वान्या तुम लौट आओ
लेखक के बारे में : गोविंद उपाध्याय तीन दशक से लेखन में सक्रिय हैं। इनकी पहचान आंचलिक कथाकार के तौर पर है।
By Edited By: Published: Wed, 17 Aug 2016 01:36 PM (IST)Updated: Wed, 17 Aug 2016 01:36 PM (IST)
दिन से अनंत मुखर्जी अपने घर चलने का आग्रह कर रहे थे लेकिन मैं अपने संकोची स्वभाव के कारण इसे टालता जा रहा था। तीन महीने पहले ही मैं इस विभाग में मैकेनिकल में डिप्लोमा के बाद एक वर्ष के अप्रेंटिसशिप के लिए आया था। ऑफिस में चार लोग थे। हेड प्रभुनाथ के अलावा लिपिक नवल और दीनदयाल। अनंत मुखर्जी जूनियर इंजीनियर थे। वह अपने काम की रिपोर्टिंग सीधे सीनियर इंजीनियर को करते थे और जब वहां से अप्रूव्ड होकर आता तो प्रभुनाथ अपने सहायकों के साथ इस पर आगे काम करते। यानी मुखर्जी साहब ऑफिस में रहते हुए भी प्रभुनाथ के आधीन नहीं थे और मुझे मुखर्जी साहब की देख-रेख में काम सीखना था। मुखर्जी साहब की उम्र 45 के आसपास रही होगी। पांच फुट पांच इंच की औसत लंबाई के बावजूद वह कुछ ज्यादा चौडे लगते थे। रंग गेहुंआ था लेकिन ज्यादा समय फील्ड में रहने के कारण सांवला लगने लगा था। वह चेन स्मोकर भी थे। उन्हें दिल की बीमारी थी और सिगरेट उनके लिए जानलेवा थी। मैंने उनसे पूछा, 'इतनी सिगरेट क्यों पीते हैं?' वह हंस दिए, 'अच्छा! जो सिगरेट नहीं पीते, क्या उन्हें दिल की बीमारी नहीं होती? एक दिन तो सभी को जाना है। तो फिर जिंदगी बिंदास होकर जिओ न...!' ऑफिस में कुछ खास काम नहीं था। साढे नौ बजे के इस ऑफिस में लोग 11 बजे तक आते थे। नवल बाबू पत्नी के नाम से किसी बीमा कंपनी के एजेंट का काम करते थे और हमेशा क्लाइंट्स ढूंढते रहते थे और दीनदयाल जी हौजरी का माल सप्लाई करते थे। हेड प्रभुनाथ जी हमेशा समय पर आते, काम करते, कम बोलते और समय पर वापिस जाते। उम्र 50 पार होगी। मुझसे हमेशा कहते, 'बेटे अनुशासन का पालन करो। समय का सदुपयोग करो और नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते रहो।' मुखर्जी साहब मित्रवत व्यवहार करते और अपनी हर बात शेयर करते। मैं उनके ज्यादा करीब था। वह फरवरी का दूसरा शनिवार था और ऑफिस बंद था। मुखर्जी साहब का घर दस-बारह किलोमीटर दूर था। वह कई दफा मुझे अपने घर आने का न्यौता दे चुके थे, लिहाज आज मैं वहां जा रहा था। साइकिल से एक-डेढ घंटे का रास्ता था। घर क्या, अच्छा-खासा बंगला था शहर के बीचोबीच। रईस आदमी थे। उनके बाबा अंग्रेजों के जमाने के सरकारी वकील थे। पिता दो भाई थे। छोटा भाई संन्यासी हो गया था। मुखर्जी साहब इकलौते थे, लिहाज सारी धन-दौलत उन्हें विरासत में मिली थी। दरवाजा अप्सरा सी दिखती एक युवती ने खोला। इस तरह अचानक उसे देख कर मैं कुछ देर के लिए जडवत सा हो गया। उसकी आंखों में प्रश्नवाचक चिन्ह देख हडबडाकर बोला, 'समीर....समीर पाण्डेय, मुझे मुखर्जी साहब ने बुलाया था।' मेरी घबराहट देख कर उसके होंठों पर एक क्षीण मुस्कराहट की रेखा आकर चली गई। तभी भीतर से आवा•ा आई, 'कौन है वान्या...?' 