शपथ
जिसकी खातिर उसने सपने देखे, कमरे को घर बनाया, उसी ने ऐसा धोखा दिया कि सीने में ज्वालामुखी लिए वह बरसों तक उसकी तलाश में भटकता रहा। उस बेवफा को मार देना चाहता था वह। मगर एक दिन वह सामने आई तो चाह कर भी उसे न मार सका...।
जिसकी खातिर उसने सपने देखे, कमरे को घर बनाया, उसी ने ऐसा धोखा दिया कि सीने में ज्वालामुखी लिए वह बरसों तक उसकी तलाश में भटकता रहा। उस बेवफा को मार देना चाहता था वह। मगर एक दिन वह सामने आई तो चाह कर भी उसे न मार सका...।
नया घर बहुत पसंद आया सोहन को। अब तक जिन घरों में रहता आया है, वे सब गली-मोहल्ले में थे एक कमरे वाले। मगर ये वाला सरकारी चीनी मिल का घर है। दो कमरे, आंगन, बरामदा, रसोई...। शांत इलाका है। दो-चार घर हैं, बाकी खेत और पहाडी की ओर मज्ादूरों की बस्ती। बाज्ाार दूर है। खाने-पीने की परेशानी होती है। चाय के अलावा कुछ और बनाना नहीं आता। दोपहर में मिल की कैंटीन में खाना खा लेता है, समस्या रात में होती है। वह काबिल सुपरवाइज्ार है मिल में। मोटी पगार, घर, बोनस, कैंटीन...अकेले व्यक्ति को और क्या चाहिए। सोचता है, सारी भटकन छोड कर इसी छोटी सी जगह पर बस जाए...।
शांत, सीधा-सादा स्वभाव था उसका। मां ने बेटे को अच्छे संस्कार दिए थे। ऊंची आवाज्ा में भी बात करने से घबराता था, लेकिन अब बेचैन रहता है। दिन भर आक्रोश घेरे रहता है। चैन से बैठ ही नहीं पाता। उसे तलाश है उस बेवफा की, उसे मारने के बाद ही सीने में धधकता ज्वालामुखी शांत होगा। मगर दस वर्ष बाद भी सोहन उसे खोज नहीं पाया है। जो पैसे जमा किए थे, उनसे पिस्तौल ख्ारीदी थी कि जहां भी वह दिखेगी, मार डालेगा, पर इतने सालों में पिस्तौल में भी ज्ांग लग गई।
***
रविवार का दिन सोहन को भयानक लगता है। कोई अपना नहीं, जिसके साथ कुछ पल बिता सके। पहले अलका थी तो पैसों की तंगी रहती थी, आज पैसे हैं, पर अलका नहीं।
दिन निकल आया तो चाय की तलब जाग उठी। शाम का खाना वह कैंटीन से पैक कराता है। कंबल में मुंह ढांपे पडा था कि दरवाज्ो की घंटी बजी। अरे! यहां कौन? यहां तो न दूध आता है, न अख्ाबार वाला। बिस्तर से उठ कर दरवाज्ाा खोला तो उसका हमउम्र सा दुबला-पतला आदमी खडा था।
'क्या बात है?
'राम-राम बाबूजी। बांके हंू। यहीं पास की लेबर लेन में मेरी चाय की दुकान है। सुना आपको चाय-नाश्ते की परेशानी है?
'हां-हां, है तो...
'कहें तो मैं रोज चाय-नाश्ता पहुंचा दूं?
'यह तो अच्छा रहेगा। लाओगे कितने बजे?
'आठ बजे लाया तो...।
'यहां तक लाते-लाते ठंडी तो न हो जाएगी? ऐसा करो, तुम थर्मस ले जाओ, उसी में चाय लाना। संडे को लंच भी ला सकते हो?
'जी साब, आप एक गर्म टिफिन ले लेना, उसी में ले आऊंगा।
'ठीक है, महीने का कितना लोगे?
'जी, जो ठीक समझें, दे दीजिएगा।
'ना-ना, भाई बात साफ होनी चाहिए। चलो, डेढ हज्ाार दूंगा, पर नागा नहीं करना और मुझे समय पर ताज्ाा गर्म खाना देना।
'हम गरीब हैं साहब, मगर ईमानदार हैं, शिकायत का मौका नहीं देंगे आपको।
सोहन कमरे में गया और थर्मस के साथ पांच सौ रुपये भी बढा दिए, 'यह एडवांस रखो, दोपहर और रात का खाना भी लेकर आना।
बांके चला गया, मगर कुछ ही देर में वह चाय-नाश्ते के साथ हाज्िार था। नाश्ता रख कर बोला, 'साब, खाना कितने बजे लाऊं?
