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नीम का पेड़

इतिहास ख़्ाुद को दोहराता है। पिता के गांव में बसने के आग्रह को कठोरता से ठुकराने वाले बेटे को अपनी ग़्ालती तब समझ आई जब उसके बेटे ने यू.एस. में बसने का निर्णय ले लिया। वह इतना आहत हुआ कि पिता के निधन के बरसों बाद गांव जाने वाली गाड़ी में बैठ गया। वहां पहुंच कर ऐसा लगा मानो पिता उसकी बाट जोह रहे हैं। एकाएक बेटे का निर्णय बदल गया..।

By Edited By: Published: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)Updated: Fri, 31 Aug 2012 05:01 PM (IST)
नीम का पेड़

तेज आवाज  के साथ बस रुकी तो आंखें खुल गई। उफ! कुछ देर पहले ही तो आंख लगी थी। रात भर सो नहीं पाए थे। पत्नी ने टोका भी, मगर उन्हें नींद ही नहीं आ रही थी। बाबू जी के जाने के बाद पहली बार गांव जा रहे थे।

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खिडकी से झांका-बिहारमऊ, इतनी जल्दी! लगता है काफी देर तक सोए रह गए। यहां से आधे घंटे का सफर है। शहर आने से पहले सुंदरगंज में उतर कर दूसरी बस पकडेंगे और घंटे भर बाद गांव आ जाएगा। दुकानों पर भी नजर गई। दस सालों में कुछ भी न बदला। मुन्ना इलेक्ट्रिकल्स, चांदसी दवाखाना, संतोष मेडिकल.., केवल एसटीडी बूथ की जगह साइबर कैफे हो गया था। पूरे इलाके में एक ही एसटीडी बूथ होने के कारण यहां भीड रहती थी। पिता यहीं से फोन करते थे। अंतिम बार भी यहीं से फोन किया था, चाचा के लडके ने दरवाजे पर अनार का पेड लगाया है। कुछ कहूं तो लडता है कि घर पर कब्जा नहीं कर रहा हूं। तुम आओ तो हाता घेरवा दो, तभी घर-द्वार बचा रहेगा।

वह झुंझला कर बोले, बाबूजी पिछले पांच सालों से हाता घेरवाने की रट लगा रहे हो। तीस-चालीस हजार का ख्ार्च होगा, कहां से आएगा इतना?

इतने दिन से नौकरी कर रहे हो! इतने पैसे भी नहीं हैं? पिता ने भी तल्ख्ाी से कहा।

ख्ार्च भी तो हैं। तुषार और नीलम की पढाई और शादी। वह जरूरी है या घर का हाता?

घर भी जरूरी है बेटा, लापरवाही दिखाओगे तो लोग उखाड फेंकेंगे। पुरखों की जमीन कोई यूं ऐसे छोड देता है क्या? पिता लाचारी से बोले। चाचा भी तो अपने हैं। जरा सी जमीन के लिए हजारों ख्ार्च करूं? मैं तो कहता हूं आप भी यहां आ जाइए, मगर आपका तो मन गांव में ही रमता है। आपके जाने के बाद कोई अनार लगाए या आम, मैं नहीं आऊंगा देखने, बात ख्ात्म कर उन्होंने बेरुख्ाी से फोन काट दिया।

कुछ देर तक मन तिक्त रहा। पिता मजबूरी नहीं समझते। हालांकि वे अपनी जगह सही हैं। जानते हैं पिता आहत होंगे, लेकिन उनके सामने घरेलू चिंताएं हैं, यह बात पिता को कैसे समझाएं! ..चाचा पिता से बहुत छोटे थे। उनकी पढाई, शादी, नौकरी.. सारे इंतजाम पिता ने किए। जमीन बेच कर नौकरी लगाई। अब जमीन के लिए ही लडाई-झगडा चल रहा है। गांव में थे तो पिता की हर बात सही लगती थी। इसलिए नहीं कि वे पिता थे, इसलिए कि वे सही थे। चाचा बडे हिस्से पर कब्जा किए थे। पिता के पास दो कमरे-आधा आंगन ही था। मेहमान आते तो परेशानी होती। फिर मिट्टी का पुराना घर गिरा। जमीन  का बंटवारा हुआ तो पिता ने घर बनवाया। इसमें सारी जमा-पूंजी ख्ार्च हो गई। मां ख्ाुश थीं लेकिन बीमार भी रहने लगीं। पैसे ख्ात्म हो चुके थे। एक दिन वह चल बसीं।

