सच तो यह है
हमारी नजरें जो देखती हैं, हमेशा वह सच नहीं होता। यह कहानी भी सच्चाई के करीब है, जिसे मैंने कहीं ढूंढा था।
कहानी के बारे में : कहानियां हमारे आसपास बिखरी रहती हैं। कई बार पूर्वाग्रह स्थितियों और लोगों को वास्तविकता में नहीं देखने देते। हमारी नजरें जो देखती हैं, हमेशा वह सच नहीं होता। यह कहानी भी सच्चाई के करीब है, जिसे मैंने कहीं ढूंढा था। कहानीकार के बारे में : कई काव्य व कहानी संकलनों के अलावा डायरी व यात्रा संस्मरण प्रकाशित। आकाशवाणी से कविता-कहानी एवं वार्ताओं का प्रसारण, पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। बाल साहित्य में विशेष रुचि। पुरस्कार व सम्मान प्राप्त। संप्रति : एलआईसी में प्रशासनिक अधिकारी, अंबिकापुर, छत्तीसगढ।
त्ता देनी हां... इस हिमाचली लोकगीत की मधुर धुन मनाली से धर्मशाला की बस यात्रा में हमारे आनंद को दुगना कर रही थी। आगे की सीट पर बैठे हम पहाडी सडकों की ऊंचाई और गहराई का अनुमान पहले से लगा लेते थे। ड्राइवर सधे हाथों से बस चला रहा था। धर्मशाला पहुंचते-पहुंचते सूरज ढल चुका था। छोटा-सा बस स्टैंड धर्मशाला कस्बे का एहसास करवा गया। दिनेश ने मुस्तैदी से बस से सामान उतारा। भव्या ने नीचे छलांग लगाई तो मैं भी पांच साल की बिटिया दिव्या को लेकर कूद पडी। हम सब एक साथ हंसने लगे। परिवार के साथ घूमने की बात ही कुछ और होती है। इतनी लंबी यात्रा के बाद भी हम ऊर्जावान थे। वैसे भी नई जगह को देखने का जुनून हमारे भीतर जोश भर देता है। दिनेश ने कंधे पर बैग टांगा और हाथ से ट्रॉली बैग खींचते हुए एक नजर चारों तरफ घुमाई और मुख्य सडक पर चल दिए। भव्या ने भी एक छोटा बैग कंधे पर डाल लिया और पापा का पीछा करने लगी। मैं नन्ही दिव्या को कभी गोद में तो कभी पैदल-पैदल चला रही थी।
होटल का रास्ता पूछते-पूछते हम पैदल जा रहे थे। दिनेश रास्ता पकडऩे में बेहद माहिर हैं। वह कभी पहले से होटल बुक नहीं कराते, न किसी एजेंसी का सहारा लेते हैं। उन्हें लगता है, पता नहीं बुक कराया गया होटल शहर के किस कोने पर होगा, उसमें सब कुछ ठीक से मिलेगा या नहीं....। एकाध घंटे पैदल चलने के बाद अकसर ठीक-ठाक होटल भी मिल जाता है। वह अकसर हमें रेलवे स्टेशन या किसी पार्क में बिठा कर होटल खोजने चल देते हैं। इस बार बस स्टैंड से बाहर निकलते ही दूर पहाडी पर एक होटल नजर आ रहा था।
गुलाबी रंग की दीवारों पर मैरून पट्टियों से सजा होटल आकर्षक लग रहा था। दिनेश तेजी से चल रहे थे मगर भव्या और दिव्या के साथ मैं काफी पिछड चुकी थी। दिनेश भी... बेवजह पैदल चलवा देते हैं। कम से कम सामान के लिए तो किसी को बुला लेते...मुझे उन पर क्रोध आने लगा था। खैर कुछ ही मिनट बाद उखडती सांसों के साथ हम उस होटल के रिसेप्शन पर पहुंच गए थे। दिनेश ने पहले कमरे देखने की इच्छा जताई और होटल स्टाफ के साथ चले गए। पांच मिनट बाद लौटे तो उनके हाथ में कमरे की चाबी थी। अच्छा है, होटल में और परिवार भी रुके हुए हैं। कमरा काफी साफ-सुथरा था, जिसने आधी थकान कम कर दी। अच्छा है कि दिनेश के एडवेंचरस मूड का नतीजा बेहतर निकला...अगर होटल न मिलता या बेकार मिलता तो...?
