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कहीं देर न हो जाए

सोच-समझकर निर्णय लेना निश्चित रूप से बहुत अच्छी बात है लेकिन कई बार बहुत ज्य़ादा सोचने की आदत व्यक्ति को दुविधा में डाल देती है, जिससे सही निर्णय लेने में बहुत देर हो जाती है और ऐसी प्रवृत्ति मानसिक सेहत के लिए भी नुकसानदेह है। इसलिए जहां तक संभव हो हमें दुविधा से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

By Edited By: Published: Tue, 17 Jan 2017 04:16 PM (IST)Updated: Tue, 17 Jan 2017 04:16 PM (IST)
कहीं देर न हो जाए
समझ नहीं आ रहा कि शाम की पार्टी के लिए क्या पहनूं, पहले कौन सी असाइंमेंट कंप्लीट करूं, एक ही दिन की छुट्टी है, फिल्म देखने जाऊं या शॉपिंग करूं, टैक्सी से जाऊं या ऑटो से...अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में अकसर हमारे सामने ऐसी स्थितियां आती हैं, जब हम दुविधा में फंस जाते हैं। तब हमारे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या करें, क्या न करें? ऐसी स्थिति में पल भर के लिए ठिठक कर निर्णय लेना स्वाभाविक है पर कई बार ज्य़ादा सोचने की आदत से व्यक्ति को काफी नुकसान उठाना पडता है। क्यों होता है ऐसा हर इंसान के व्यक्तित्व में खूबियों के साथ कुछ खामियां भी होती हैं। इसी वजह से जहां कुछ लोग अपने जीवन से जुडे महत्वपूर्ण निर्णय लेने में जरा भी देर नहीं लगाते, वहीं कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो छोटी-छोटी बातों को लेकर बेवजह सोचने में अपना कीमती वक्त बर्बाद करते हैं और मौके पर सही निर्णय नहीं ले पाते। ऐसे लोग इस सोच में यकीन रखते हैं कि जल्दबाजी में कदम उठाने से गलतियां हो सकती हैं। यह बात कुछ हद तक तो ठीक है पर ज्य़ादा देर करने की वजह से भी कई तरह की मुश्किलें आ सकती हैं। आमतौर पर ऐसा देखने में आता है कि कठोर अनुशासन और अति संरक्षण भरे माहौल में पलने वाले बच्चे अपने माता-पिता से पूछे बिना कोई भी कार्य नहीं करते। बडे होने के बाद भी उनकी यही आदत बनी रहती है। इससे उनका आत्मविश्वास कमजोर पड जाता है और कोई भी निर्णय लेते हुए उनके मन में बहुत ज्य़ादा दुविधा रहती है। ऐसे बच्चों के मन में इस बात का डर बैठ जाता है कि कहीं मुझसे कोई गलती हो गई तो...? फिर वे ताउम्र इस डर से बाहर नही जाहिर करते या कोई भी फैसला लेते समय इनके मन में यही दुविधा बनी रहती है कि कहीं मुझसे कोई गलती न हो जाए। दुविधा से दोहरा नुकसान निर्णय लेने में देरी की आदत तात्कालिक रूप से रोजमर्रा के क्रिया-कलाप में तो बाधक होती ही है पर इसका एक बडा नुकसान यह भी है कि ऐसे लोगों के मन में हमेशा एक ही बात चल रही होती है। नतीजतन वे किसी दूसरे जरूरी मुद्दे पर सोच नहीं पाते और उनके अन्य कार्यों के रिजल्ट पर भी इसका नकारात्मक असर पडता है। आज अति व्यस्त जीवनशैली में सभी के पास समय की कमी है। ऐसे में चाहे घर हो या दफ्तर, मल्टीटास्किंग वक्त की जरूरत बन चुकी है लेकिन देर से निर्णय लेने वाले एक साथ कई कार्यों को पूरा करने में सक्षम नहीं होते क्योंकि उनका ध्यान हमेशा किसी एक ही