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फै सला

स्थितियों को नियति समझ कर स्वीकार कर लेने से कभी-कभी जिंदगी थोड़ी आसान हो जाती है। मगर जीवन में फैसले लेना इतना आसान नहीं होता। तलाक के एक मामले की पैरवी करते सदाव्रत के लिए भी फैसला लेना मुश्किल था। कलम वादी के पक्ष में फैसला दे रही थी और

By Edited By: Published: Thu, 25 Jun 2015 03:55 PM (IST)Updated: Thu, 25 Jun 2015 03:55 PM (IST)
फै सला

स्थितियों को नियति समझ कर स्वीकार कर लेने से कभी-कभी जिंदगी थोडी आसान हो जाती है। मगर जीवन में फैसले लेना इतना आसान नहीं होता। तलाक के एक मामले की पैरवी करते सदाव्रत के लिए भी फैसला लेना मुश्किल था। कलम वादी के पक्ष में फैसला दे रही थी और वह खुद प्रतिवादी के पक्ष में थे।

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आजकल वह बेचैन हैं। फेमिली कोर्ट में चल रहे तलाक के मामले की सुनवाई उन्हें परेशान कर रही है। इसके बावजूद गवाहों और साक्ष्य पर सजगता से ध्यान देते हुए वह फैसला करते हैं। यह पहला मौका है, जब उन्हें लग रहा है कि उनका फैसला ग्ालत होगा।

वादी कह रहा था, 'सर, इस सिरफिरी औरत के साथ रहने की तीन साल कोशिश की है मैंने। अब पागल हो जाऊंगा।

'मगर ये पागल नहीं, सुस्त हैं।

उन्होंने कहा वादी से और देखा प्रतिवादिनी को। प्रतिवादिनी उन्हें ही देख रही थी। वह अचकचा गए। इस स्त्री की आंखें उनकी पत्नी मनोकामना से कितनी मिलती हैं। ख्ाालीपन लिए हुए मासूम चितवन। लगा वह कुछ कहना चाहती है। वादी फिर बोला,

'इसके मां-बाप ने धोखे से हमारा ब्याह कर दिया। जब इस मंदबुद्धि को इसके जन्मदाता ने ही नहीं रखा तो मैं कैसे रख सकता हंू? सर ज्िांदगी एक बार मिलती है। मैं एक रिश्ते के लिए इसे तबाह नहीं कर सकता।

प्रबल इच्छा है कि उससे पूछें, 'आपके साथ धोखा हुआ है? आपको किसने छला? इसके माता-पिता ने या आपके माता-पिता ने? क्या आपके घर वालों को इसके मंद बुद्धि होने की जानकारी थी? क्या इसके समर्थ मामा ने आपको और आपके भाइयों को बडे पद दिलाए हैं? परिवार के लिए तो विकास के रास्ते खुले, जबकि आपके हिस्से आई कमज्ाोर दिमाग्ा वाली स्त्री...? वे बेचैन हैं। न्यायाधीशी गरिमा और गंभीरता का ख्ायाल रखते हुए वादी से ऐसे प्रश्न नहीं कर सकते। लेकिन हैरान हैं कि वादी ने इतना बडा निर्णय कैसे ले लिया। उन्होंने फिर प्रतिवादिनी की तरफ देखा। वह निरपराध है। वह अपने लिए फैसला ले ही नहीं पाती होगी। दूसरों ने इसके लिए फैसले लिए होंगे, जिनके सही या ग्ालत होने के बारे में भी उसे समझ नहीं होगी या फिर वह विरोध करने की स्थिति में नहीं होगी। उनकी पत्नी मनोकामना के साथ भी यही हुआ। मनोकामना ग्ालतियां करती है, वह दुत्कार देते हैं। सहम कर वह निर्दोष नज्ार से उन्हें देखने लगती है। वे क्रोध को पी जातेे हैं। इसी ऊहापोह में मनोकामना के साथ तीस साल गुज्ाार दिए उन्होंने।

तीस साल पहले वह ऐसे छात्र थे, जिसका मन पढाई में नहीं लगता था। पूरक परीक्षाएं देते हुए कानून की परीक्षा दी। बेरोज्ागारी के दिनों में अम्मा ने उन्हें बताया, 'सदाव्रत, हम तो सोचते थे कि बेरोज्ागार लडके की शादी कैसे होगी। मगर यहां तो अच्छी गोटी बैठ गई। देखो, लडकी कितनी सुंदर है। एम.ए. पास है। इसके चाचा कानून मंत्री है।

उन्हें शक हुआ, पूछ बैठे, 'अम्मा, बडे घर की यह लडकी तुम्हारे बेरोज्ागार बेटे को निजी सचिव बनाएगी।

अम्मा हंसीं, 'निजी सचिव नहीं, मैजिस्ट्रेट बनोगे। हम मनोकामना को देखने जा रहे हैं।

कुछ तारीख्ों महज्ा तारीख्ों नहीं होतीं। संपूर्ण जीवन का फलादेश बन जाती हैं। वे पहली रात ही समझ गए कि माता-पिता ने ऐसी लडकी उन पर थोप दी है, जिसका मानसिक विकास मंद है। उनकी दुलहन ने भीषण गर्मी में दो ब्लाउज्ा पहन रखे थे। पूछा, 'इस गर्मी में दो ब्लाउज्ा क्यों पहने हैं? तो जवाब मिला 'डर लग रहा है...

