शादी की तैयारी में आगे ये दुलहनें
वो दिन गुज़्ार गए जब दुलहन शरमाई-घबराई सी रहती थी। हल्दी की रस्म के बाद उसे घर से बाहर निकलने तक की मनाही होती थी। आज की दुलहनें तो हर काम ख़्ाुद करने लगी हैं। शादी की प्लानिंग से लेकर बिग डे ़ तक सारी ज़्िाम्मेदारियां स्वयं निभाने वाली ऐसी
वक्त बदलता है, बदलती हैं पुरानी मान्यताएं और तौर-तरीके भी। 20-30 वर्षों में शादी का रंग-ढंग बहुत बदल चुका है। पहले अभिभावक शादी तय करते थे, आज लडका-लडकी एक-दूसरे को प्रपोज्ा करते हैं। पहले परिवार वाले और संबंधी शादी की तैयारियां करते थे, वर-वधू, ख्ाासतौर पर लडकियों को कामकाज से ज्ारा दूर ही रखा जाता था। आज के वर-वधू शादी की हर तैयारी में शामिल रहते हैं। पहले शादी के कुछ दिन पहले से ही बन्ना-बन्नी को घर से निकलने से मना कर दिया जाता था। आज शादी के 2-3 दिन पहले तक वे ऑफिस जाते हैं या ख्ारीदारी में व्यस्त रहते हैं। सगाई, बिग डे और हनीमून तक की प्लानिंग अब उनके हिसाब से हो रही है। परिधानों, ज्यूलरी की शॉपिंग हो या वेन्यू-मेन्यू तय करना...हर जगह वे आगे हैं। ख्ाासतौर पर लडकियां शादी की पूरी प्लानिंग में बढ-चढ कर हिस्सेदारी निभा रही हैं।
मुंबई में रहने वाली मनीषा मूल रूप से दिल्ली की हैं। उनकी शादी दिल्ली में ही हुई। तीन बहनों में सबसे बडी हैं। वह स्कूल में ही थीं, जब पिता गुज्ार गए। मां सरकारी स्कूल में टीचर थीं। उन्होंने बेटियों को पढाया-लिखाया। पिता और भाई के न होने के कारण कई बार उन्हें बुरे अनुभव हुए। शादी में बाधाएं भी आईं क्योंकि घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं था। बहरहाल शादी हुई। शादी की सारी तैयारियां मनीषा ने ख्ाुद की। इसमें उनके भावी पति ने भी सहयोग दिया। मेन्यू, वेन्यू से लेकर शॉपिंग तक उन्होंने स्वयं की। इसमें उन्हें चचेरे भाई-बहनों, दोस्तों की मदद भी मिली।
दोस्तों की मदद मिली
दिव्यानी कानपुर की हैं। उनकी शादी को एक साल हुआ है। वे दो बहनें हैं। पिता हार्ट पेशेंट थे और शादी के वक्त बहुत बीमार थे। कुछ समय पहले ही उनका देहांत हो गया। कहती हैं दिव्यानी, 'घर में मुझसे बडी एक बहन और हैं। मेरी अरेंज्ड मैरिज हुई। यह पूरी तरह परंपरागत और रीति-रिवाजों वाली शादी थी। पिता बहुत बीमार थे, इसलिए शादी से चार महीने पहले मुझे जॉब छोडऩी पडी। दोस्तों ने तैयारी में मेरी मदद की। मेरा एक दोस्त प्रिटिंग के क्षेत्र में है। उसने ही निमंत्रण पत्र का सारा फॉर्मेट तैयार किया और कार्ड छपने के लिए दिया। मुझे इसके लिए दौड-भाग नहीं करनी पडी। मैं लखनऊ में जॉब करती थी तो वहीं से शॉपिंग की। सबको ज्िाम्मेदारियां बांट दी, केवल यह देखा कि काम ठीक ढंग से हो रहा है या नहीं। मेरी ससुराल वालों और पति ने भी तैयारियों