नंदा राजजात: परंपरा के थाल में संस्कृतियों का संगम
कहां नहीं है नंदा। वह तो घट-घट में विराजमान है, पर देवी नहीं, बहिन, बेटी व बहू के रूप में। जिस प्रकार अल्मोड़ा के चंद राज परिवार की राजकुमारी नंदा की मृत्यु पर नंदा देवी मंदिर स्थापना की अनुश्रुति है, उसी प्रकार गढ़वाल में एक जागर (स्तुति) के अनुसार चांदपुरगढ़ नरेश भानुप्रताप की दूसरी पुत्र
देहरादून, [दिनेश कुकरेती]। कहां नहीं है नंदा। वह तो घट-घट में विराजमान है, पर देवी नहीं, बहिन, बेटी व बहू के रूप में। जिस प्रकार अल्मोड़ा के चंद राज परिवार की राजकुमारी नंदा की मृत्यु पर नंदा देवी मंदिर स्थापना की अनुश्रुति है, उसी प्रकार गढ़वाल में एक जागर (स्तुति) के अनुसार चांदपुरगढ़ नरेश भानुप्रताप की दूसरी पुत्री का नाम नंदा बताया गया है। इस नंदा का विवाह शिव से हुआ था और उसकी बड़ी बहिन का विवाह धारानगरी के कुंवर कनकपाल से। यही इसीलिए नंदा एक ऐसी लोक देवी है, जो उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल एवं कुमाऊं में समान रूप से पूज्य है। हालांकि इसके पीछे अनेक जनश्रुतियां एवं ऐतिहासिक प्रमाण दिए जाते रहे हैं। लेकिन, सच यही है कि नंदा यहां के लोक जीवन में एक नारी के प्रति अतुलनीय सम्मान, आस्था एवं श्रद्धा की प्रतीक है।
लोक साहित्यकार बीना बेंजवाल की गढ़वाली में लिखी एक सुंदर कविता है, 'न गढ़पति रैन, न तौंक राजपाट, गढ़ भि कख बचिन, होण से खंद्वार, पर नंदा त एक चेतना च, अर चेतना कि सदनि चलदि रंदि जात' (गढ़पति रहे न उनका राजपाट। गढ़ भी उजाड़ होने से कहां बच पाए। पर नंदा तो एक चेतना है और चेतना की यात्रा कभी रुकती नहीं)। और..सच भी यही है, तभी तो पर्वतों की घाटियां, गांव-गदेरे, बुग्याल, पहाड़, नदी, पाखे न जाने कितनी नंदाओं की याद ताजा रखे हुए हैं। न जाने नंदा कहां किस रूप में प्रकट हो उपस्थित हो जाए, कहा नहीं जा सकता। हां, इतना जरूर है कि जिस भूगोल में पली-बढ़ी, वहां जात की परंपरा भी उसी भूगोल के अनुरूप है। कुमाऊं में नंदा चंद राजाओं की कुलदेवी मानी जाती है। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार एक भैंसे ने जब नंदा का पीछा किया तो वह केले के पत्ते की ओट में जा छिपी। परंतु, एक बकरी ने वह कदली पत्र खा लिया। भैंसे ने नंदा को देख लिया और वहीं मार गिराया। इसलिए एक दौर में नंदा पूजन के अवसर पर बलि की परंपरा रही है। लेकिन, वर्तमान में अल्मोड़ा में इस मौके पर चंद राजवंश का एक व्यक्ति डोली पर चढ़कर आता है और तलवार से भैंसे की गर्दन को छूकर समारोह की परंपरा को निभाता है।
उद्योत चंद (1678-1698) के दाननामे में उल्लेख है कि कुमाऊं की नंदा जात में कलूं (स्थानीय मटर), विरुड़ (गुरुंश, गहथ, उड़द, गेहूं आदि) भिगोकर गौरा-नंदा को चढ़ाते हैं और कुंवारी कन्याएं झंगोरा (सावां) के पौधों से गमरा बनाकर सिर पर रख गौरा के जन्म से ससुराल जाने तक के विदाई गीत गाती हैं। नंदा राजजात के अलावा स्थानीय जात्रा को हिल (हिरन) जात्रा कहते हैं। लोक साहित्यकार बीना बेंजवाल के अनुसार अष्टमी के इस मेले को आठूं गीत लगता है और गौर-महेशर नाचते-ठुमकते विदा किए जाते हैं। वह बताती हैं कि 1925 की राजजात के बाद 2000 की राजजात में कुमाऊं से अल्मोड़ा की नंदा का राजछत्र, डंगोली-कोटमाई की कटार और नैना देवी नैनीताल की छंतोली सम्मिलित हुई थीं। इस बार भी कुमाऊं की डोली-छंतौलियों का नंदकेसरी में मुख्य जात से मिलन होगा।
परंपरा के अनुसार कुमाऊं की जात अल्मोड़ा से प्रस्थान कर रात्रि विश्राम के लिए सोमेश्वर घाटी के माला नामक स्थल पर पहुंचती है। दूसरे दिन वह गरुड़ घाटी में प्रवेश कर बैजनाथ परिक्षेत्र के कोट स्थल में प्रसिद्ध भ्रामरी देवी मंदिर में विश्राम करती है। सूर्यवंशी कत्यूरी शासकों द्वारा स्थापित यह मंदिर मां शक्ति की भ्रामरी व नंदा रूपों की उपासना का केंद्र रहा है। यहां देवी की कटार प्रतीक रूप में राजजात में सम्मिलित होती है। जबकि, अल्मोड़ा से देवी का छत्र कुमाऊं की नंदा का प्रतीक होता है। नंदकेसरी में इन प्रतीकों का मुख्य जात से मिलन ऐसा अलौकिक दृश्य साकार करता है, जिसमें भला कौन नहीं डूबना चाहेगा।