तब तक वे ग्रेजुएशन कर चुके थे। पिता चाहते थे कि गांव के स्कूल में पढा लें। खेती-बाडी चलती रहेगी, पैसा भी आता रहेगा। यहींसे पिता से वैचारिक मतभेद शुरू हुए। मां को खोने के बाद पैसे की कीमत पता चल गई थी। खेती से तो खाद-पानी डालने के पैसे भी न जुटते थे। वे पढाई के साथ खेत में काम करते, लेकिन बमुश्किल पांच-छह महीने का राशन जुट पाता था। बाकी दिन हाथ तंग रहता। फिर शहर आ गए। वक्त के थपेडों ने उन्हें गांव से अलग कर दिया..। बिहारमऊ से पिता ने जिस दिन फोन किया था, उसके दो दिन बाद ही चाचा का फोन आया कि पिता नहीं रहे। उस दिन फोन करके तपती दोपहरी में लौटे तो बुख्ार था। लू लग गई थी। वह सन्न रह गए। पिता को लू लगी या उन्होंने अपनी बातों से ठेस लगाई।

..बिहारमऊ  में चाय-पानी के लिए उतरे यात्री बस में लौटने लगे थे। ड्राइवर सीट पर बैठ गया था। उनकी नजर फिर एसटीडी बूथ को खोजने लगी। ऐसा लगा बूथ को नहीं,पिता को ही हटाया गया है। पिता मौत के बाद भी यहां जीवित थे, बूथ हटा कर उन्हें मार दिया गया है। उन्होंने रुमाल से भर आई आंखें पोंछ लीं।

आधे घंटे बाद वे सुंदरगंज पहुंच गए थे। चाचा का बेटा मनोज उन्हें लेने आने वाला था, लेकिन काफी देर तक कोई न दिखा। वह पिता के जिगरी दोस्त गनपत की दुकान पर चले गए। गनपत उन्हें देखते ही तराजू एक किनारे रख पैर छूने दौडा, का भइया, बाबू जी चला गयेन त तू एकदमै बिसराय  दिहा.. दस बरस होइ गवा तोहार दर्शन को।

गनपत से गले मिले तो लगा पिता से गले मिल रहे हैं। पिता के जीवित रहते वे कभी गनपत से गले नहीं मिले थे। पिता कहीं भी आते-जाते, कुछ घडी वे गनपत की दुकान पर जरूर बैठते। गनपत बताने लगा कि कैसे साइकिल चला कर पिता यहां आते थे फोन करने। दुकान पर आते तो वह खोवे की ताजी मिठाई खिलाता और झोले में भी रख देता। मौत से दो दिन पहले जब पिता काफी थके दिख रहे थे। उसे तभी लग गया था कि कोई अनहोनी होने वाली है।

पिता की चर्चा ने भावुक बना दिया। बात बदलते हुए बोले, काका, बिहारमऊ  का एसटीडी साइबर  कैफे  में बदल गया है।

हां भइया, मोबाइल के जमाने में एसटीडी पीसीओ की क्या दरकार? अब त सुंदरगंज मा कइयौ  पीसीओ खुलि ग अहय..

