मान्यता है कि चिंतपूर्णी शक्तिपीठ में सभी चिंताओं का अंत होता है
मान्यता है कि मां चिंतपूर्णी के दर्शन करने वाले भक्तों की न केवल चिंताएं समाप्त होती हैं बल्कि भक्तों के असंभव कार्य भी पलक झपकते ही पूर्ण हो जाते हैं।
चिंतपूर्णी। चिंतपूर्णी धाम शक्ति पीठों में से एक है। हिमाचल प्रदेश में धौलाधार पर्वत की गोद में श्री छिन्नमस्तिका धाम के नाम से विश्व विख्यात मंदिर माता चिंतपूर्णी के नाम से भी जाना जाता है। चिंतपूर्णी धाम हिमाचल के ऊना जिले में स्थित है। चिंतपूर्णी मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है जो सोला सिग्ही पहाडिय़ों की श्रेणी में आता है।
चिंतपूर्णी चालीसा में लिखा है की माता चिंतपूर्णी चार शिवलिंग में घिरी हुई हैं जिसकी बहुत कम लोगों को जानकारी है। इनमें से एक मंदिर शिववाड़ी जो गग्रेट के पास है बहुत प्रसिद्ध है दूसरा मंदिर कालेश्वर धाम जो कि अम्ब में पड़ता है। सतलुज दरिया बनने के समय यह दो मंदिर अलोप हो गए थे। जो कि बहुत खोज करने के उपरांत मिले।
तीसरा मंदिर जिसकी लोगों को जानकारी नहीं है। वो मंदिर है नारायण देव मंदिर ज्वाला जी रोड पर डेरा चौंक से हरिपुर रोड पर बीस किलोमीटर की दूरी पर कासब मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। जोकि असल में नारायण देव ही है। चौथा मंदिर मचकूंद महादेव मंदिर ज्वाला जी रोड पर डल्यिरा चौंक से बाएं होकर आगे एक किलोमीटर दूरी पर पुली आती है पुली से बाएं हाथ होकर पांच कीलोमीटर की दूरी पर मचकंूद महादेव मंदिर आएगा। मान्यता है कि जो भक्त इन चारों मंदिरों के दर्शन करने के उपरांत माता चिंतपूर्णी के दर्शन करेगा उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।
मान्यता है कि इस स्थान पर सती माता के चरण गिरे थे। पिंडी रूप में मां के दर्शन होते हैं। मंदिर एक बरगद के वृक्ष के नीचे बना हुआ है। मंदिर के चारों तरफ सोने का आवरण लगा हुआ है। दर्शनों को प्राप्त कर मनुष्य सभी सुखों का भागी बनता है और उसके जीवन में आने वाली सभी चिंताओं का अंत होता है।
नवरात्रि और सावन के पावन समय में तो यहां का नजारा देखते ही बनता है। मान्यता है कि मां चिंतपूर्णी के दर्शन करने वाले भक्तों की न केवल चिंताएं समाप्त होती हैं बल्कि भक्तों के असंभव कार्य भी पलक झपकते ही पूर्ण हो जाते हैं।
चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश मे स्थित है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलो में से एक है। यह 51 शक्ति पीठो मे से एक है। यहां पर माता सती के चरण गिर थे। इस स्थान पर प्रकृति का सुंदर नजारा देखने को मिल जाता है। यात्रा मार्ग में काफी सारे मनमोहक दृश्य यात्रियो का मन मोह लेते हैं और उनपर एक अमिट छाप छोड़ देते हैं। यहां पर आकर माता के भक्तों को आध्यात्मिक आंनद की प्राप्ति होती है।
दूर्गा सप्तशती और देवी महात्यमय के अनुसार देवताओं और असुरों के बीच में सौ वर्षों तक युद्ध चला था जिसमें असुरो की विजय हुई। असुरो का राजा महिसासुर स्वर्ग का राजा बन गया और देवता सामान्य मनुष्यों कि भांति धरती पर विचरन करने लगे। देवताओं के ऊपर असुरों द्वारा काफी अत्याचार किया गया। देवताओं ने इस विषय पर आपस में विचार किया और इस कष्ट के निवारण के लिए वह भगवान विष्णु के पास गये। भगवान विष्णु ने उन्हें देवी की आराधना करने को कहा। देवताओं ने देवी की आराधना की, देवी ने प्रसन्न होकर देवताओं को वरदान दे दिया और कहा मैं तुम्हारी रक्षा अवश्य करूंगी। इसी के फलस्वरूप देवी ने महिषासुर के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। जिसमें देवी की विजय हुई और तभी से देवी का नाम महिषासुर मर्दनी पड़ गया।
भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिण्डी है। जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते हैं। मंदिर के साथ ही में वट का वृक्ष है जहां पर श्रद्धालु कच्ची मोली अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बांधते हैं। आगे पश्चिम की और बढने पर बड़ का वृक्ष है जिसके अंदर भैरों और गणेश के दर्शन होते हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पर सोने की परत चढी हुई है। इस मुख्य द्वार का प्रयोग नवरात्रि के समय में किया जाता है।