शिव व पार्वती की आज्ञा से इस मूर्ति की स्थापना स्वयं गुरु और वायु ने यहां की है
गुरुवायुर केरल में स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थल है। यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण जी को समर्पित है। इस मंदिर में गुरुवायुरप्पन रुप में पूजा की जाती है, जो कि वास्तव में भगवान कृष्ण का ही बाल रूप हैं। इसके अलावा इस मंदिर में भगवान विष्णु के दस अवतारों
गुरुवायुर केरल में स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थल है। यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण जी को समर्पित है। इस मंदिर में गुरुवायुरप्पन रुप में पूजा की जाती है, जो कि वास्तव में भगवान कृष्ण का ही बाल रूप हैं। इसके अलावा इस मंदिर में भगवान विष्णु के दस अवतारों को भी दर्शाया गया है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार मंदिर में स्थित मूर्ति पहले द्वारका में स्थापित थी। एक बार द्वारका पुरी जब पूरी तरह जलमग्न हो गया तब यह मूर्ति बाढ़ में बह गई। कृष्ण जी की यह मूर्ति बृहस्पति देव को तैरती हुई दिखी। उन्होंने वायु देवता की सहायता से इस मूर्ति को बचाया तथा उचित स्थान पर स्थापित करने के लिए निकले। उचित स्थान की खोज में वह केरल पहुंच गए, जहां उन्हें भगवान शिव और देवी पार्वती के दर्शन हुए। भगवान की आज्ञा से उन्होंने मूर्ति की स्थापना केरल में ही की। क्योंकि इस मूर्ति की स्थापना गुरु और वायु ने की इसलिए इसका नाम 'गुरुवायुर' रखा गया। माना जाता है कि गुरूवायूर मंदिर उन कुछ भारतीय मंदिरों में से एक है जहां आज भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है।
श्रीकृष्ण विग्रह की सािपना फ्यूचर पॉइंट के सौजन्य से दक्षिण भारत का केरल प्रांत एक देवभूमि है। यह प्रदेश एशिया का एक सर्वाधिक मनोरम पर्यटन स्थल है जहां दुनिया भर के सैलानी सैर के लिए आते रहते हैं। अपनी प्राकृतिक संपदाओं के लिए दुनिया भर में मशहूर केरल मंदिरों का प्रांत भी है। प्रांत के विभिन्न भागों के मंदिरों की अपनी-अपनी कथाएं हैं, अपना-अपना आध्यात्मिक महत्व है और अपना-अपना इतिहास है। गुरुवायुर का मंदिर भी एक ऐसा ही मंदिर है, जिसकी अपनी एक विद्गोष ऐतिहासिक और आध्यात्मिक पहचान है। केरल स्थित मंदिरों में सबसे ज्यादा श्रद्धालु इसी मंदिर के दर्शन को आते हैं। विशेष पर्वों के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की लंबी कतार होती है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा एक बहुमूल्य शिला को तराश कर बनाई गई है। अति पावन यह प्रतिमा मूर्तिकला का एक बेजोड़ नमूना है। मंदिर के गर्भगृह की दीवारों पर हृदयाकर्षक भित्तिचित्र उत्कीर्णित हैं। कहते हैं कि वैकुंठ में विष्णु ने इस मूर्ति की पूजा की और फिर इसे ब्रह्मा को सौंप दिया। निःसंतान राजा सुतपस और उनकी पत्नी ने संतान हेतु भगवान ब्रह्मा की घोर तपस्या की। दोनों के तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने यह मूर्ति उन्हें दी और इसकी पूजा नियमित रूप से करने को कहा। दोनों की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें वरदान दिया कि वह स्वयं उनके तीन पुनर्जन्मों में उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। राजा सुतपस और उनकी पत्नी को अगले तीन जन्मों में पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नाम क्रमशः पृश्निगर्भ, वामन और कृष्ण था। भगवान कृष्ण ने इस प्रतिमा को द्वारका में स्थापित कर इसकी पूजा की। कहते हैं, एक बार द्वारका में एक भयंकर बाढ़ आई, जिसमें यह मूर्ति बह चली, किंतु गुरु ने अपने परम शिष्य वायु की सहायता से इसे बचा लिया। फिर दोनों ने इसकी स्थापना के उपयुक्त स्थान की खोज में पूरी पृथ्वी की यात्रा की। शुभ एकादसी दिवस और उल्सवम का वार्षिक त्यौहार बड़े धूम- धाम से मनाया जाता है। वार्षिक उत्सव के दौरान मंदिर में सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य जैसे कथकली, कूडियट्टम, थायाम्बका आदि का आयोजन किया जाता है।