गनपत की दुकान पर बैठे काफी देर हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद उन्होंने खेती-बाडी चाचा के सुपुर्द कर दी थी। पत्नी ने समझाया था कि चाचा को ही घर सौंप दें तो तेरहवीं के बाद शहर जाते हुए उन्होंने चाचा-चाची के पैर छूते हुए कहा था, अब आपके भरोसे है खेती-बाडी और घर। दीया-बत्ती कर देंगे तो अच्छा रहेगा।

अरे बेटा, मेरा ही घर है न, तुम भले ही कुछ सोचो पर हमारे मन में द्वेष नहीं है.., समय-समय की बात है। तुम्हारे पिता हमें यहां फटकने नहीं देते थे और तुम हमें घर सौंप कर जा रहे हो! उनकी आत्मा तो नहीं कलपेगी? कहते हुए चाची व्यंग्य में हंसीं। पत्नी ने मौके की नजाकत पहचानते हुए कहा, चाची, पुरानी बातें दिल से निकाल दो। आपके ही बच्चे हैं हम, यह घर भी आपका ही है।

बहू, हमने तुम्हें कभी पराया नहीं समझा, कहते हुए चाची ने उन्हें गले लगा लिया।

रास्ते भर वे कुढते रहे कि क्यों चाचा-चाची की बात का जवाब नहीं दिया? फिर शहर लौटे तो धीरे-धीरे गांव को भूल ही गए।

पिता का गांव लौटने का आग्रह उन्हें तब समझ आया जब उनका बेटा यू.एस. चला गया और उसने वहीं रहने का मन बना लिया। बेटी ससुराल जा चुकी थी। रिटायर हो गए। पत्नी के होते हुए भी गहरा अकेलापन था। बच्चों का सामीप्य खोजते-खोजते वे पिता के नजदीक होते जा रहे थे। धीरे-धीरे पिता ही बनते जा रहे थे। पिता को गए दस वर्ष हो गए। तेरहवीं के बाद गांव नहीं जा सके थे। चाचा-चाची और उनके बच्चों ने भी कभी गांव आने को आमंत्रित नहीं किया।

..सोच की कडियां टूटीं। एकाएक वे उठे। बैग हाथों में टांगे तो गनपत ग्राहकों को छोड कर आ गया, अरे भइया, हम पहुंचाई देब.. 

तुम दुकान देखो काका, मैं चला जाऊंगा। चला कइसे जाब्या? भोला साइकिल निकाल, हम भइया क पहुंचाइ के आवत अही..तू तब तक दुकान संभाल।

दोनों निकल पडे गांव की ओर। घर पहुंच कर चाचा जी को आवाज दी। चाची बाहर निकलीं, अरे बेटा, आ गए? मनोज तो तुम्हें लेने सुंदरगंज जाने वाला था। दोपहर में खाना खाकर सोया तो सोता ही रह गया।

कोई बात नहीं चाची, गनपत काका थे तो मुश्किल नहीं हुई, उन्होंने बात संभाल ली। गांव आने का जो उत्साह था, तिरोहित हो चुका था। पिता थे तो ऐसा अकेलापन कभी महसूस नहीं हुआ था। उन्होंने घर की तरफ नजर घुमाई। गहरा सूनापन आंखों से होते हुए दिल में उतर गया। इतना उजाड-वीरान! घर के सामने इतनी ख्ाली जगह पहले नहीं थी। याद आया नीम का पेड था। एकदम से चिल्लाए, चाचा नीम का पेड कहां गया?

हां बेटा, कटवाना पडा

लेकिन क्यों?

सुखवन-पाती के लिए। कुछ भी नहीं सूझता था उसकी छांव में।

इतना बडा आपका द्वार है, वह कम था? आपको पता था न कि वह पेड बाबू जी ने लगवाया था? न चाहते हुए भी उनकी आवाज में उग्रता आ गई थी।

बच्चे की तरह पाला-पोसा था पिता ने नीम को। वे शहर आए तो पिता को उसी पेड में बेटे का चेहरा दिखता था। गर्मी की ढलती दोपहरी में जब छतनार पेड तले खाट बिछा कर लेटते तो चेहरे पर तृप्त भाव उभरता। पेड पिता के लिए कीमती था, लेकिन वे कहां समझ पाए! पेड घर के मुख्य दरवाजे के सामने था। नीम के नीचे बैठने के लिए दरवाजे से 20-25 कदम चलना पडता था। अकेले होते तो चलते समय कदम गिना करते। उन्होंने नीम वाली जगह पर कुछ ईटें रख दीं। बोले, यहां फिर से नीम लगाऊंगा।

