मुझे माफ कर दो
बुज़्ाुर्ग हमारे जीवन का आधार हैं, मगर तेज़्ारफ्तार जीवनशैली में वे हाशिये पर चले गए हैं। मशीनी जीवन जीते लोगों की संवेदनाएं इतनी मर जाती हैं कि घर के बुज़्ाुर्ग उन्हें बोझ लगने लगते हैं। मौत के बाद ढेरों कर्मकांड करने से क्या फायदा अगर जीते-जी माता-पिता को ख़्ाुश न
बाहर जाडे की कुनमुनाती धूप फैली है। ठंड बढ रही है और उसके मन में अखंड मौन पसर रहा है। इस ठंड में मां कैसे रहेगी? यहां तो धूप भी ठीक से नहीं आती। क्यों नहीं, भाई साहब मां को कुछ दिन अपने यहां रख लेते! उनके आंगन में धूप आती है। आख्िार बडे बेटे हैं, उनका फज्र्ा ज्य़ादा है। ये बातें वह भाईसाहब से कहना चाहता था, मगर कह नहीं पाता। पिछली बार कहा तो वह बोले, 'मां को तुम्हारे यहां अच्छा लगता है। ऐसे में हम ले जाएंगे तो वह बुरा मानेंगी। इससे उनकी सेहत बिगड सकती है। इधर-उधर क्यों करवाना उन्हें...। शरद सोच में डूबा है। मेरे भी बीबी-बच्चे हैं। मैं उन्हें थोडा वक्त देना चाहता हूं। क्या मां सिर्फ मेरी है? किसी को भी उनकी चिंता नहीं...। ऑफिस में बैठा घर के जालों में ही उलझा था कि फोन की घंटी बज उठी। उसने रिसीवर उठाकर कहा, 'हेलो
'हेलो आप कहां हैं?
'क्यों? क्या काम है?
'मां मंदिर में गिर गईं, पैर में चोट आई है, उठ भी नहीं पा रही हैं। तुरंत घर आइए..., पत्नी सांची जल्दी-जल्दी बोल रही थी।
आनन-फानन घर पहुंचा तो मां का बुरा हाल था। उसने डॉक्टर को फोन किया। उन्होंने अस्पताल भेजने को कहा। चोट थी, एक्स-रे करना ज्ारूरी था। एक्स-रे में पता चला कि टखने की हड्डी में हेयरलाइन फ्रेक्चर था। डॉक्टर ने प्लास्टर कर घर भेज दिया।
मां को लगने लगा कि वह बच्चों की मोहताज हो गई हैं। बिस्तर पर पडे-पडे वह आंसू बहाने लगीं। कहने को तो पांच बेटे थे, मगर सभी अपनी-अपनी घर-गृहस्थी और नौकरी की उलझनों में इतना घिरे थे कि किसी के पास मां के लिए समय न था।
शुरू में शरद ध्यान रखता था, लेकिन बूढा शरीर और पैर की चोट...। आख्िार कितने दिन कर पाता। धीरे-धीरे वह तटस्थ हो गया और मां अकेली होती गई। कई बार तो वह स्वयं ग्लानि में डूबी हुई महसूस करती कि अपने ही बच्चों पर वह बोझ बन चुकी है। उसका मन दु:ख और तिरस्कार के सागर में थपेडे खाते-खाते थक चुका था। किससे कहे मन की बात, कौन सुनेगा? किसे है समय?
मोहल्ले और आस-पडोस के लोग आते तो सांची अपनी परेशानियां गिनाने लगती, 'अरे मौसी, क्या बताऊं ...मां का काम करते-करते ही शाम हो जाती है। इतनी थक जाती हूं कि सेहत बिगडऩे लगी है। अब क्या करें, कोई और तो सोचता नहीं इनके बारे में...। हमारे साथ हैं तो हमें ही करना होगा।
'शरद ऑफिस से लौटते हुए मां की हार्ट की दवा लेते आना... और हां, पेट की दवा भी लेते आना। मां का पेट ख्ाराब हो गया है। सांची ने किचन से चिल्ला कर कहा।
एकाएक शरद बोल पडा, 'सांची, तुम मां के खाने-पीने का ध्यान क्यों नहीं रखतीं? कैसे रोज्ा इनका पेट ख्ाराब हो जाता है? कब तक मैं डॉक्टर के चक्कर लगाता रहूंगा...?