में मेरा साथ दिया। घरेलू उपयोग की चीज्ों हमने शादी के समय नहीं ख्ारीदीं, जिससे काफी समय बच गया। हमने कैश रखा और बाद में धीरे-धीरे सामान ख्ारीदा। कपडों की ख्ारीदारी में भी मुझे बहुत भागदौड नहीं करनी पडी। हमारे एक परिचित का शोरूम था। उन्हें फोन कर दिया, समय तय किया। वहां पहुंचने तक उन्होंने सारी चीज्ों शॉर्टलिस्ट करके रखी थीं। मुझे जाकर सिर्फ फाइनल करना था, तो काफी समय बच गया। ज्य़ादातर लोगों को काड्र्स ईमेल पते पर भेजे। निमंत्रण पत्र बांटने भी मैं ख्ाुद जाती थी। हालांकि कुछ परिचित बहुत ट्रडिशनल भी थे, जिन्हें अजीब लगता था कि लडकी ख्ाुद कार्ड बांट रही है। ऐसी जगहों पर मैं मां को ले जाती थी। घर से कुछ दूर मां को छोड देती और मां वहां जाकर निमंत्रण पत्र दे आतीं। बस इसी तरह सामूहिक प्रयास से सारे काम आसानी से होते चले गए।
वेन्यू-मेन्यू तक ख्ाुद चुना
पल्लवी नारायण दिल्ली की हैं। उन्होंने प्रेम विवाह किया है। कहती हैं, 'हम तीन भाई-बहन हैं। छोटी सी थी, तभी पापा की असामयिक मृत्यु हो गई। मां सरकारी नौकरी में थीं। उन्होंने हम तीनों की बेहतरीन परवरिश की। बचपन में शादी की धूमधाम देख कर मैं बहुत उत्साहित होती थी और सोचती थी कि मैं भी अपनी शादी चमक-दमक के साथ करूंगी। लेकिन धीरे-धीरे चमक-दमक से मोहभंग हुआ। हमने तय किया कि सिंपल मैरिज करेंगे। मेरे घर में शुरू से प्रोग्रेसिव माहौल रहा है। हम हर पहलू पर बातचीत करते हैं। पूरा परिवार साथ बैठता है और फिर कोई निर्णय लिया जाता है। शादी के बजट से लेकर लेन-देन तक क्या और कैसे करना है, यह सब हमने मिल कर तय किया। मैंने घर से चार-पांच किलोमीटर दूर एक बैंक्वेट हॉल चुना। इससे हम ट्रांस्पोर्ट के ख्ार्च और बार-बार आने-जाने के तनाव से बच गए। मेरी शादी लगभग छह लाख में निपट गई, जो आज के समय में सस्ती ही कही जाएगी। दरअसल हम कोर्ट मैरिज करना चाहते थे, मगर घर वालों का मन रखने के लिए हमने ऐसी शादी की। मेरी शादी कश्मीरी परिवार में हुई है, जहां बहुत धूमधाम होती है, फिर भी मेरी ससुराल वालों ने मेरी इच्छा का सम्मान किया। उनकी केवल एक इच्छा थी कि बारात का स्वागत अच्छी तरह हो। हमने अपनी ओर से बेस्ट मेन्यू डिसाइड किया, लेकिन इसमें फजूलख्ार्च से बचने की कोशिश की। जैसे नॉनवेज होगा कि नहीं, एल्कोहॉल सर्व होगा या नहीं, खाने में कितनी वरायटी होगी, यह सब कुछ मैंने तय किया। बाहर से आने वाले मेहमानों को लेने ख्ाुद स्टेशन तक गई। फोन से हर तैयारी का जायज्ाा लेती रही। मेरे पति ने भी हमारे सारे कार्यों में बहुत मदद की।
सिंपल मैरिज के तनाव भी कम होते हैं