'दो बजे तक चलेगा।
टिफिन खोला तो चौंक उठा। दस वर्ष से होटलों का खाना खा रहा है। अलका के जाने के बाद पहली बार घर का खाना खा रहा है। खाने की सुगंध ने उसे तर कर दिया। दो आलू के पराठे, कसी मूली, मिर्ची का अचार। पूरे शरीर में झनझनाहट फैल गई, क्या सभी औरतों के हाथ में समान स्वाद हो सकता है? यह तो बिलकुल यही स्वाद था, जिसके लिए काम से थका-हारा वह घर भागने को आतुर रहता था। घर में गर्म थाली के साथ अलका तैयार रहती थी। नाश्ता करते हुए सोहन दस वर्ष पीछे कोलकाता की उस बस्ती में लौट गया, जहां एक कमरे में उसने अलका के साथ स्वर्ग बसा रखा था। वह मिल में काम करता था। शादी बचपन में ही हो गई थी। पहले पत्नी अलका गांव में मां के साथ रहती थी। तीज-त्यौहार में वह घर हो आता। पैसे वह हर महीने भेजता रहता। मां नहीं रही तो अलका को साथ लिवा लाया। अलका के हाथ में ग्ाज्ाब का स्वाद था। साधारण तेल-मसाले के साथ भी स्वादिष्ट खाना बनाने में माहिर थी।
सोहन को फिर अतीत याद आने लगा। बीस की अलका, बाईस बरस का सोहन, प्यार बरसता था उस छोटे से कमरे में। अलका सुघड थी, कम पैसों में घर चलाना जानती थी। कुछ पैसे बचा लेती और छुट्टी के दिन उन्हीं से मौज-मस्ती करते दोनों। रविवार को वे पूरे दिन घूमते, देर रात गए कमरे पर लौटते। सोहन सोचने लगा, उसने तो कोई पाप नहीं किया, किसी का बुरा नहीं चाहा, फिर उसके साथ ऐसा क्यों हुआ? आख्िार अलका ने उसे धोखा क्यों दिया?
***
यूं तो पडोस के लोगों ने चेताने की कोशिश की थी, मगर अलका पर उसे अंधा भरोसा था। सोचता, लोग किसी का सुख बर्दाश्त नहीं कर पाते। अंतिम दिन तक अलका के समर्पण में कोई अंतर नहीं आया। और जब सोहन चेता तो घर जल कर राख बन चुका था। पडोसियों से उसने सुना था कि एक लडका आता है उस मुहल्ले में। वह यूं तो अचार-चटनी, मुरब्बे बेचता है, मगर अलका की उससे गहरी छनने लगी है। वह उसे बैठा लेती है और चाय पिलाती है....। सोहन ने बातों को अनसुना कर दिया। बचपन में शादी हुई थी, साथ-साथ बडे हुए दोनों। खुली किताब है अलका उसके सामने। कोई जानने वाला होता तो सोहन को ज्ारूर बताती वह।
...एक दिन काम से लौटा तो दरवाज्ो पर ताला मिला। शायद दुकान तक गई होगी, यही सोचा था उसने। कोलकाता इतना बडा शहर है कि अलका उसके बिना गली तक पार नहीं कर सकती। तभी पडोस की मौसी ने देखा तो बोली, 'अलका बहू चाबी दे गई है मुझे...।
'वो... गई कहां मौसी?
'पता नहीं बेटा, पूछा नहीं मैंने....
'कितने बजे गई है?
'यही कोई बारह-साढे बारह बजे दोपहर।
उसके सामने अंधेरा सा छा गया। शाम के छह बज रहे हैं, कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई। ताला खोल कर लाइट जलाई तो पैरों तले ज्ामीन खिसक गई। बक्सा खुला पडा था। अलका कपडे-लत्ते, पैसे, गहने सब लेकर गई थी। वह सिर पकड कर बैठ गया। उसे समझ आ गया कि पडोसियों की जिन बातों को उसने नज्ारअंदाज्ा कर दिया था, ज्ारूर वही बात थी जो अलका चली गई। वह ज्ारूर उस लडके के साथ चली गई है। उसके सीने में ज्वालामुखी धधकने लगा। सुबह तक उसने एक निर्णय ले लिया था। मिल जाकर इस्तीफा दिया, घर लौटा और फिर फर्नीचर वगैरह बेचा। फिर जमा किए गए पैसों से एक चोरी का हथियार ख्ारीद लिया और निकल पडा अलका की खोज में। जहां मिलेगी, उसे मार डालेगा आख्िार इतने बडे विश्वासघात की यही सज्ाा हो सकती है। मगर इन दस वर्षों में कहीं भी अलका का सुराग्ा न लग सका।
***
दरवाज्ो की घंटी बज रही थी। हडबडा कर उठा सोहन। बांके खाना ले आया था। उसके साथ एक बच्चा भी था। 'खाना लाया हूं साब, डेढ बज गया।
ठंड के मौसम में भी बाप-बेटे के शरीर पर गर्म कपडे नहीं थे।
'कितने बच्चे हैं तुम्हारे? पूछा उसने।
'जी, चार। अच्छा साब, घरवाली कह रही थी कि खाना गर्म करने वाले टिफिन होते तो ठीक होता। आप दो टिफिन ख्ारीद लो, एक में खाना लाऊंगा, दूसरा ले जाऊंगा।
'ऐसा करो, मैं पैसे देता हंू, तुम ख्ारीद लेना। वैसे कितने में आएगा यह टिफिन?