थकान काफी हावी हो चुकी थी। हमने हलका-फुलका खाना खाया और जल्दी ही सो गए। सुबह सूरज की किरणें खिडकी से छन कर अंदर आने लगीं तो हम जागे। बगल वाले कमरे से बच्चों की आवाजें हमारे कमरे में आ रही थीं। मैं अपने कमरे की बैलकनी में आई तो बगल वाले कमरे में ठहरने वाले परिवार की झलक मिली। मैंने मुस्कुरा कर बच्चों से पूछा, 'तुम लोग कहां से आए हो? 'दिल्ली से...
'आज कहां-कहां घूमने जाओगे? दरअसल मैंने इस गरज से पूछा था कि अगर वे लोग भी हमारी वाली जगह पर ही जा रहे हों तो हम गाडी शेयर कर सकते हैं। मैंने दोबारा पूछा,'तुम्हारी मम्मी कहां हैं? 'नहा रही हैं... 'और पापा...? 'अंदर सो रहे हैं... शायद शेयरिंग वाली बात नहीं हो पाएगी।
बच्चों में एक लडकी थी लगभग 10 वर्ष की, दूसरी 7-8 साल की थी और एक छोटा सा लडका था। आज दिनेश ने मक्लोडगंज का कार्यक्रम बनाया था। हम सब तैयार हो गए थे। वहां दलाई लामा के यहां एक दिन रहस्यमय शांति में गुजरा और सूरज छिपने से पहले ही हम वापस होटल लौट आए। कमरे में आकर थोडा आराम किया और शाम को धर्मशाला की सडकों पर पैदल घूमने निकल पडे। एक ढाबे में खाना खाने घुसे तो बगल के कमरे वाले बच्चे फिर नजर आ गए। नजर आसपास दौडाई तो काउंटर पर खूबसूरत सी स्त्री दिखी, जो शायद इन बच्चों की मां थी और उनके लिए खाने का ऑर्डर दे रही थी।
..तो क्या यह अकेली घूमने आई है...? अकेली स्त्री को देख कर बेसाख्ता सबके मन में यही सवाल पैदा होता है। मैं भी अलग नहीं थी। यह भी तो हो सकता है कि इसके पति की तबीयत ठीक न हो या वह आलसी हो....। मन ने कई तरह की कहानियां बनानी शुरू कर दी थीं। तब तक दिनेश भव्या और नव्या के साथ एक कोने में सीट ले चुके थे। मैंने दिनेश को इशारों से बताया, 'देखो, वह भी उसी होटल में ठहरी है...मगर मैंने इनके पापा को अब तक नहीं देखा।
दिनेश भी अपनी रौ में बोल पडे, 'हां! यह भी तो हो सकता है कि नशा करता हो...उसी धुन में पडा रहता हो...। कई लोगों के लिए तो टूरिस्ट प्लेस में मौज-मस्ती का मतलब ही यही है। दिनेश की बातों से मेरा मन दुखी हो गया और फिर मैंने उस परिवार से गाडी तो क्या, किसी भी तरह की शेयरिंग की बात सोचनी छोड दी। अगली सुबह बैलकनी में फिर बच्चे दिखाई दिए। मैंने कई संदेह मन में छुपाकर पूछा- 'क्या नाम है तुम्हारा? 'सोनल, बडी लडकी ने संजीदा होकर कहा। 'और तुम्हारा... 'कोमल, छोटी ने मस्ती से जवाब दिया। छोटा रेलिंग पर झूलता हुआ खुद बोल पडा, 'मेरा नाम विश्वास है। 'अरे वाह... और आपकी मम्मा कहां है? 'अंदर हैं...., उसी ने जवाब दिया। 'और पापा...? 'वो तो सो रहे हैं...।