'एम.ए. हिंदी साहित्य में किया है न!

'प्रथम श्रेणी से। चाचाजी कॉपी बनवाते थे।

'बेवकूफ हो? इस सवाल पर मनोकामना घबरा गई। सदाव्रत सब समझ गए। वह बीवी से दूर भागते मगर छोटे भाइयों देवव्रत-देशव्रत को नई भाभी की संगत अच्छी लगती थी। उनसे बातें करती वह ख्ाूब हंसती, लेकिन उसका हंसना भिन्न होता। उसके मायके से आने वाली सौग्ाातों में अम्मा की बहुत रुचि थी। लेकिन नई बहू की हंसी चुभती थी। एक बार तमक कर कमरे में आईं, 'सदा, तुम सो रहे हो और दुलहिन को देखो, पिताजी का भी लिहाज नहीं, कैसे हंस रही है।

वह वेग से उठे, 'देश, देव तुम पढते क्यों नहीं? और तुम... तुम गंवारों की तरह क्यों हंस रही हो? कमरे में जाओ। उन पर कातर नज्ार डाल कर मनोकामना कमरे में चली गई थी। अम्मा ने पीडा जताई, 'न किचन का काम जानती है, न सीखना चाहती है। सदा इसे थोडी सभ्यता तो सिखाओ।

'तुम सिखाओ अम्मा। तुम्हारी पसंद की है।

'तो क्या तुम्हें इससे परेशानी नहीं है?

'नहीं, ऐसा जवाब देकर वे बताना चाहते थे कि उनकी अपराधी मनोकामना नहीं, अम्मा-पिताजी हैं। मनोकामना को स्वीकारने में उन्हें अम्मा-पिताजी से बदला लेने जैसा एहसास मिल रहा था। वे मानसिक प्रताडऩा से गुज्ार रहे हैं तो अपराध बोध से अम्मा-पिताजी भी नहीं बच सकते। वे ख्ाुद को मज्ाबूत करने लगे। नियति को स्वीकार कर लें तो पत्नी के साथ जीवन जी सकेंगे।

जल्दी ही वे सिविल जज के लिए सिलेक्ट हो गए। सोच भी नहीं सकते थे कि इंटरव्यू में जिसने एक सवाल का भी सही जवाब न दिया हो, वह मैजिस्ट्रेट बन जाएगा। अम्मा हुलस कर कह रही थीं, 'दुलहिन के चाचा जी ज्ाबान के पक्के हैं। सदा को जज बना दिया। देव एलएलबी कर रहा है, बीए के बाद देश भी कर ले तो 'जज्जी पक्की समझो।

सुदूर निमाड में उन्हें पहली पोस्टिंग मिली।

अम्मा बोलीं, 'सदा इसे न ले जाओ। न घर की देखभाल कर सकेगी-न तुम्हारी।

'ये तो शादी से पहले सोचना था। जो होगा, देखा जाएगा। इसे यहां किस भरोसे छोडूं?

अम्मा ने झट बात बदली, 'सदा, हमारे कारण ही जज बन गए हो, वर्ना ख्ााली रहते।

'तब तो इसके प्रति जवाबदेही बढ गई न?

निमाड की छोटी सी तहसील में वे पत्नी के साथ रहने का उद्यम करने लगे। डरी-सहमी मनोकामना बिस्तर पर पडी रहती। कभी धीमी आवाज्ा में ख्ाुद से बतियाती, कभी मेड के साथ खुलकर हंसती। वे डांटते तो प्रतिक्रिया न देकर निरपराध नज्ारों से उन्हें देखती। तेज्ा बोलते तो वह सहम कर तत्काल आदेश का पालन करती। अनजान के लिए दरवाज्ाा न खोले, समझा कर वह कचहरी चले जाते। जानते थे, मनोकामना दरवाज्ाा बंद कर ख्ाुद से बातें करते हुए सो जाएगी या आंगन में पक्षियों को देखेगी, फिर भी लगता कि शाम को घर पहुंचेंगे तो अनहोनी मिलेगी। लगातार अनचाहे दबाव में घिरे रहते। कई बार लगता कि कहीं वह मनोकामना जैसे न बन जाएं।

छोटी जगह पर अधिकारियों के बारे में सूचनाएं तेज्ाी से फैलती हैं।

बाईजी का दिमाग्ाठीक नहीं है... बाई जी पैसा संभालना नहीं जानतीं...बाईजी शादी से पहले ऐसी थीं या बाद में हुई?