'जी पाण्डेय जी हैं। दादा ने बुलाया है,' वह मेरी ओर देखती हुई बोली। मैंने देखा, मेरे सामने एक अन्य स्त्री आ गई थी। मैं समझ गया कि ये मिसेज मुखर्जी हैं। सांवली, चौडे दांतों वाली मोटी सी दिखती इस शालीन महिला ने पूछा, 'तुम समीर हो न...? अरे आओ... आओ...।' वह मुझे काफी मिलनसार लगीं। अब हम हॉलनुमा कमरे में बैठे थे। इस बीच वान्या कई बार कमरे में आई और गई। कभी चाय-नाश्ता लेकर तो कभी सफाई के सिलसिले में। फिर दोपहर के खाने के बारे में पूछने....। इतने समय में मैं यह तो जान गया कि वह हाउस हेल्पर है। मुखर्जी दंपती अच्छे मेजबान थे। वान्या ने खाना भी स्वादिष्ट बनाया था। पता नहीं, उसकी उदास नजरों में ऐसा क्या था कि मैं घर तो वापस आ गया था लेकिन लगता था जैसे अपनी कोई चीज पीछे छोड आया हूं। शायद इसी को दिल कहते हैं। वान्या मुझसे पांच-सात साल बडी थी लेकिन उसकी उदास आंखें, होंठों पर आती क्षीण मुस्कराहट मेरे दिल में बस गई थी। उस दिन के बाद मैं मुखर्जी साहब के और नजदीक आ गया। उन्होंने बताया कि वान्या उनके दूर के रिश्तेदार की बेटी थी। गरीबी के कारण वह पढ-लिख नहीं पाई। दस साल पहले वह उसे अपने घर लेकर आए थे, 'तब मेरा बेटा उत्पल दो साल का था। तुम्हारी भाभी वान्या को पसंद नहीं करती थीं क्योंकि ये है ही इतनी सुंदर। तुम्हारी भाभी को डर था कि कहीं मैं....,'वह बता रहे थे। इस दिन के बाद मुझे हमेशा मुखर्जी साहब के घर जाने की छटपटाहट रहने लगी। जी चाहता कि वान्या हमेशा मेरे सामने खडी रहे। उनका नन्हा बेटा उत्पल मेरे साथ घुल-मिल गया था। मुखर्जी साहब कोई काम बताते तो मेरे शरीर में मानो पंख लग जाते और मैं अपनी खटारा साइकिल से उडता हुआ वहां पहुंच जाता। हां, वान्या के चेहरे पर कोई भाव न देखता तो थोडी निराशा जरूर होती। मुखर्जी साहब बेटे उत्पल की पढाई-लिखाई और शैतानियों से लेकर पत्नी के मोटापे तक पर दिल खोल कर चर्चा करते। बताते, 'कभी तुम्हारी भाभी स्मार्ट हुआ करती थीं। अंग्रेजी साहित्य से पीएचडी किया है इन्होंने। प्रोफेसर बनना चाहती थीं पर मैंने मना कर दिया। अब देखो, थायरॉयड ने क्या हालत कर दी...।' ऑफिस में मुखर्जी साहब से मेरी निकटता लोगों को खटकने लगी थी। एक दिन हेड ने टोका भी, 'मुखर्जी के निजी मामलों से दूर रहो। उससे काम सीखो और बाकी समय अपनी परीक्षाओं की तैयारी में लगाओ।'मैं जानता था कि छह महीने बाद अप्रेंटिसशिप खत्म हो जाएगी। मुझे भविष्य के बारे में सोचना चाहिए लेकिन वान्या की याद आते ही मैं कल्पना-लोक में उडऩे लगता। अभी मैं 23 का था। सोचता था, नौकरी मिलते ही मैं मुखर्जी साहब से वान्या का हाथ मांग लूंगा। मैंने इस बीच कई परीक्षाएं दी थीं और मुझे भरोसा था कि कहीं न कहीं चयन हो जाएगा। यह जून का अंतिम सप्ताह था। माहौल में बेहद उमस थी। मुखर्जी साहब दो-तीन दिनों से परेशान चल रहे थे। बात करते-करते एकाएक खो जाते, भूल जाते कि क्या कह रहे हैं। दाढी बढ गई थी। चौथे दिन मैंने पूछ ही लिया, 'साहब सब ठीक तो है न...? परेशान दिख रहे हैं? अगर मैं आपके किसी काम आ सकूं...। 