मैं बातचीत का सिरा पकडऩा चाह रही थी। 'तुम्हारे पापा क्या करते हैं? इस बार मैं मुद्दे पर आ गई थी। 'आर्मी में लेफ्टिनेंट हैं...., उसने तपाक से जवाब दिया। 'अच्छा, आज आप लोग कहां-कहां घूमोगे? 'पता नहीं.... कोमल बोली थी। तभी अंदर से उनकी मां की आवाज आई, 'जल्दी से नहा लो बच्चों... बच्चे भागते हुए अंदर गए तो मैं भी अपने कमरे में आ गई। दिनेश ने चामुंडा जाने का कार्यक्रम बनाया था। तैयार होकर हमने एक छोटा सा बैग उठाया और चल दिए। बस स्टैंड पास ही था और चामुंडा जाने के लिए बस तैयार थी।
प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर 15 किलोमीटर का रास्ता कैसे निकला, पता ही नहीं चला। मंदिर से बाहर निकले तो सामने छोटी-सी पहाडी नदी दिखी और हम उधर बढ गए। नहाने का मन तो बहुत था मगर हम अतिरिक्त कपडे नहीं लाए थे। मैंने दिनेश की तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा कि उन्होंने पहले क्यों नहीं बताया कि यहां नहाने का आनंद लिया जा सकता है। दिनेश ने अपराधी सा चेहरा बनाते हुए नजरें चुरा लीं। कभी-कभी वह महत्वपूर्ण बातों को उपेक्षित सा बना देते हैं। भव्या और नव्या नहाने के लिए मचलने लगी थीं। मैं उन्हें लेकर पानी की तरफ बढ गई कि पानी में पैर तो डुबोए ही जा सकते हैं। 'मम्मी वो देखो! अपने होटल वाली आंटी..
नन्ही नव्या बोली। सामने फिर से वही बगल वाला परिवार दिख रहा था। बच्चे नहा रहे थे। मैंने आसपास गहरी नजर डाली कि आज तो जरूर इसका पति भी साथ होगा। बच्चों से मिलने के बहाने मैं वहां तक चली गई। बच्चे मुझे देख कर आंटी-आंटी चिल्लाने लगे तो उनकी मम्मी ने भी मुड कर फीकी मुस्कान के साथ मुझे देखा। मैंने सकपकाते हुए कहा, 'हमें तो मालूम भी नहीं था कि यहां नदी है...। अब बच्चे जिद करने लगे तो यहां आना पड गया।
'आप पहली बार आई हैं? उसके प्रश्न ने मुझे हैरत में डाल दिया, टूरिस्ट प्लेस पर क्या लोग बार-बार आते हैं? हालांकि कुछ लोग ऐसे होते होंगे, मैंने मन ही मन सोचा, कहा कुछ नहीं। 'हां! हम हर बार नई जगह घूमने जाते हैं..., मैंने कहा तो उसकी निस्तेज आंखें जीवंत हो उठीं। 'कोई बात नहीं! मैं एक्स्ट्रा कपडे लाई हूं बच्चों के...आप नहा लेने दें उन्हें।
वो मुझे परिचित मानकर आग्रह कर रही थी। उसे मालूम था कि हम एक ही होटल में रुके हैं और होटल पहुंच कर कपडे वापस हो जाएंगे। मैंने देखा कि वह पत्थर पर इस तरह बैठी थी कि नदी की कोई लहर भी उसे नहीं छू पा रही थी जबकि मैं वहां तक पहुंचने में ही आधी गीली हो चुकी थी। 'भाई साहब कहां हैं?