कोई सीधे पूछता तो जवाब देते, 'हां, वह थोडी सुस्त है। बहुत लोग हैं, जो किन्हीं वजहों से परेशान हैं, मगर वे हमारे समाज का हिस्सा हैं। मनोकामना को सहयोग करना मुझे अच्छा लगता है। यह कह कर वे ख्ाुद को साबित नहीं करना चाहते थे, बस अपनी स्थिति को कमज्ाोर ज्ााहिर नहीं करना चाहते थे। चिंतित रहते थे कि कब तक रिश्तों को बचाए रख सकेंगे। मनोकामना के गर्भवती होने पर उनकी चिंताएं बढ गईं। मनोकामना ग्ालती कर बैठी तो गर्भस्थ शिशु को आघात पहुंचेगा। अम्मा पर भरोसा नहीं था। उसे उसकी मां के पास छोड आए। मां आश्वस्त दिखीं। कृतज्ञ मां ने कहा, 'अच्छा हुआ कि इसे तुम यहां ले आए। यहां देखभाल ठीक से हो सकेगी। सीधी लडकी है। ग्ालती करती है पर प्रेम से समझाने पर समझ जाती है।

चलने लगे तो एकाएक मनोकामना सामने आ गई, 'मैं बुरी हंू? बेवकूफ हूं?

मनोकामना उन्हें उसी तरह देख रही थी, जिस तरह प्रतिवादिनी देखती है।

'नहीं, तुम अच्छी हो।

'फिर कब आएंगे? मुझे छोड तो नहीं देंगे?

वह चकित रह गए। तो क्या लोगों की बातें इस तक पहुंचती रही हैं?

'जल्दी आऊंगा। तुम अपना ध्यान रखना।

बेटा हुआ तो वह छुट्टी लेकर आए। डॉक्टर से मिलते ही पूछा, 'बच्चा मानसिक रूप से तो स्वस्थ है न?

'हां मगर क्यों पूछ रहे हैं आप? डॉक्टर के सवाल को उन्होंने टाल दिया। पुत्र का नाम सत्यव्रत रखा। कुछ दिन बाद वह काम पर लौट गए। सत्यव्रत छह महीने का हुआ तो मनोकामना को लेने गए। वापसी पर सास उपहार देने लगीं तो मना किया, 'कुछ नहीं ले जाऊंगा। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता।

वे दो-चार दिन अपने घर रहे। बच्चे के जन्म पर अम्मा को काफी माल मिलने की उम्मीद थी। बोलीं, 'दुलहिन की जचगी यहां होती सदा, पर तुमने ससुराल वालों पर भरोसा किया। देखो, दुलहिन ख्ााली हाथ आई है। पहले इसलिए देते थे कि कहीं तुम इसे छोड न दो। अब इतना कर रहे हो तो क्यों दें वे?

अम्मा को हताश देख उन्हें विचित्र सा संतोष मिल रहा था, 'वे तो न जाने क्या-क्या दे रहे थे, मैं कुछ नहीं लाया। भगवान ने मुझे स्वस्थ बच्चा दिया, और कुछ नहीं चाहिए।

'दुलहिन बच्चा कैसे पालेगी?

'मैं पालूंगा अम्मा।

सत्यव्रत का लालन-पालन उन्होंने ही किया। रात में मनोकामना बेसुध सोती। वे बच्चे को गोद में लेकर टहलाते। उसे दूध पिलाते। उसे पत्नी के पास छोडकर जाते हुए सशंकित रहते लेकिन मेड नहीं रखते थे कि मनोकामना को बेवकूफ बना कर कोई घटना न कर दे।

एक दिन देखा कि पांच साल के सत्यव्रत का हाथ स्ट्रीट डॉग के मुंह में है। उन्होंने पत्थर मार कर कुत्ते को भगाया और रोते हुए सत्यव्रत को गोद में ले लिया। बच्चा बताने लगा कि वह तो कुत्ते को बिस्किट खिलाना चाहता था, लेकिन कुत्ते ने हाथ ही मुंह में दाब लिया। उसके हाथ से रक्त छलक आया था। उन्होंने ईश्वर का धन्यवाद किया कि कोई बडा घाव नहीं हुआ। सत्यव्रत को गोद में लिए हांफते हुए वे मनोकामना के सामने खडे हो गए थे, 'तुम सचमुच पागल हो।