अनुजा उत्तराखंड की हैं, मगर शादी से पहले दिल्ली आकर जॉब करने लगी थीं। अब तो दिल्ली की ही हो गई हैं। उनका अंतरजातीय विवाह हुआ। कहती हैं अनुजा, 'शादी में माता-पिता और रिश्तेदारों को बाहर से आना था। समस्या यह थी कि उन्हें दिल्ली के बारे में कुछ भी पता नहीं था, मगर मैं यहां रह रही थी तो काफी जानकारी थी यहां के बारे में। ऐसे में मेरे संपर्क बहुत काम आए। मैं जिस पीजी में रहती थी, उन्होंने मेरी बहुत मदद की। यहां तक कि हमारे कई मेहमान भी उनके ही घर में रुके। मेरे घर के पास ही कैटरिंग वाले थे, जिनसे जान-पहचान थी। उन्होंने बहुत सीमित बजट में सारा प्रबंध कर दिया। एक फोटोग्राफर परिचित थे। उन्होंने वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी की व्यवस्था कराई। बारातियों में ज्य़ादातर दोस्त थे, उनकी भी बहुत मदद मिली। हमें सिंपल मैरिज करनी थी, इसलिए शॉपिंग में ज्य़ादा वक्त नहीं लगा। आसपास की मार्केट से चुनिंदा ड्रेसेज्ा लीं। मैं भावी पति के साथ जाती थी, सामान पसंद करती और ऑर्डर करके आ जाती। इस तरह सबकी मदद से शादी हो गई।
शादी से दो दिन पहले थीम में बदलाव किया
आगरा की प्रियंका तीन बहनों में सबसे बडी हैं। उनकी शादी के समय पिता की तबियत अकसर ख्ाराब रहती थी। प्रियंका ने प्रेम विवाह किया है। शादी में सबसे बडी समस्या यह आई कि वर-वधू की कुंडली नहीं मिली। परिवार बिना कुंडली मिलाए आगे नहीं बढऩा चाहता था। प्रियंका बताती हैं, 'अब तो शादी के चार-पांच साल हो चुके हैं। लेकिन तब हम परेशान भी हुए। बहरहाल घर वाले तैयार हुए तो तैयारियां भी शुरू हुईं। निमंत्रण-पत्र का मैटर मैंने मां के साथ बैठ कर लिखा और फिर प्रिंट करवाने को दिया। हमारी सगाई और शादी के बीच में लगभग एक साल का अंतर था, लिहाज्ाा तैयारी के लिए काफी वक्त मिला। मैं तब नौकरी के साथ ही बनारस से रिसर्च भी कर रही थी। शादी में पहनने वाली साडी और लहंगा तो बनारस से ही लिया। मेरी ससुराल वाले बाहर के थे। उनकी ओर से भी सारी शॉपिंग मैंने ही की। मैं भावी पति के साथ जाकर सारी शॉपिंग करती थी। मैं हर काम बेस्ट ढंग से करना चाहती थी। शादी से महज्ा 2-3 दिन पहले वेडिंग प्लानर के पास गई, क्योंकि मुझे थीम में कुछ बदलाव करना था। निमंत्रण पत्र भी ख्ाुद बांटे और कुछ दोस्तों को इसकी ज्िाम्मेदारी थी। फोटोग्राफर परिचित था, उसे ही सारी ज्िाम्मेदारियां सौंपीं। मेरी ख्वाहिश की थी कि मैं दुलहन के रूप में बहुत ख्ाूबसूरत दिखूं, इसलिए सब कुछ अपनी पसंद से लिया। सगाई की अंगूठी से लेकर ब्राइडल ज्यूलरी तक मैं भावी पति के साथ जाकर पसंद करके आई। गेस्ट हाउस, वेन्यू वगैरह भी मैंने ही बुक कराया। हालांकि मेन्यू पापा ने ही चुना। वेडिंग कलर थीम, डेकोरेशन से लेकर कपडे, फर्नीचर एवं ज्यूलरी तक सब कुछ अपनी पसंद से चुना। बीच-बीच में ऑफिस से छुट्टी लेती थी, ताकि चीज्ों सही ढंग से मैनेज हों।
प्रस्तुति : इंदिरा राठौर