मेरा इशारा उसके पति की तरफ था, जिसके बारे में जानने की उत्कंठा मुझे कुछ ज्यादा ही हो रही थी। 'ओह....आपका मतलब मेरे पति? वो तो अब नहीं हैं दुनिया में..., यह कहते हुए उसकी जीवंत आंखें निस्तेज सी हो आई थीं। मैं कल-कल नदी में अपने कदम संभाल नहीं पाई और किसी तरह पत्थर को मजबूती से पकडा, तब जाकर गिरने से बची वर्ना तो पानी की तेज गति मुझे गिरा ही देती। मगर वह पत्थर पर इस तरह बैठी थी, जैसे बरसों से वहां बैठी हो। हे ईश्वर! क्या सोचा और क्या निकला! ओह....तभी वह अपने बच्चों के साथ अकेले घूमने निकली है।
तब तक उसने बैग से दो जोडी कपडे निकाल कर मुझे दे दिए। मैंने उसे धन्यवाद देकर भारी मन से पीछे खडे बच्चों और दिनेश की ओर देखा और वहां लौट आई। दिनेश को भी बेहद अफसोस हुआ कि हम कितना गलत सोच रहे थे उसके बारे में। भव्या-नव्या खूब नहाईं और शाम तक हम अपने होटल में लौट आए। होटल पहुंच कर कपडे लौटाने के बहाने कुछ और जानने का प्रलोभन मैं नहीं छुपा पा रही थी। उनके कमरे में अभी भी ताला था और मेरे कान उधर ही लगे थे कि कब ताला खुले और मैं वहां जाऊं।
एक आहट पर ही मैं वहां जाने को खडी हुई तो दिनेश बोले, 'क्या करती हो? अभी तुरंत आए हैं वे लोग...जरा आराम तो कर लेने दो उन्हें, फिर चली जाना कपडे देने। इतनी जल्दी क्या है? दिनेश क्या जानें कि मेरे मन में क्या चल रहा था। तीन बच्चों के साथ अकेले किसी स्त्री का टूरिस्ट प्लेस पर निकलना मुझे हैरान कर रहा था। थोडी ही देर में मैं उनके कमरे में थी।
उसने सम्मान से दरवाजा खोला और कपडों के लिए शुक्रिया कहते हुए मैंने बैठने की जगह ढूंढ ली। वह हौले से मुस्कुरा दी। मैंने बैठने के बाद कहा, 'आपका नाम क्या है? 'आरती, वह काफी सहज दिख रही थी। मैं जानती थी कि ऐसा नहीं करना चाहिए, फिर भी पूछ बैठी, 'बुरा न मानें तो क्या मैं पूछ सकती हूं कि आपके पति को वास्तव में हुआ क्या था?
'जी, वह आठ साल पहले धर्मशाला आए थे दोस्तों के साथ घूमने। तब मेरा छोटा बेटा होने वाला था। दलाई लामा का जन्मदिन था...। इन दिनों पूरा उत्सव होता है यहां। यहां से लौटते हुए एक एक्सीडेंट हुआ और कार कई फुट गहरी खाई में गिर गई, बस...। उसका गला रुंध गया था और वह बोल नहीं पा रही थी। मैंने हौले से अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया। उसके बच्चे भी चुप हो गए थे। पल भर में ही कमरे में सन्नाटा सा छा गया। फिर वह बोली, 'मुझे उस समय कुछ बताया नहीं गया क्योंकि बेटा होने वाला था। बाद में पता चला मगर मैं क्या कर सकती थी? होनी को यही मंजूर था। मेरी आंखें भीगने लगीं लेकिन उसकी आंखों में नमी नहीं थी। न जाने कितनी बार बरसी होगी यह नदी कि बरसना भी भूल गई है।
'पिछले कई सालों से इन दिनों यहां आती हूं अपने पति के निशान ढूंढने। उस घाटी तक जाती हूं, जहां उनकी कार गिरी थी। उनकी आवाज....उनकी आखिरी चीखें सुनने की कोशिश करती हूं यहां-वहां, शायद कुछ मिल जाए...शायद उन्होंने मेरे लिए कोई संदेश छोडा हो कहीं। उसके जवाब के बाद कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत न हुई। 'मगर बच्चों ने तो मुझसे कहा कि पापा अंदर सो रहे हैं...वह आर्मी में हैं...।
'हां, डर लगता है न...। जब भी कभी होटल में रुकती हूं तो बच्चों को सिखा देती हूं कि कोई भी पापा के बारे में पूछे तो यही बताएं। लोगों को यह न लगे कि हम अकेले हैं। इसीलिए मैं किसी विवाहित स्त्री की ही तरह सुहाग चिह्न भी पहनती हूं। वैसे, हमेशा इसी होटल में ठहरती हूं मैं, यहां का स्टाफ अच्छी तरह पहचानता है मुझे। उसने अपना पर्स खोला और अपने पति की फोटो दिखाई। बच्चे भी पापा की फोटो के आगे झुक गए। मैं उनकी भावनाओं के आगे नतमस्तक थी। मुझे अब अपनी छोटी सोच पर शर्म आ रही थी। भारी मन से उसके कमरे से उठी तो न जाने मन में क्या चल रहा था। दिनेश को सब कुछ जल्दी बता देना चाहती थी...।