गोमुख से भगीरथी नदी का उद्गम है गंगोत्री
केदारखण्ड के चारों धामों में यमुनोत्री के बाद गंगोत्री की यात्रा करने का विधान है। परम पावनी गंगा का स्वर्ग से अवतरण इसी पुण्य भूमि पर हुआ था। सर्वप्रथम गंगा का अवतरण होने के कारण यह स्थान गंगोत्री कहलाया। यह स्थान हरिद्वार से 282 कि.मी. की ओर ऋषिकेष से 257
केदारखण्ड के चारों धामों में यमुनोत्री के बाद गंगोत्री की यात्रा करने का विधान है। परम पावनी गंगा का स्वर्ग से अवतरण इसी पुण्य भूमि पर हुआ था। सर्वप्रथम गंगा का अवतरण होने के कारण यह स्थान गंगोत्री कहलाया। यह स्थान हरिद्वार से 282 कि.मी. की ओर ऋषिकेष से 257 कि.मी. है। गोमुख से भागीरथी नदी का उद्गम है। हजारों लोग हर वर्ष गंगोत्री आते हैं। गंगोत्री उत्तरकाशी जिले में है यह चार धामों में से एक है। उत्तराखण्ड हिमालय में ही देवप्रयाग स्थान है जहां भागीरथी, अलकनंदा में मिलती है।
यमुनोत्री से गंगोत्री जाने के लिए बड़कोट, धरासू, उत्तरकाशी, मनेरी, हरसिल, लंका, भैरोंघाटी होकर पहुंचा जाता है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 3200 मी. (लगभग 10,300 फीट) है। उत्तरकाशी से 97 कि.मी. दूरी पर गंगोत्री मन्दिर स्थापित है। गंगा भारतीय महाद्वीप की मुख्य नदी है जो हिमालय के पर्वतों से निकलकर लगभग 2,510 किमी. पूर्व की ओर बहती हुई बड़े मैदानी इलाकों से बंगाल की खाड़ी में गिरती है। पौराणिक तथ्यों के आधार पर स्वर्ग से अवतरित होकर गंगा तीन धाराओं में विभाजित हो गई, भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी। जो गंगा राजा भगीरथ के पीछे गई वह भागीरथी कहलायी। देवप्रयाग मे ये तीनों नदियां एकत्रित होकर गंगा के नाम से जानी जाने लगी।
मान्यता यह है कि नगाधिराज हिमालय और उनकी पत्नी मैना ने सहस्त्रों वर्ष तपस्या की और गंगा जी ने धरती पर अवतरित करने के लिए भागीरथ ने भी कठोर तपस्या की और पूर्वजों व आने वाली पीढिय़ों के उद्धार के लिए गंगा को पृथ्वी पर अवतरित करने में सफलता प्राप्त की। भगीरथ ने सुमेरु पर्वत पर तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा के भार को अपनी जटाओं में वहन किया, परन्तु गंगा की धारा शिवजी की जटाओं में उलझ गयी और पृथ्वी पर उतर नहीं पायी। भगीरथ द्वारा पुन: तपस्या की गयी तब शिवजी ने गंगा को जटाओं से मुक्त किया। अब गंगा दस धाराओं में बहने लगी। जो धारा भगीरथ के पीछे चली वह भागीरथी के नाम से प्रसिद्धि हुई। शेष नौ धारायें अन्य दिशाओं में वह निकली। जो एक दूसरे से मिलती हुई देवप्रयाग में भागीरथी से मिलती हैं जो गंगा कहलाती है।
ऐसा माना जाता है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब गोरखाओं ने गढ़वाल पर अधिकर कर लिया तो गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने यहां गंगा मन्दिर का निर्माण कराया। उस समय इस मन्दिर की ऊँचाई 16-20 फिट थी और उसने ऊपर कत्यूरी शैली का शिखर चढ़ाया गया। ऐसा भी माना जाता है कि जिस शिलाखंड पर भगीरथ ने तपस्या की थी उसी के ऊपर 12 फीट ऊंचा मन्दिर बनवाया गया है। उसी के बराबर में रक्षा देवता भैरव का भी मन्दिर है। परन्तु वर्तमान समय मे अमर सिंह थापा द्वारा बनाये गये मन्दिर का अस्तित्व नहीं है। इस समय यहां एक भव्य और विशाल मन्दिर है, जिसे बाद में जयपुर के राजाओं ने बनवाया था। गंगा मन्दिर में मुख्य मूर्ति भगवती गंगा की है। इसके अतिरिक्त यहाँ महालक्ष्मी, अन्नपूर्णा जाह्नवी, सरस्वती, यमुना व भगीरथ और शंकराचार्य जी की मूर्ति प्रतिष्ठित हंै। साथ ही शिव व भैरव के मन्दिर हैं व एक विशाल शिला है जिसे भगीरथ शिला कहते हैं।
गंगोत्री मन्दिर अप्रैल से अक्टूबर तक खुला रहता है। शेष महीनों में हिम से ढका रहता है। गंगोत्री मन्दिर के कपाट अक्षय तृतीया के दिन खुलते हैं और दीपावली के बाद गोवर्धन पूजा के दिन अन्तिम पूजा करके बन्द हो जाते हैं। गंगोत्री का प्रमुख पवित्र स्थान गौरीकुंड है जहाँ गंगा मन्दिर से नीचे झरने के रूप में गिरती है वहीं नीचे विशाल प्राकृतिक शिवलिंग है। कहा जाता है कि वहीं पर पार्वती ने शिवजी को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। इसके अतिरिक्त पटांगण है जहाँ पांडवों ने गोहत्या के पाप से छुटकारा पाने के लिए तपस्या की थी। केदार गंगा संगम, शंकाराचार्य की समाधि तथा भैरव मन्दिर है व गौमुख है। गौमुख ही गंगा जी का उद्गम स्थान है। यहाँ चीड़ के वन होने के कारण इसी चीड़वासा कहा जाता है। चीड़वासा से आगे जाकर भोजवृक्ष है जिसे भोजवासा कहा जाता है। गौमुख हिमनन्द 24 कि.मी. लम्बा और 6 मीट चैड़ा है। गौमुख, गंगा नदी के निकट तक फैला हुआ है। पूर्व में गंगोत्री से इसकी दूरी 31 किमी. थी परन्तु बर्फ कम होने व वृक्षों के कटान से गौमुख ग्लेशियर पीछे खिसक रहा है जो भविष्य में लुप्त भी हो सकता है। गौमुख नाम के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि गंगा को सिर पर धारण करने के लिए शिवजी गोमुख आसन की स्थिति में बैठे थे इसलिए इसका नाम गोमुख है। पुराणों में गंगा की स्तुति इस प्रकार है-
मात: शैलसुता सपत्नि वसुधा श्रृंगारहार वलि
स्वर्गारोहिण वैजयन्ति भवति भागीरथी प्रार्थये।।