पति की चीख सुनकर वह रोने लगी।

'इतनी लापरवाही... तुम मर क्यों नहीं जातीं? किसी दिन मैं सत्यव्रत को खो दूंगा।

सत्यव्रत को वहीं बिठा कर वह ग्ाुस्से में मनोकामना की गर्दन मरोडऩे लगे थे। उनकी पकड कमज्ाोर थी या मनोकामना अपनी रक्षा करना जानती थी, वह बरामदे में भागी और प्रचंड स्वर में रोती रही। जब वे सत्यव्रत को अस्पताल ले जाने के लिए बाहर निकले तो कई लोगों को अपने घर की ओर ताकते पाया। तब उन्हें चेतना आई। हे भगवान क्या होने वाला था आज उनके हाथों? मनोकामना को मार देते तो क्या होता? वह जेल में होते और बेटा अनाथ हो जाता। अपराधियों के चेहरे देखते हुए उनमें आपराधिक वृत्ति आ रही है या संयम नहीं रहा? अस्पताल से लौटते-लौटते वह संभल चुके थे। मनोकामना तो मानसिक रूप से कुंद है, मगर उनकी बुद्धि को क्या हो गया? उन्हें ख्ाुद पर लज्जा आई। आख्िार वह जैसी भी है- स्वस्थ बच्चे की मां तो है। घर आकर उन्होंने मनोकामना की पीठ सहलाई, 'तुम बहुत अच्छी हो।

'आप अच्छे हैं, मनोरमा की निरपराध नज्ार उनके चेहरे पर थी। सदाव्रत को लगा कि अब ऐसे नहीं चलेगा, अच्छी बातें सोचनी होंगी। मस्तिष्क पर पडते दबाव को रोकना होगा। उन्हें कुछ हो गया तो मनोकामना और सत्यव्रत का क्या होगा? उन्होंने सत्यव्रत को बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया। हालांकि नन्हा बच्चा उन्हें दोषी मानता था, मगर समय के साथ-साथ वह समझ गया कि उसे हॉस्टल क्यों भेजा गया। अब वह पुणे में कानून की पढाई कर रहा है। मां को लेकर उसके मन में हीन-भावना नहीं है। पिता से हमेशा फोन पर बात करता है। कचहरी की बातें भी वह उससे शेयर करते हैं। तलाक के मसले पर भी उसकी जिज्ञासा थी, 'पापा फैसला हुआ?

अचानक वह सत्यव्रत से पूछ बैठे, 'सत्य, वादी की जगह तुम होते तो क्या करते?

'फ्रेंक्ली स्पीकिंग पापा, शादी ही नहीं करता। चीटिंग हो जाती तो पहले दिन ब्रेकअप कर लेता। इस इंसान ने तो तीन साल बिता दिए।

'बेटा, मगर वह औरत कहां जाएगी?

'यह तो उसके पेरेंट्स को सोचना चाहिए था न! पापा सबको अपना बेहतर जीवन चाहिए। कोई क्यों अपनी लाइफ बर्बाद करे?

'पर...

'पापा, आप जैसे इंसान अब नहीं हैं। सोचता हंू तो दहशत होती है। आपने स्थिति को जितना कठिन समझा होगा, उससे अधिक कठिन रही होंगी, लेकिन आपने मां का पूरा ख्ायाल रखा।

सत्यव्रत जो कह रहा है, उससे सदाव्रत भी सहमत हैं। न जाने कितनी बार उनके सामने भी सवाल खडे हुए हैं। वे सास-ससुर से पूछना चाहते थे कि जिस लडकी को वे ख्ाुद न संभाल सके, उसे दूसरा व्यक्ति संभाल लेगा, ऐसा उन्होंने कैसे सोचा? यदि शादी के बाद लडकी को उसका पति छोड दे और वह मायके आ जाए तो क्या होता? क्या फिर से वह माता-पिता की ज्िाम्मेदारी नहीं हो जाती? शादी इतनी ज्ारूरी क्यों है? भले ही शादी के बाद लडकी को छोड दिया जाए, लेकिन एक बार वह ब्याहता कहलाए...।

वादी उनसे यही प्रश्न कर रहा है, जिसे वे उम्र भर सबसे पूछना चाहते थे। फिर भी उन्होंने वादी-प्रतिवादी के बीच मेल-मिलाप की कोशिश की है। वे दोनों के साथ न्याय करना चाहते हैं। मुश्किल यह है कि एक के लिए न्याय की कोशिश दूसरे के प्रति अन्याय हो जाएगा। उन्होंने कलम उठाई। कलम वादी के पक्ष में फैसला दे रही थी, जबकि वे उसकी पत्नी के पक्ष में थे।

सुषमा मुनींद्र


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