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जिंदगी है यहां

बरसों से विदेश की धरती पर रहने वाला बलजीत का परिवार भारतीय मूल्यों और संस्कारों से दूर हो गया था। मगर जब उसके माता-पिता बेटे-बहू और बच्चों से मिलने पहुंचे तो उन्होंने अपने प्यार से चंद ही दिनों में सब कुछ बदल दिया। यहां तक कि दादा-दादी से चिढऩे वाली

By Edited By: Published: Thu, 26 Feb 2015 12:56 AM (IST)Updated: Thu, 26 Feb 2015 12:56 AM (IST)
जिंदगी है यहां

बरसों से विदेश की धरती पर रहने वाला बलजीत का परिवार भारतीय मूल्यों और संस्कारों से दूर हो गया था। मगर जब उसके माता-पिता बेटे-बहू और बच्चों से मिलने पहुंचे तो उन्होंने अपने प्यार से चंद ही दिनों में सब कुछ बदल दिया। यहां तक कि दादा-दादी से चिढऩे वाली पोती भी उनके साथ भारत जाने को राजी हो गई...।

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लजीत के चाचा ने जब उसे इंग्लैंड बुलाने का इंतज्ााम कर दिया तो बलजीत उर्फ बल्लू के घरवालों की ख्ाुशी का ठिकाना न रहा। मध्यवर्गीय परिवार में तीन ब्याह योग्य बहनें थीं। सरबजीत, करमजीत और उससे छोटी परमजीत, जिसे सब प्यार से पम्मी बुलाते थे।

चाचा करमचंद उनका सगा चाचा नहीं था। चाचा की रेप्युटेशन कसबे में निहायत ही ख्ाुदगर्ज, चतुर और काइंया िकस्म के शख्स की थी, सो भतीजे को लेकर भलाई का जज्बा लोगों को पच नहीं रहा था।

ख्ौर, नियत समय पर बल्लू लंदन उड गया। घरवालों को विदेशी सामान और डॉलरों के मोह ने ऐसा लुभा रखा था कि इससे परे उन्हें किसी और बात की िफलहाल चिंता न थी। एक यूफोरिया सी स्थिति थी। बस रिश्तेदार एवं पडोसी उनके सपनों को गहरा रंग देने में जुटे थे। बल्लू के वहां सेट होते ही वे अपने लिए कुछ जुगाड फिट करने की प्लानिंग सोचे बैठे थे। आख्िार बंदा ही बंदे के काम आता है, फिर बल्लू तो अपने ही पिंड दा मुंडा है।

चाचा करमचंद का परिवार छोटा सा था, जिसमें पत्नी दरशन कौर और बेटा सतनाम थे। चाचा-चाची ने आते ही बल्लू की बडी ख्ाातिर की। अकेलेपन से ऊबे सतनाम को प्राजी के रूप में अच्छा दोस्त नजर आया। कुछ ही दिन बाद चाचा ने अपने दोस्त के प्रॉविजन स्टोर पर उसे सेल्समेन लगवा दिया। दोस्त की स्मार्ट सी बेटी डिंपल स्टोर की कर्ता-धर्ता थी। चाचा के दोस्त बीमारी के कारण रेस्ट पर थे।

उसे आए चंद रोज्ा ही हुए थे कि एक दिन चाचा ने अपने दोस्त से कहा, 'ओ यार तू फिकर न कर। मेरा भतीजा बडा दब्बू िकस्म दा है। तेरा ते, तेरी कुडी दा गुलाम बन के रहवेगा। घर की तरफ तो उसने मुड के वी नई देखना है।

उसे आया देख चाचा ने बातों का रुख्ा पलट दिया, 'ओय बल्लू मेरा यार तेरी तारीफ कर रया सी। तैनूं वे इसदा दिल जीत लिया। हूण छेत्ती कर। इस दे पैले कि ए अपणा इरादा ना बदल दे, तू डिंपी नाल ब्याह दी मंजूरी दयदे।

'क्या चाचा? ऐसे कैसे? ब्याह कोई छोटी गल्ल है? मम्मी डैडी नूं पूछना पैयगा। मैं हूणे ब्याह दे बारे में कुछ सोच्या नहीं सी।

'तो सानूं कोई जल्दी नहीं। तू आराम नाल सोच के फैसला दस्स। वैसे डिंपी के वास्ते एक से बढकर एक रिश्ते हैं। लेकिन उसे तू ही पसंद आ गया।

