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कुल्लू का दशहरा

व्यास नदी के नीले स्वच्छ जल के दाएं किनारे बसे शहर कुल्लू में ढोल, शहनाई, रणसिंघे बज रहे हैं। पहाडियों की घाटियों, शिखरों व पगरास्तों से रंगबिरंगी पालकियों व रथों में विराजे देवता, ऋषि, सिद्घ व नाग पधार रहे हैं।

By Edited By: Published: Tue, 05 Jun 2012 02:57 PM (IST)Updated: Tue, 05 Jun 2012 02:57 PM (IST)
कुल्लू का दशहरा

व्यास नदी के नीले स्वच्छ जल के दाएं किनारे बसे शहर कुल्लू में ढोल, शहनाई, रणसिंघे बज रहे हैं। पहाडियों की घाटियों, शिखरों व पगरास्तों से रंगबिरंगी पालकियों व रथों में विराजे देवता, ऋषि, सिद्घ व नाग पधार रहे हैं। पीतल, तांबे चांदी के वाद्य, रंग-बिरंगे झंडे, चंवर व छत्र, विशेष चिन्ह, अनुभवी पुजारी, पुरोहित, संजीदा गूर व कारदार सब शामिल हैं देव यात्रा में। देवों में भाई-बहन, भाई-भाई, छोटे-बडे व गुरु-चेले के रिश्ते हैं। बताते हैं, कभी इस समागम में देव शिरोमणि रघुनाथजी के पास हाजिरी देने पूरे तीन सौ पैंसठ देवी-देवता पधारते थे। अब यह संख्या कम रह गई है। शहर के तीन मुख्य हिस्से रहे हैं- सुल्तानपुर, अखाडा बाजार व ढालपुर मैदान, जहां मेले की रौनक होती है।

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सत्रहवीं सदी में राजा मान सिंह ने उत्सव को व्यापारिक मोड दिया। आर्थिक कारणों से यह उत्सव तब शुरू होता था जब देश के निचले भागों में संपन्न हो चुका हो ताकि स्थानीय व्यापारी वहां से फुर्सत पाकर इसमें शामिल हो सकें। तब यहां रूस, समरकंद, यारकंद, तिब्बत चीन वगैरह से व्यापारी भी आते थे। राजाओं के जमाने में उत्सव में नए आयाम जुडे। बिकने आए घोडों की घुडदौड से लेकर शाही कैंपों में अपने-अपने ढंग का नाचगान, खानपान होता रहता। मगर समय के बहाव में कुछ बदलाव आए।

सन 1660 में यहां पहली बार दशहरा आयोजित किया गया था। दिलचस्प व अनूठा यह है कि इस आयेाजन में रावण मेघनाद व कुंभकर्ण के पुतले नहीं जलाए जाते, बल्कि ढालपुर मैदान में लकडी से बने कलात्मक व आकर्षक सजे रथ में फूलों के बीच आसन पर विराजे रघुनाथ की पावन सवारी को मोटे-मोटे रस्सों से खींचकर दशहरा की शुरुआत होती है। इससे पहले देवी-देवता सुल्तानपुर में स्थित रघुनाथजी के मंदिर में माथा टेक यहीं स्थित राजमहल में जाते हैं। कुछ देव सीधे रथयात्रा में शामिल होते हैं।

सुल्तानपुर में रघुनाथजी को एक पालकी में सुसज्जित कर देव समुदाय व गाजे-बाजे के साथ ढालपुर लाया जाता है। रथ में बिठाकर पूजा-अर्चना की जाती है व चंवर झुलाया जाता है। राज परिवार के सदस्य पारंपरिक शाही वेशभूषा में छडी लेकर उपस्थित रहते हैं। परिक्त्रमा की जाती है। रथ के आसपास देवता उपस्थित रहते हैं। यह घटनाक्त्रम सचमुच अविस्मरणीय व ऐतिहासिक है। हर श्रृद्घालू चाहता है कि वह रथ खींचे, मगर ऐसा कहां हो पाता है। माना जाता है जो इस क्त्रिया का हिस्सा बन पाता है, उसकी कामना पूरी होती हैं। रस्से के बाल को भी पवित्र माना जाता है।

यह उत्सव आज भी क्षेत्रवासियों के लिए अपने देवताओं से मिलने का अभिन्न अवसर है। आयोजन के दौरान देवनृत्य होता है तो श्रृद्घालु भी रात-रात उनके इर्द-र्गिद नाचते रहते हैं। दिन में देव, गूर के माध्यम से भविष्यवाणी करते हैं। भक्त मनौतियां मांगते हैं। यहां कतिपय दैवीय शक्ति के अनुभव होते देखे जा सकते हैं। दशहरा आयोजन के अंतिम दिन लंका दहन होता है। निश्चित समय पर रथ पर सवार रघुनाथजी, मैदान के निचले हिस्से में नदी के किनारे पर ग्रामीणों द्वारा लकडी एकत्र कर निर्मित की गई सांकेतिक लंका को जलाने जाते हैं। शाही परिवार की कुलदेवी होने के नाते देवी हिडिंबा भी यहां विराजमान रहती हैं। परंपराएं ऐसी हैं कि कई देवता व्यास नदी लांघे बिना इस देव समारोह का हिस्सा बनते हैं। एक देवी की माता गांव के साथ एक पेड के पास बैठकर दशहरा देखती हैं।

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