घर के भीतर गए। एक कमरे में चाचा के घर का फालतू सामान भरा था। मां-पिता के बक्से ग्ायब थे। पिता के कमरे में भूसा देख वे तिलमिला उठे। चाचा की ओर देखा तो बोले, घर ख्ाली था, सो भूसा रखवा दिया। इस बहाने आना-जाना बना रहता है। चाचा की बातें अनसुनी कर वे आंगन की ओर बढे। आंगन की दीवार में छोटा-सा छेद किया गया था। जहां से चाचा के घर का गंदा पानी बह कर आंगन से होता हुआ उनके घर की नाली में मिलता था।

यह क्या है चाचा जी?

बेटा, बाहर की नाली यहां से पास है, सुरेश ने यहीं से पानी का निकास कर दिया।

चाचा यह आपके भाई का घर था! गंदे पानी का निकास करते हुए कुछ तो सोचते?

फिर वे भूसे से भरे पिता के कमरे की देहरी पर बैठ गए। कुछ देर में ही अजीब सी बेचैनी घेरने लगी, मानो पिता भूसे में दबे हों और छटपटा रहे हों। उन्हें कैसे भी बचाना होगा।

क्या कर रहे हो बेटा?

भूसा हटा रहा हूं..,

मैं ख्ाली करवा दूंगा, तुम आराम करो, चाचा का स्वर धीमा था। नहीं, अभी हटाना है इसे., वे खांची में भूसा भर-भर बाहर रखने लगे तो मनोज-सुरेश भी हाथ बंटाने लगे। घंटे-डेढ घंटे में कमरा साफ हो गया। भोजन तैयार हुआ तो चाची बुलाने आई। उनकी भूख मर गई थी, फिर भी बेमन से उठे और भोजन करने लगे। चाचा-चाची भी स्तब्ध थे। खेत-घर को वे अपना ही मान बैठे थे, अचानक उसे हाथ से निकलता देख घबरा उठे। चाची ने गर्म रोटी परोसते हुए कहा, मैं घर साफ कराना चाह रही थी, लेकिन कोई मिला नहीं। चाचा ख्ाुद कर लेते लेकिन पिछले एक हफ्ते से घुटने के दर्द से परेशान हैं। तुम परेशान न हो बेटा, कल मैं सफाई कर दूंगी। अब हम भी ज्यादा दिन के तो हैं नहीं। जब तक हैं, तभी तक साज-संभार कर सकते हैं। चाचा तो कहते हैं कि अपना खेत परती रहे पर भैया के खेत में बुआई  होगी..।

खाना खाकर वे सो गए। सुबह जल्दी उठे और नहा-धो कर तैयार हो गए।

दो-चार दिन रुक जाते बेटा, इतने दिन बाद तो आए हो.., चाची ऊपरी मन से बोलीं।

चाची, शायद कल ही लौट आऊं। बहू को लिवाने जा रहा हूं। यहां नीम का पेड लगाना है, हाता घेरवाना है। सुरेश, घर के आगे तुमने जो अनार और आंवले के पेड लगाए हैं, चाहो तो काट कर ले जा सकते हो।

कैसी बात करते हो भैया?

कोई दिक्कत न हो इसलिए कह रहा हूं। चाची, एक ताला-चाबी दे दीजिए।

ताला क्यों बंद करोगे बेटा, तुम बहू को लाओ, मैं घर की सफाई करा लेती हूं। आते ही बहू को काम में झोंक दूंगी क्या! दो-चार दिन के लिए आती है थोडा चैन से रहे।

नहीं चाची, मैं रिटायर हो गया हूं। शहर में मेरे लिए है ही क्या? अब गांव में रहूंगा।

ताला बंद कर चाबी उन्होंने जेब में रखी और एक नजर घर और चाचा पर दौडाई। लगा मानो नीम का पेड फिर हरा हो गया है। पेड के नीचे खडे पिता मुस्करा रहे हैं..।


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