'पता नहीं साब, सौदा तो घरवाली लाती है।
आदमी सीधा-सच्चा लगता है, सोचा सोहन ने और उसे हज्ाार का नोट पकडाते हुए कहा, 'सुनो बांके, जो बच जाएगा, उससे बच्चे के लिए गर्म कपडा ले लेना।
***
मन उदास सा हो आया था सोहन का। ईश्वर का कैसा न्याय है? जो बच्चे को पाल-पोस सकता है, उसके पास बच्चे नहीं, जो किसी तरह अभाव में गृहस्थी चला रहा है, उसके घर में चार-चार बच्चे। अलका के जाने के बाद मन भले ही टूट गया हो, मगर नौकरी तो करनी ही थी। ईमानदार था, इसलिए काम मिलने में परेशानी नहीं हुई और हर जगह तरक्की भी मिलती गई। अभी वह यहां मिल में सुपरवाइज्ार है।
टिफिन से खाना निकालते ही परिचित गंध से मन फिर बेचैन हो उठा। खिले-खिले चावल, पालक वाली मूंग की दाल, आलू-पत्ता गोभी की सब्ज्ाी...मुंह में कौर धरते ही वह सुख के सागर में डूब गया, मानो वर्षों बाद कोई भूला सा स्वाद पाया हो।
***
कई बरस बाद सोहन के जीवन में कुछ रस लौटा था। उसने बांके को घर की एक चाबी दी और उसे पंद्रह सौ रुपये माहवार देने लगा। बीच-बीच में वह घर की सफाई भी कर देता। सोहन को यहां आए एक महीने से ज्य़ादा हो चुका था। जीवन में शांति आई तो अलका को ढूंढने की तडप भी कम हो गई। मन को समझाने लगा कि जाने दो, जो चली गई, उसका मोह क्या! एक दिन रात में बांके स्पेशल खाना लाया। कचौडी, छोले, रायता और खीर। सोहन अवाक बोला, 'क्यों भई, कोई त्यौहार है क्या?
'साब जी, छोटे बेेटे का जन्मदिन है...।
अच्छा लगा उसे सुनकर, ये लोग एक-एक रोटी के लिए भले ही पसीना बहाएं, मगर जीवन की छोटी-छोटी ख्ाुशियों को अनदेखा नहीं करते, अपनी सामथ्र्य के हिसाब से उन्हें मनाते हैं। बांके ने थाली में खाना परोस दिया था। वह कमरे में गया तो पांच सौ का नोट लेकर लौटा, 'बांके, ये रखो, बच्चे को मेरी तरफ से कुछ दे देना। आंसू आ गए बांके के, 'आप देवता हो साब जी।
***
दिन शांति से गुज्ारने लगे थे। एक दिन सुबह कोई नया लडका नाश्ता लेकर आया।
'तुम कौन? बांके कहां है? सोहन ने पूछा।
'तेज्ा बुख्ाार है उन्हें। उठा नहीं जा रहा तो चाची ने नाश्ता पहुंचाने को कहा?
'फिर रात का खाना कैसे आएगा?
'मैं ही लाऊंगा सर...
बांके भले बिस्तर पर हो, मगर उसकी घरवाली ने नाश्ता उसी जतन से बनाया है।
'अचानक बुख्ाार कैसे आ गया?
'दस-पंद्रह दिन से आ रहा था। रात में आता है। आज तेज्ा हो गया तो उठ नहीं पाए।
'आज तो मैं छुट्टी पर हूं, लंच कैसे आएगा?