डिंपी के पापा जी से यह सुन कर बल्लू के चेहरे पर चमक के साथ-साथ लाली छा गई। उस रात बल्लू सो न सका। एक तरफ सुहाने सपने थे कि वह स्टोर मालिक बन गया है। डिंपी जैसी स्मार्ट और पढी-लिखी पत्नी मिल गई है। सुंदर सलोने गोरे-चिट्टे बच्चे कमरे में ऊधम मचा रहे हैं....।

चाचा ने फोन पर भाई-भाभी से लंबी बातें करते हुए जाने क्या ऐसा कहा कि उन्होंने ख्ाुशी-ख्ाुशी ब्याह के लिए मंजूरी दे दी। बस क्या था, बल्लू घर-जमाई बन डिंपी के घर रहने लगा। ससुर बीमार थे, इसीलिए उन्हें डिंपी की शादी की जल्दी थी। जाने कब रब्ब बुला ले। वे मायूसी की बातें करते तो बल्लू सांत्वना देता और जी-जान से ससुर की सेवा में जुट जाता। इस सेवा का सिला भी उसे ख्ाूब मिला। दुनिया छोडऩे के पहले ससुर उसे स्टोर का मालिक बना गए।

एक दिन बातों-बातों में डिंपी से उसे पता चला कि चाचा ने उसे यहां बुलाने के लिए डिंपी के पापा से मोटी रकम ऐंठी थी। सुन कर बल्लू को बुरा तो लगा, लेकिन चाचा की जैसी िफतरत थी, उनसे ऐसी ही उम्मीद की जा सकती थी।

अब बल्लू बडा आदमी बन गया था। उसके कई एनआरआइ दोस्त भी बन गए। अपनी मिट्टी से बिछडे उसे कई महीने गुजर गए। अपनों की याद अकसर तडपाती। सबसे ज्य़ादा याद आता मां का वात्सल्य छलकाता चेहरा। बापू का हलवाई की दुकान से कुल्हड में लस्सी लाना, जिसका स्वाद आज भी होंठों पर जीभ फेरने को मजबूर कर देता। बहनों का प्राजी... कहते हुए इर्द-गिर्द मंडराना, उसकी छोटी-छोटी ज्ारूरतों का ध्यान रखना और हर मांग को दौड-दौड कर मुस्तैदी से पूरा करना। उसकी आंखें भीग जातीं।

कल ही तो क्लब में राजदीप इंडिया जाने की बात कर रहा था। उसके पिंड से कुछ ही दूर है उसका पिंड। चार साल बाद जा रहा है अपने घर। उसने वादा किया है कि उसके घर भी जाएगा। उसने कुछ गिफ्ट भेजने हैं। घर का आंखों देखा हाल उससे सुनना है। जिस दिन दोस्त की फ्लाइट थी, वह भी एयरपोर्ट पहुंचा था। प्लेन को देख कर उसके मन में कैसा ज्वार सा उठा था। काश वह भी दोस्त के साथ जा पाता। डिंपल तो इंडिया का नाम ही सुनने को तैयार न थी। जाने क्यों उसके मन में वहम बैठ गया था कि एक बार वहां जाने के बाद वह वापस नहीं आ पाएगी। घर-परिवार की ज्िाम्मेदारियों की बेडिय़ां उन्हें रोक लेंगी। यह ज्ारूर चाची की ही सीख थी जो जब-तब उसके घरवालों के ख्िालाफ डिंपल के मन में जहर भरती थीं।

अपने घर आकर भी वह अपने घर की यादों में खोया रहा। फोन पर जब भी बात होती, मां रोने लगतीं। वह चाह कर भी फोन नहीं कर पाता। डिंपल का कहना था कि जिन्हें देखा नहीं, उनसे क्या बातें करूं। उसे बहनों के ब्याह की चिंता भी कम न थी। लडके वाले मोटा दहेज मांग रहे हैं। भाई विदेश में कमा रहा है, यह जान कर उनकी उम्मीदें भी बढी होती हैं। डिंपल से छिपा कर वह कभी-कभी कुछ पैसे घर भेज देता।

इस बीच दो बच्चे भी हो गए। आख्िार बहनों का भी ब्याह हो गया। बलजीत जब भी घर जाने की बात करता, डिंपल बखेडा खडा कर देती। जान देने की धमकी देकर वह पति को रोके हुए थी। उसका कहना था कि यहां जैसा ऐशो-आराम भारत में नहीं हैं। वहां की मुश्किल जिंदगी वह नहीं झेल सकती।

बलजीत का मन घर की याद में तडपता रहा। बहनों की शादी पर भी उन्हें आशीर्वाद देने नहीं जा सका। बस एकमुश्त रकम भेज कर अपना फज्र्ा पूरा कर दिया।

