मिल गई 400 वर्ष पुरानी थाती
नौ दिसंबर, 2014 को कुल्लू के रघुनाथ मंदिर से चुराई गईं और 23 जनवरी को यानी वसंत पंचमी की पूर्व संध्या पर मिली 400 साल पुरानी मूर्तियों की कीमत अरबों में है। इनसे देश-विदेश के श्रद्धालुओं की आस्था जुड़ी हुई है। बड़ी आस्था है रघुनाथ मंदिर की
कुल्लू, जागरण संवाददाता। नौ दिसंबर, 2014 को कुल्लू के रघुनाथ मंदिर से चुराई गईं और 23 जनवरी को यानी वसंत पंचमी की पूर्व संध्या पर मिली 400 साल पुरानी मूर्तियों की कीमत अरबों में है। इनसे देश-विदेश के श्रद्धालुओं की आस्था जुड़ी हुई है।
बड़ी आस्था है रघुनाथ मंदिर की
भगवान रघुनाथ जी मंदिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध है। कुल्लू का ऐतिहासिक दशहरा उनके आगमन के बिना शुरू नहीं होता। दशहरा उत्सव के दौरान भगवान रघुनाथ के दर्शन के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं। भगवान रघुनाथ जी इस दौरान एक रथ में सवार होकर भव्य यात्रा के रूप में निकलते हैं जिसके साक्षी उनके लाखों-करोड़ों भक्त बनते हैं। कुल्लू दशहरा उत्सव का इतिहास भी करीब साढ़े तीन सौ वर्ष से अधिक पुराना है। इसका आयोजन सत्रहवीं सदी में कुल्लू के राजा जगत सिंह के शासनकाल में आरंभ हुआ था।
यूं पहुंचे थे रघुनाथ जी कुल्लू
राजा जगत सिंह ने वर्ष 1637 से 1662 ईस्वी तक शासन किया। उस समय कुल्लू रियासत की राजधानी नग्गर हुआ करती थी। कहा जाता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था। उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर ली। गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा। इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और कई इतिहासकार तो बताते हैं कि इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था। दामोदर दास वर्ष 1651 में श्री रघुनाथ जी और माता सीता की प्रतिमा लेकर गांव मकड़ाह पहुंचे। माना जाता है कि ये मूर्तियां त्रेता युग में भगवान श्रीराम के अश्वमेघ यज्ञ के दौरान बनाई गई थीं।
कुष्ठ रोग से मिली थी मुक्ति
वर्ष 1653 में रघुनाथ जी की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा गया और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित किया गया। राजा ने अपना सारा राज-पाट भगवान रघुनाथ जी के नाम कर दिया तथा स्वयं उनके छड़ीबदार बने। कुल्लू के 365 देवी-देवताओं ने भी श्री रघुनाथ जी को अपना इष्ट मान लिया। इससे राजा को कुष्ठ रोग से मुक्ति मिल गई।
राजा जगत सिंह ने शुरू की दशहरा उत्सव की परंपरा
श्री रघुनाथ जी के सम्मान में राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरा उत्सव मनाने की परंपरा शुरू की। तभी से भगवान श्री रघुनाथ की प्रधानता में कुल्लू के हर-छोर से पधारे देवी-देवताओं का महासम्मेलन यानि दशहरा उत्सव का आयोजन अनवरत चला आ रहा है। कुल्लू घाटी का दशहरा उत्सव धार्मिक, सांस्कृति और व्यापारिक रूप से विशेष महत्व रखता है। हिंदुओं के लिए तो इसका विशेष धार्मिक महत्व है।
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