इस शक्तिपीठ में श्रीयंत्र पर अवस्थित मां का भव्य विग्रह पश्चिमाभिमुख है इसलिए...
मान्यता है कि यहां तंत्र सिद्धी करने से कोई काम असफल नहीं होता। त्रिकाेण करते समय श्रद्धालु श्रीयंत्र का दर्शन पूजन करते हैं। इसके दर्शन से सभी कष्ट दूर होते हैं।
By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 18 Mar 2017 11:51 AM (IST)Updated: Fri, 24 Mar 2017 12:31 PM (IST)
मीरजापुर । शक्ति या ऊर्जा ही जीव-जंतुओं का आवश्यक तत्व है जिससे सभी अनुप्राणित हैं। बिना शक्ति के खासकर इंसान की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल से महाराष्ट्र तक फैले विशालतम विंध्यपर्वत पर ईशान कोण पर निवास करने के कारण इन्हें विंध्यवासिनी या वन देवी कहा गया। इन्हीं के अंशावतार से सती का प्रादुर्भाव हुआ जो भगवान शिव की पत्नी और यक्ष की पुत्री बनीं।
मां के धाम की मान्यता महाशक्ति व सिद्धपीठ के रूप में है। यह स्थान उत्तर प्रदेश के मीरजापुर जिले में गंगा से दो सौ मीटर दूर है। जिला मुख्यालय से यह दूरी आठ किमी है। इस धाम में श्रीयंत्र पर अवस्थित मां का भव्य विग्रह पश्चिमाभिमुख है। उनके दर्शन से श्रद्धालुओं में अपार भक्ति व आनंद का भाव पैदा होता है। वर्ष के चार मास चैत्र, आषाढ़, अश्विन व माघ के शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक नवरात्र के दौरान समूचे क्षेत्र में विविध धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। इनमें भी चैत्र व आश्विन के नवरात्र में देश भर से लाखों श्रद्धालु यहां अमिश कामदा अंबा के चरणों में मत्था टेकने आते हैं।
दुर्गा सप्तशती में मां विंध्यवासिनी का उल्लेख सर्वतस्याधा महालक्ष्मी: त्रिगुण परमेश्वरी।
लक्ष्या लक्ष्यस्वरूपां सा व्याप्तं कृतस्नं व्यवस्थिता।।
श्लोक के माध्यम से किया गया है। धाम में नौबतखाना भी है जहां मुगल बादशाह औरंगजेब ने शाही नगाड़ा भेंट में दिया। मंदिर परिसर में ही लघु त्रिकोण भी है। यानी मां विंध्यवासिनी, मां काली और मां सरस्वती। वैेसे तो विंध्य पर्वत के शिखर पर अवस्थित मां विंध्यवासिनी के अलावा महाकाली (काली-ख्रोह) और महासरस्वती (अष्टभुजा) का त्रिकोण ही वास्तविक माना जाता है।
गंगा पखारतीं पांव : विंध्यपर्वत को मां गंगा गोमुख से गंगासागर के बीच केवल विंध्याचाल के शिवपुर में ही स्पर्श करती हैं। इसका उल्लेख नीलतंत्र कोश में मिलता है। ऋषियों से शास्त्रार्थ के दौरान अगस्त्य मुनि ने भी यही परिचय कराया था। इस कारण यहां गंगास्नान का विशेष महत्व है। तांत्रिक व साधक नवरात्र के दौरान विंध्यक्षेत्र में ही साधना कर सिद्धि प्राप्त करते हैं।
गुरु अगस्त्य के आदेश पर झुका विंध्य पर्वत : विंध्याचल निवासी और अध्यात्म के क्षेत्र में गहरी पैठ रखने वाले धामसेवक स्वामी दीनबंधु बताते हैं कि विंध्य पर्वत वैदिक काल से भी पहले का है। उस समय इसकी विशालता बढ़ती जा रही थी। स्थिति यहां तक पहुंची कि विंध्याचल की बढ़ती ऊंचाई के कारण सूर्य-चंद्र के मार्ग भी बाधित होने लगे। इससे भयभीत ऋषि-मुनि ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उनसे स्थिति संभालने की विनती की। ब्रह्माजी ने पर्वतों के गुरु अगस्त्य ऋषि को बुलाकर विंध्य पर्वत की विशालता रोकने को कहा। उनके आदेश पर अगस्त्य ऋषि विंध्य क्षेत्र में आए। उन्हें देख विंध्य पर्वत साष्टांग दंडवत हो गया। इस दौरान ही अगस्त्य ने कहा कि जब तक मैं दक्षिण की यात्रा से नहीं लौटता, तुम इसी स्थिति में रहो। मैं तुम्हारे मस्तक पर मां महाशक्ति का आह्वान कर रहा हूं जो लोक हितकारिणी महाशक्ति तुम्हारे नाम यानी विंध्यवासिनी के रूप में जानी जाएंगी। धामसेवक बताते हैं कि पांडवों ने भी वनवास काल में विंध्यपर्वत पर आकर मां विंध्यवासिनी की उपासना की थी। उन्होंने बताया कि ईश्वर को अपराविद्या नाम से संबोधित और इंगित करने के लिए चंडी और स्थान प्रधान होने के कारण भी विंध्यवासिनी कहते हैं।
अमृतमय है भैरव कुंड का जल : विंध्यपवर्त की गुफा में विराजमान मां अष्टभुजा देवी के दर्शन के बाद श्रद्धालु पूरब तरफ पहाड़ी से लगभग पांच सौ फीट नीचे स्थित भैरव कुंड के अमृत जल का सेवन व उसमें स्नान करना नहीं भूलते। जड़ी बूटियों से युक्त जल का सेवन करने से पेट के विकार दूर होते हैं इसीलिए यहां का जल लोग अपने साथ ले जाते हैं। भीषण सूखे में भी इस कुंड का जल नहीं सूखता।
श्री यंत्र : भैरव कुंड के समीप उत्तर तरफ श्रीयंत्र विराजमान हैं। त्रिकाेण करते समय श्रद्धालु श्रीयंत्र का दर्शन पूजन करते हैं। इसके दर्शन से सभी कष्ट दूर होते हैं।
सीता कुंड : वनगमन के समय भगवान श्रीराम ने लक्ष्मण व सीता संग विंध्यपर्वत पर विश्राम किया था। माता सीता ने यहीं रसोईंया बनायी थी इसीलिए इस स्थल का नाम सीता कुंड पड़ा। यहां नवरात्र के अलावा मातृ नवमी को बड़ी संख्या में महिलाएं कुंड में स्नान करती हैं। पुराना वस्त्र त्यागकर नया वस्त्र धारण करती हैं।
मां तारा देवी मंदिर : विंध्याचल मंदिर से दो किमी पश्चिम तरफ शिवपुर गंगा घाट पर मां तारा देवी का मंदिर है। नवरात्र में साधक यहां तंत्र साधना करने आते हैं। महानिशा पूजा भी तारा पीठ पर ही होती है। मान्यता है कि यहां तंत्र सिद्धी करने से कोई काम असफल नहीं होता।
प्रेतशिला : धामसेवक स्वामी दीनबंधु बताते हैं कि वन गमन के समय भगवान राम ने लक्ष्मण व सीता संग शिवपुर में अपने पूर्वजों का तर्पण किया था। गंगा के मध्य विशाल पर्वत है जो प्रेतशिला के नाम से जाना जाता है।
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