सात समंदर पार वह करियर बनाने आया था। पैसा तो खूब कमाया, लेकिन इसकी कीमत बहुत बडी चुकानी पड रही थी।

डिंपल अपनी अलग दुनिया में मस्त रहती। उसे लगता, वह पति कम, उसका बॉडीगार्ड ज्य़ादा है। भावनात्मक रिश्ता उनके बीच नहीं था। उसके मन में कैसी पीडा उठती है, वह कितना अकेला और असहाय महसूस करता है, इससे पत्नी को कोई वास्ता न था, न उसने कभी जानने की कोशिश की। घुटन भरी ज्िांदगी उसे हर समय बेचैन किए रहती। वह खोया-खोया रहने लगा था। उसके मन का पंछी अपने घोंसले में लौटने के लिए छटपटा कर रह जाता। अपनों का स्नेह याद आता तो आंखें भर उठतीं। उसके बच्चे निशा और सैम बडे हो रहे थे। बच्चों के मन में भी पिता के लिए ख्ाास आदर न था। दोनों मां की तरह ख्ाूबसूरत थे और पिता के दबे हुए रंग से उन्हें चिढ होती थी। निशा अब सातवीं कक्षा में आ गई थी। पढाई-लिखाई, संगीत, नाटक, वाद-विवाद प्रतियोगिता में अव्वल रहती। वह डेटिंग पर भी जाने लगी थी। बलजीत उसे लेकर िफक्रमंद रहता।

बलजीत लगातार मां-बापू से लंदन आने की विनती करता। अंतत: उसकी बात मां-बाप ने मान ली। मन तो उनका भी होता था बच्चे से मिलने का, मगर बहू से हिचकिचाते थे।

मां अमृत कौर प्राइमरी स्कूल में टीचर थी। बापू भी बडे धार्मिक थे। गांव में उनका मान-सम्मान था। 'क्या हुआ अगर हम अमीर नहीं अमृत, हमारे पास इज्ज्ात का अनमोल रतन है, बापू अकसर मां से कहते।

इंग्लैंड की धरती पर कदम रखने पर ख्ाुशी से फूले नहीं समा रहे थे वे। बलजीत एयरपोर्ट पर उन्हें रिसीव करने पहुंचा था। बेटे के गले लग कर मां की आंखें भीग गई थीं। यही हाल बेटे का भी था। मां के गले लग कर मानो शब्द ही खो गए थे। मूक हो गया था वह। मगर एयरपोर्ट से घर जाते हुए बातों का सिलसिला जुडा और बातें थीं कि ख्ात्म होने पर ही नहीं आ रही थीं। बलजीत सबका हाल-चाल पूछता और मां-बापू बडे चाव से सबके बारे में विस्तार से बताते।

डिंपल का व्यवहार उनके साथ ठीक-ठाक रहा। वह जानती थी कि थोडे दिन के लिए आए हैं और उनके साथ सही व्यवहार न किया तो बलजीत कभी उसे माफ नहीं करेगा। मगर बच्चों को उनका आना बिलकुल नहीं सुहाया।

निशा को तो वे लोग ज्ााहिल लगे। सोचती, उसकी फ्रेंड मिशेल के ग्रैनी-ग्रैंडपा आते हैं तो कितने गिफ्ट्स लाते हैं मिशेल के लिए। एक उसके दादा-दादी हैं। उसे नाक-भौं चढाते देख सैम भी अपने हाव-भाव से ऐसे दर्शाता, मानो उसे दादा-दादी का आना पसंद नहीं आया है।

डिंपल और बलजीत सुबह ही स्टोर पर चले जाते। बच्चे स्कूल चले जाते और घर पर पति-पत्नी अकेले रह जाते। अमृत कौर चाहती थीं कि बहू-बेटे के लिए अच्छा सा खाना बनाएं और फैले हुए घर को संवार दें मगर किसी भी चीज्ा को हाथ लगाते डरती थीं। दो-चार बार ऐसा करने की कोशिश की, मगर बहू-बच्चों के तेवर देख तौबा कर ली।

घर से कुछ ही दूर एक पार्क था, जहां उनके जैसे कुछ लोग आते थे। बहुत जल्दी ये लोग उनसे घुल-मिल गए। अमृत की भी वहां के कुछ लोगों से बातचीत होने लगी। कई बार वहां की संस्कृति के बारे में जान कर वह हैरत में पड जातीं। पोती के रंग-ढंग देख कर तो वह ज्य़ादा ही चिंताग्रस्त हो गईं। मौका और मूड देख कर वह पोती को दुनियादारी और ऊंच-नीच समझाने की कोशिश करतीं। पहले तो निशा उन्हें झिडक देती थी, लेकिन जैसे-जैसे उनके भारत वापस जाने के दिन नज्ादीक आने लगे, निशा उनकी बातें ध्यान से सुनने लगी। दादी के नि:स्वार्थ प्यार ने पोते का दिल भी जीत लिया। शुरू में उसे दादा-दादी के साथ रूम शेयर करना अखरता था, मगर अब तो उनकी कहानियों के बिना उसे नींद ही नहीं आती थी।