'उन्हें बोल दूंगा सर।
लडका चला गया। सोहन को दया आई। बांके ने किसी डॉक्टर को भी नहीं दिखाया होगा। कुछ हो गया तो ये बेचारे बच्चे अनाथ हो जाएंगे। दो महीने में वह बांके को इतना तो पहचान गया था कि वह सीधा-सादा है। मिल में बडा सा अस्पताल है, मगर वहां जाने का साहस नहीं जुटा पा रहा होगा...।
***
दिन में दरवाज्ो की घंटी बजी तो सोहन ने ज्ाोर से कहा, 'दरवाज्ाा खुला है, आ जाओ। मेज पर टिफिन रख देना और किचन से सुबह वाला टिफिन ले जाना।
खटर-पटर सी हुई तो वह बाहर निकल कर देखने लगा। लडका तो नहीं था, कोई स्त्री थी, शायद बांके की पत्नी हो। सोहन को देखते ही उसके हाथ से टिफिन छूट गया। सोहन भी मानो बुत हो गया। इतने सालों बाद आख्िार उसका शिकार उसके सामने था। वह ग्ाुस्से से कांपने लगा।
'तुम...?
सोहन को देखते ही अलका का चेहरा फक पड गया था। जब शिकार सामने होता है, शेर धीरे-धीरे बढ कर उसे दबोच लेता है। ठीक उसी तरह वह एक-एक कदम आगे बढा रहा था। उसकी आंखों में ग्ाुस्सा, घृणा, प्रतिहिंसा की ज्वालामुखी धधक रही थी...। हथियार में ज्ांग लग गया होगा, बक्से में बंद है, मगर दुबली-पतली इस कृतघ्न स्त्री के लिए तो उसका हाथ ही काफी होगा।
'सारा देश छान मारा मैंने और तुम...यहां मेरी ही आंख के नीचे बैठी मज्ो ले रही हो! आज तो बच नहीं सकतीं तुम।
अलका एक कदम पीछे हटी, 'मेरी बात सुनो सोहन... मार लो मुझे, तुम्हारे हाथों मरना मेरे लिए भाग्य की बात होगी।
'अब भी नाटक? पेट नहीं भरा तुम्हारा?
'मैंने विश्वासघात किया है, मगर नाटक नहीं किया। पति के रूप में आज भी तुम्हें चाहती हूं, सुबह तुम्हारी मंगल-कामना के बिना कौर नहीं उठाती। मेरा विश्वास करो तुम।
'तुम पर विश्वास करूं?
सोहन क्रोध से बोल भी नहीं पा रहा था।
अलका फिर बोली, 'मुझे मारो, मगर अभी नहीं। अभी मारोगे तो पूरे परिवार को मारने का पाप लगेगा तुम्हें, बांके और उसके मासूम बच्चों का क्या होगा...?
'बातों में फंसाना चाह रही है मुझे?
अलका का मुख अब भयशून्य था। शांत और सामान्य थी वह। बोली, 'बांके बहुत ही सीधा और कमज्ाोर लडका है। भाग्य और ग्ारीबी के हाथों पिटा हुआ। वह मेरी छत्रछाया में ही जी रहा है। मैं न रही तो वो भी मर जाएगा और इसके साथ ही उसके बच्चे भी अनाथ हो जाएंगे। तुम्हारी अपराधिन मैं हूं सोहन, बांके ने तुम्हारा क्या बिगाडा है?
'अच्छा...! किसी का घर तोडऩा अपराध नहीं है क्या?
'बांके ऐसा कर ही नहीं सकता। जो कुछ भी किया, मैंने किया।
'पर क्यों अलका? किस चीज्ा की कमी थी तुम्हें। क्या था उसके पास, जो मैं तुम्हें नहीं दे सकता था...?
'तुम्हारे पास सब कुछ था सोहन। मगर बांके ने मुझे बच्चे दिए, जो तुम नहीं दे सकते थे।
पैरों तले ज्ामीन खिसक गई सोहन की। उसे याद आया वह दिन, जब रिपोर्ट पकडा कर डॉक्टर ने कहा था, 'अरे भाई संतान नहीं हो सकती तो क्या, गोद तो ले सकते हो!
वो टूट गया था, बहुत रोया था। अलका ने ही उसे संभाला था।
सोहन का सिर झुकने लगा। अलका बोली, 'देखो, मैं बांके के बच्चों की मां हूं। उस ग्ारीब का घर संवार रही हूं। मगर यह सच है कि तुम्हारी जगह बांके नहीं ले सकता।
'चुप्प..., इतनी ज्ाोर से चीखा सोहन कि अलका कांप गई।
'बकवास बंद करो और घर जाओ। बांके को तैयार करो। बुख्ाार में तडप रहा है वह। चलो उसे मिल के अस्पताल में दिखाएंगे। अलका ने आंचल सिर से लपेट लिया, 'पहले खाना तो खा लो सोहन, ठंडा हो जाएगा। और वह तेज्ाी से दरवाज्ो से निकल गई....।
बेला मुखर्जी