मुद्दे पर अटका रहता है। इसलिए ऐसे लोग अकसर तनावग्रस्त रहते हैं। पुराने कार्य को पूरा करके तेजी से आगे बढऩे की आदत न होने की वजह से इन पर काम का बोझ हमेशा बना रहता है। इससे ऐसे लोगों कों भूख और नींद की कमी, कार्यक्षमता में गिरावट और डिप्रेशन जैसी समस्याएं भी झेलनी पड सकती हैं। रिश्तों के लिए खतरा जिन लोगों की ऐसी आदत होती है, वे अपने रिश्तों को सही ढंग से नहीं संभाल पाते। संबंधों को लेकर इनकी सोच स्पष्ट नहीं होती। इसलिए ये अपने लाइफ पार्टनर की भावनाओं को समझ नहीं पाते और इन्हें एडजस्टमेंट में बहुत परेशानी होती है। अभिभावक होने के नाते अपने बच्चों को अनुशासित करने के मामले में ये जल्दी कोई निर्णय नहीं ले पाते। इसलिए टीनएजर्स इनकी ऐसी आदत का नाजायज फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। सोशल और प्रोफेशनल लाइफ में सभी को खुश रखने की कोशिश में ऐसे लोग हमेशा अपना ही नुकसान कर बैठते हैं। इनके ढुलमुल रवैये की वजह से लोग इनकी बातों को गंभीरता से नहीं लेते। किसी मुश्किल वक्त में ये अपने करीबी लोगों का साथ देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। इसलिए परिवार और समाज में किसी के भी साथ इनके संबंध मधुर नहीं होते। इनकी ऐसी आदत की वजह से इन पर निर्भर लोग भी हमेशा कई तरह की परेशानियों से घिरे रहते हैं क्योंकि ऐसे लोग समस्या हल करने की दिशा में कोई भी कदम उठाने से बहुत डरते हैं। अपने निर्णय को टालने वाला व्यक्ति अंतत: बहुत अकेला पड जाता है। कल करे सो आज कर निर्णय लेने में देर की एक प्रमुख वजह आलस भी है। आलसी लोग प्राय: अपने हर कार्य को कल पर टालते रहते हैं। इससे जीवन में एक ऐसा भी दौर आता है, जब उनके सामने बकाया कार्यों का अंबार जमा हो जाता है। फिर दोबारा इनके सामने यही स्थिति होती है कि कौन सा कार्य पहले किया जाए? इसलिए सबसे पहले समस्याओं से भागने के बजाय तत्काल उनका समाधान ढूंढने की कोशिश में जुट जाना चाहिए। अगर हम रोजाना अपने सभी कार्यों को पूरा करते रहेंगे तो सामने आने वाली दुविधा की स्थिति को आसानी से टाला जा सकता है। दिल और दिमाग का द्वंद्व निर्णय लेने में देर की एक प्रमुख वजह यह भी है कि कुछ बातें फायदे-नुकसान से परे होती हैं। खासतौर पर जब मामला किसी व्यक्ति की भावनाओं से जुडा हो तो निर्णय लेना बहुत मुश्किल हो जाता है। इस संबंध में क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. पुलकित शर्मा कहते हैं, 'आधुनिक जीवनशैली की चुनौतियों की वजह से लोगों का स्ट्रेस लेवल तेजी से बढ रहा है। आजकल मेरे पास काउंसलिंग के लिए जितने भी लोग आते हैं उनकी एंग्जॉयटी या डिप्रेशन की शुरुआत ऐसे अनिर्णय की वजह से ही होती है। कई बार इमोशनल क्राइसिस से जूझ रहे लोगों के लिए कोई भी बडा निर्णय लेना बेहद कठिन हो जाता है। ऐसे मामलों में मैं लोगों को हमेशा यही सलाह देता हूं कि हानि-लाभ की परवाह किए बगैर उन्हें अपनी अंतरात्मा की आवाज सुननी चाहिए, ताकि बाद में उनके मन में अपने किसी निर्णय को लेकर कोई अपराधबोध न रहे।

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