निशा की सहेली मिशेल के मम्मी-पापा का तलाक हो गया था। अब उसकी मां जिस व्यक्ति के साथ रहती थीं, वह मिशेल को अच्छा नहीं लगता था। निशा के घर में उसे एक आत्मीय माहौले मिलता था। वह अकसर निशा के साथ घर आ जाती। निशा ने मिशेल के बारे में दादी को बताया तो वह भी मिशेल को स्नेह देने लगीं। उसे खाना खिलातीं, बातें करतीं, उसके बाल संवारतीं...। मिशेल ने निशा से हिंदी ट्यूशन ले लिया और अब वह दादी से टूटी-फूटी हिंदी में बातें करने लगी थी। ख्ाासतौर पर रिश्तों को लेकर वह अपनी दुविधाएं दादी के सामने ही बयान करती। दादी से भारतीय संस्कृति और मूल्यों के बारे में सुनती तो अभिभूत हो जाती। मिशेल अब निजी बातें भी उनसे शेयर करने लगी। एक दिन बातों-बातों में उसने दादी को निशा के बॉयफ्रेंड जेकब के बारे में बताया। इसके बाद उसने जो कुछ बताया, उससे तो दादी के पैरों तले ज्ामीन ही खिसक गई। जेकब और निशा रिलेशनशिप में थे और निशा प्रेग्नेंट थी। उन्होंने मिशेल से पूछा कि क्या यह बात निशा की मॉम को मालूम है तो मिशेल ने हां में जवाब दिया। उसने बताया कि आंटी ने निशा को पिल्स लेने की सलाह दी है, जिनसे अबॉर्शन हो जाता है।

अमृत कौर दिन भर बेचैन रहीं। रात में जैसे ही निशा दादी के पास आई, उन्होंने निशा के सर पर स्नेह से हाथ फेरा और धीरे-धीरे उससे पूछा तो निशा ने सब कुछ सच-सच बता दिया। वह गहरे डिप्रेशन में थी। दादी का स्नेह मिला तो फूट-फूट कर रोने लगी। जेकब उसे चीट कर रहा था और कमिटमेंट की बात करने पर वह कहता था कि भारतीय ज्ारूरत से ज्य़ादा भावुक होते हैं। रोते-रोते ही निशा ने पूछा, 'दादी, भारत के लडके वफादार होते हैं न? पापा कितने लविंग हैं और दादा जी आपकी कितनी केयर करते हैं..., एकाएक वह भावुक होकर बोली, 'दादी, मैं आपके साथ चलूूं तो कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगी?

'कैसी बात कर रही है पुत्तर! अपने जिगर के टुकडे भी कोई प्रॉब्लम देते हैं.., अमृत कौर ने उसे कलेजे से लगा लिया।

....कुछ दिन बाद ही निशा दादा-दादी के साथ भारत जाने को तैयार थी। उसे कई शारीरिक-मनोवैज्ञानिक समस्याएं हो गई थीं, मगर दादा-दादी के निश्छल प्यार ने उसके ज्ाख्म भर दिए। धीरे-धीरे वह यहां के रंग में ढलने लगी। कुछ साल बाद उसे एक लडका पसंद आया और दादा-दादी ने उसकी शादी पक्की कर दी। शादी की सूचना मिलते ही लंदन से निशा के मॉम-डैड भी आ गए।

डिंपल ने पहली बार भारत की धरती पर कदम रखा था। वह रिश्तों की गर्माहट देख कर हैरान थी। जिंदगी का यह रूप तो उसके लिए अकल्पनीय था। उसके चेहरे पर अनोखी चमक और संतुष्टि आ गई। उसने ख्ाुश होकर पति से कहा, 'वाकई यह देश ख्ाूबसूरत है। यहां के लोग कितने समझदार हैं! हरे-भरे खेत, ताजी हवा और हंसमुख लोग..., अब समझ आया, आप भारत को इतना मिस क्यों करते थे। सच, मुझे तो यहां इतना अच्छा लग रहा है कि वापस जाने का जी नहीं करता..।' इसके तुरंत बाद वह मां-बाबूजी से बोली, 'मां, अब हम हमेशा यहीं रहेंगे। आप यही चाहती थीं न...?'

उषा जैन शीरीं


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