'उन्होंने पहले तो मुझे घूरा, मगर अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए से बोले, 'आओ समीर बाहर चलते हैं, खुली हवा में...।' शाम के चार बज रहे थे। बाहर बादल घिरे थे और कभी भी बरस सकते थे। उन्होंने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगा ली। लंबा कश खींचा और धुएं को कुछ देर मुंह में रखने के बाद बाहर उगल दिया। फिर बोले, 'समीर चंद महीनों में तुम मेरे बहुत करीब आ गए हो। सच बताऊं तो मैं खुद को यहां बहुत अकेला समझता था। तुमसे पहले भी कई लडके यहां आए और चले गए लेकिन तुम आए तो ऐसे लगा, जैसे मुझे मेरा छोटा भाई मिल गया हो। तुम मेरे दिल में बस गए हो...।' अपनी बात का असर देखने के लिए वह मेरा चेहरा पढऩे लगे। फिर बोले, 'समीर, मेरा सब कुछ नष्ट होने वाला है। मुझसे भारी गलती हो गई है। इंसान ही हूं, फिसल गया यार। मुझे पता थोडे ही था कि हादसा हो जाएगा...।' 'लेकिन हुआ क्या है सर?' मैंने पूछा तो वह गहरी सांस खींचकर बोले, 'तुम्हें बताया था न कि वान्या की विधवा मां एक स्कूल में आया थी। वह अपने मंदबुद्धि बेटे को ही नहीं पाल पा रही थी, इसलिए मैं वान्या को यहां ले आया कि इसके हाथ पीले कर दूंगा...मगर अब ऐसी मुसीबत हो गई कि...।' मैं चौंक गया, 'वान्या? उसे क्या हो गया?' 'उसके पांव भारी हो गए हैं। समीर, मैं हमेशा सावधानी रखता था। पता नहीं, इस बार कहां चूक हो गई...,' वह हांफने लगे थे। मेरे सामने लोहे की रॉड पडी थी, मन तो किया कि इस कमीने को तब तक मारूं, जब तक कि इसका भेजा बाहर न निकल जाए...। यह आदमी संरक्षक बन कर पितृहीन लडकी को घर ले आया और उसका दैहिक शोषण कर रहा है? और लडकी चुपचाप सहन कर रही है? 'क्या सोच रहे हो समीर..? जो होना था, वह तो हो चुका है। अब करें क्या, यह समझना है। देखो, मैंने एक डॉक्टर से बात कर ली है लेकिन मैं उसे लेकर नहीं जा सकता, तुम्हारी भाभी को शक हो जाएगा। तुम ले जाओ उसे, जीवन भर एहसान मानूंगा।' वान्या के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। उस रात मैं बेचैनी में करवटें बदलता रहा। मुखर्जी मुझे बचपन की कहानियों के राक्षस जैसा लगा, जो राजकुमारी को पिंजडे में कैद कर लेता है। बाद में कोई राजकुमार आता है और राक्षस को मार कर राजकुमारी को आजाद कर देता है। वान्या की जिंदगी में कोई राजकुमार नहीं। मैं भी...इस दस बाई दस के कमरे में पिछले दस महीने से रह रहा था। एक चारपाई, कुछ बर्तन और अच्छे भविष्य की कल्पना...बस। अगले दिन मुखर्जी के बताए अनुसार मैं उनके घर के सामने वाले पार्क में सुबह दस बजे पहुंच गया। थोडी ही देर में वान्या वहां आ गई। हम पहली बार साथ थे। वह पूरे रास्ते खामोश रही। क्लिनिक में डॉक्टर ने वान्या को बगल के रूम में लिटा दिया और मुझसे कहा, 'आप बाहर बैठें, इसमें थोडा समय लगेगा।' आधे घंटे बाद ही मुझे अंदर बुला लिया गया। वान्या स्ट्रेचर पर थी। उसका पूरा चेहरा पीला सा और निरीह लग रहा था। मेरी आंखों में आंसू आ गए, जो उससे छिपे नहीं रहे। 'दो महीने से ज्यादा हो गए थे लेकिन घबराने की कोई बात नहीं है...,' डॉक्टर ने कुछ दवाएं मुझे पकडाते हुए कहा। वान्या के एक तरफ नर्स और दूसरी तरफ मैं था। उसकी बांह मेरे गले में लिपटी थी। वह तडप रही थी और मैं कुछ नहीं कर सकता था। मैं बगल में बैठा तो उसने अपना सिर मेरे कंधे पर रख दिया। रास्ते में वह बहुत धीमे स्वर में बोली, 'प्यार करते हो न मुझे? मगर मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं...।' मैं उसकी बातें सुन कर दहल गया। ...