रतिनिधि गीत में भी आराध्य से सरोकार प्रतिपादित है- केकरे हाथे कनक पिचकारी, केकरे हाथ अबीरा, अवध मां होली खेलैं रघुवीरा। होली गीतों में अवध की फिजा़ का भी सुदंर परिचय मिलता है- चढ़त फगुनवा बउर गए अमवा अउर महुआ, झूम-झूम गांवय सब मगन फगुआ। होली के बहाने सुदामा का कथानक भी गीतों में अभिव्यंजित है- हेरैं विकल सुदामा भुलाने, मोरा निज कै दइव रिसियाने। अवधी के एक अन्य गीत से होली की तात्विकता इंगित होती है- होली मां गले मिल दुश्मन हजार, गाय-गाय फगुवा होली धमाल।
ऐसे अनेकश- होली गीत महज कागजी नहीं है बल्कि बसंत पंचमी पर होली की दस्तक के साथ मठ-मंदिरों में गायकों के गले की शान बनते हैं।
बात अवधी गीत-संगीत की हो, तो शीतला वर्मा के जिक्र बिना नहीं पूरी होती। पारंपरिक अवधी नृत्य फरुवाही को उन्होंने न केवल 21वीं शताब्दी में पुनर्जीवित किया बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने में अहम् भूमिका निभाई। शीतला वर्मा होली के अवधी गीतों के भी प्रतिनिधि कलाकार हैं, तो पखावज सम्राट मरहूम पागलदास से लेकर अवधी घराने के दिग्गज प्रतिनिधि आचार्य गौरीशंकर, आचार्य रामकिशोरदास, पागलदास के शिष्य विजयरामदास एवं अजयरामदास जैसे कलाकार यूं तो अपनी शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध हैं पर यदि मौका होली का हो, तो वे शास्त्रीयता से इतर ठेठ अवधी की तान छेडऩे में भी महारत रखते हैं। शास्त्रीय संगीत की समझ रखने वाले अवकाश प्राप्त प्राचार्य डॉ. रामकृष्ण शास्त्री के अनुसार होली गीतों को लेकर यह प्रतिबद्धता आराध्य के प्रति समर्पण से अनुप्राणित है। इसकी गवाही मठ-मंदिरों के जगमोहन से मिलती है। वैष्णव परंपरा के उपासकों की प्रमुख पीठ कनकभवन में बसंत पंचमी के बाद के प्रत्येक मंगलवार एवं एकादशी को फाग की विशेष महफिल सजती है।
गर्भगृह में विराजमान मझले सरकार के विग्रह को जगमोहन में प्रतिष्ठित किया जाता है और भक्त उनके सम्मुख अबीर-गुलाल अर्पित करने के साथ फाग की मस्ती में डूबते हैं। बजरंगबली की प्रधानतम पीठ हनुमानगढ़ी में होली के पांच दिन पूर्व आमलिकी एकादशी से ही होली का हुलास शबाब पर होता है। इस तिथि को बड़ी संख्या में नागा साधु रंग-गुलाल उड़ाते हुए पंचकोसी परिक्रमा करते हैं। इस परिक्रमा से ही अयोध्या में होली की अलख जगती है।