तो यह एकतरफा प्यार नहीं था। हम इतने विवश थे कि भावनाओं को शब्द तक नहीं दे सकते थे।हम घर पहुंच चुके थे। वान्या ने अपने जबडे भींचे और रिक्शे से उतर कर लडख़डाती हुई धीरे-धीरे घर में घुस गई...।मैं बहुत थक चुका था। इस शहर से ही मेरा मन उचाट हो चला था। मन किया कि सीधे बस स्टेशन चला जाऊं और वहां से गांव के लिए बस ले लूं। मुझे देख कर मां खुश हो गईं। गांव आते ही मेरे भी अच्छे दिन आ गए। मां ने मुझे एक लैटर थमाया। उसे खोला तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। सिंचाई विभाग से मेरा नियुक्तिपत्र आया था। मुझे 15 दिन के भीतर सारे दस्तावेज विभाग में जमा कराने थे। मैं औपचारिकताएं पूरी करके शहर लौटना चाहता था ताकि वान्या को उस नरक से निकाल सकूं लेकिन इस प्रक्रिया में मुझे 10 दिन लग गए। लौटा तो पता चला, मुखर्जी साहब एक फैमिली फंक्शन में गए हैं। उनके घर गया तो ताला लटका मिला। एक हफ्ते बाद मुखर्जी साहब लौट आए लेकिन उनका व्यवहार औपचारिक था। नौकरी के बारे में सुन कर भी रूखे ढंग से बधाई दी। दबी जुबान से मैंने वान्या के बारे में पूछा तो बोले, 'अपने काम से काम रखें मिस्टर समीर।'इसके बावजूद मैं उनके घर चला गया। घंटी बजाई तो एक युवती ने दरवाजा खोला। मेरे जेहन में पहला सवाल कौंधा, वान्या कहां है? तभी मैडम निकलीं, 'समीर तुम? इतने बडे कांड के बाद भी घर आ गए? शर्म नहीं आई तुम्हें भोली-भाली लडकी के जीवन से खेलते...?' मैं हतप्रभ होकर बोला, 'क्या कह रही हैं आप? वान्या कहां है? मैंने किया क्या है?' मगर मैडम ने मेरी बात नहीं सुनी और गुस्से में मेरे ही मुंह पर दरवाजा बंद कर लिया। अगले दिन मुखर्जी साहब ऑफिस के गेट पर मिले और दांत पीसते हुए बोले, 'अबे मेरे घर क्या करने गया था? दोबारा गया तो समझ ले मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।' मगर अब बारी मेरी थी। बोल पडा, 'मुखर्जी साहब, अब आप हद पार रहे हैं। मेरी शराफत की परीक्षा ले रहे हैं? सब कुछ सच-सच बताइए वर्ना आपकी इज्ज्त दो कौडी कर दूंगा। दौडा-दौडा कर मारूंगा। मुझे बताइए कि वान्या कहां है और आपने ऐसा क्या कहा कि मिसेज मुखर्जी मुझ पर गुस्सा हैं...?' मुखर्जी ने शायद मेरे ऐसे रूप की कल्पना नहीं की थी। उसका चेहरा पीला हो गया और उसने जो बताया, वह मेरे लिए बेहद पीडादायक था। 'उस दिन वान्या घर लौटी तो उसकी हालत खराब थी। उसे मैंने कहा था कि एक्सीडेंट का बहाना करे लेकिन वह रोने लगी। उसने गर्भपात कराने की बात कह दी और बताया कि तुम ही उसे डॉक्टर तक ले गए। बाकी की कहानी मिसेज मुखर्जी ने खुद गढ ली। वान्या सब कुछ बताना चाहती थी लेकिन मिसेज ने इतना घुडक दिया कि वह कुछ बोल ही नहीं पाई। मैंने उसे समझाया। जैसे ही उसकी हालत सुधरी, हम उसे उसके घर छोड आए...।' फिर शांत स्वर में मिस्टर मुखर्जी बोले, 'प्लीज अब बात को खत्म कर दो। भूल जाओ उसे। उस जैसी लडकियों का कोई भविष्य नहीं होता...तुम इस शहर से चले जाओ।' मैं अब खुद को नहीं रोक पा रहा था। मेरा हाथ खुद ब खुद आगे बढा और सीधे मुखर्जी के गाल पर पडा। इसके बाद मैं एक सेकंड भी न रुका, आगे बढता गया। मुझे मालूम था,वान्या अब मुझे कभी नहीं मिलेगी...।
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