'तुम्हें दवा लाने में इतना कष्ट हो रहा है शरद, मुझसे पूछो। एक तो पैर में प्लास्टर है, ऊपर से मां का पेट ख्ाराब हो गया है। हर काम बिस्तर पर हो रहा है। मेरी जान को तो इतनी आफत है। एक मिनट भी फुर्सत नहीं मिलती। ज्ारा सी देर हो जाए तो मां आसमान सिर पर उठा लेती हैं..., सांची ने थके लहज्ो में कहा।
शरद ने तुरंत उत्तर दिया, 'सांची हमेशा खाने को मत दो इन्हें। माना कि बुढापे में मन स्वाद के प्रति ज्य़ादा लालायित होता है, मगर हाज्ामा तो कमज्ाोर हो जाता है। इन्हें अब हलका खाना जैसे उबली दाल और सब्ज्िायां दो। चटर-पटर देने की ज्ारूरत नहीं है।
मां कोने में लेटी सब कुछ सुन रही थीं और चाहती थीं कि मन का ग्ाुबार निकालें लेकिन क्या करें, बहू की आदत से वािकफ थीं। तभी सांची की तीखी आवाज्ा कानों में पडी, 'अब कोई छोटा बच्चा हो तो उसे समझाएं भी। इतने बडे इंसान को ख्ाुद पर नियंत्रण रखना चाहिए। मैं रोकूंगी तो सब मुझे ही बुरा-भला कहेंगे। जो करना है तुम्हीं करो, तुम्हारी मां हैं।
'अच्छा ठीक है, ज्य़ादा बक-बक मत करो, मैं शाम को दवा ले आऊंगा, मां को शरद की आवाज्ा सुनाई पडी।
शरद तो चला गया, पर जानकी देवी सोच में पड गईं। बूढा शरीर, पैर में प्लास्टर, दिल की मरीज्ा, अकेलापन, बहू से अपने काम कराने का अपराध-बोध और साथ ही बहू के व्यंग्य-बाण उनकी आत्मा को छलनी कर रहे थे। अब बर्दाश्त नहीं होता। काश धरती फट जाती और वह इसमें समा जातीं...।
वह सोचने लगीं, बेटे को भी इतनी फुर्सत नहीं है कि मां का हाल-चाल ले। वह कई साल पीछे लौट गईं। कैसे कम पैसे होने के बावजूद उन्होंने अपनी इच्छाओं को मार कर सबकी इच्छाएं पूरी कीं। सारे घर के काम ख्ाुद किए ताकि पैसे बचा सकें और बच्चों को सही पोषण दे सकेें। आज उनके त्याग का सिला यह मिल रहा है कि बच्चे उन्हीं के खाने-पीने पर पाबंदी लगा रहे हैं।
वही घर है, वही छत, वही दीवारें और वही लोग, लेकिन समय बदल गया, भावनाएं बदल गईं और किरदार बदल गए। पहले घर में मां कटोरी में खाना लेकर अपने बच्चों को एक-एक कौर खिलाती और कहानियां सुनाती...मगर बच्चों के पास आज उन्हीं के लिए कोई समय नहीं है।
मां सोचने लगीं, शरद को नहीं मालूम कि मां क्या खाती हैं और क्या नहीं, मगर बहू तो जानती है कि वह हमेशा सिंपल खाना ही खाती हैं। उन्हें याद आ रहा था, जब बहू प्रेग्नेंट थी, वह उसे पसंद का खाना बना-बना कर खिलाती थीं। मगर उसी बहू को मां का ज्ारा सा खाना भारी पड रहा है। शरद ने भी मां का हाल-चाल लेना बंद कर दिया है। एक अरसा हो गया कुछ देर बेटे से बात किए हुए।
एक व्यक्ति की तनख्वाह में उन्होंने पांच बेटों को पढाया-लिखाया, काबिल बनाया और घर भी बनवाया। जब कभी वह शरद के पापा से गहने की ज्िाद करतीं तो वह कहते, देखो यह घर, क्या यह तुम्हारे नौलखा हार जितना कीमती नहीं है? देखो अपने बच्चे....ये सब तुम्हारे गहने नहीं हैं? यह दलील सुनकर वह मुस्कुरा कर रह जातीं।
सांची से उन्हें कई शिकायतें हैं। उसने हमेशा मां को बोझ की तरह देखा। उन्हें हमेशा अकेले खाने को दिया। कभी बेटे या बच्चों के साथ खाना नहीं परोसा। जब कभी शरद कहता कि साथ खाएंगे तो वह उसे समझा देती कि मां को हार्ट की दवा देनी है, उन्हें समय पर खाना देना ज्ारूरी है। सच्चाई यह थी कि वह मां को स्वादिष्ट भोजन से दूर रखना चाहती थी। बेटे ने भी कभी यह नहीं देखा कि मां ने क्या खाया, दवा ली या नहीं। छुट्टी हो या त्योहार, मां के खाने का मेन्यू और समय निर्धारित था। एकाध बार बेटे के सामने मुंह खोलने की कोशिश की तो तुरंत बहू ने समझा दिया, 'देखो मां, शरद वैसे ही ऑफिस में परेशान रहते हैं और आपके कारण घर में कलह हो, यह मैं बिलकुल नहीं चाहती। आपको यहां रहना है तो सबके साथ एडजस्ट करके रहना होगा, वर्ना आप भाईसाहब के यहां जा सकती हैं। यह सुन कर जानकी देवी सन्न रह गईं।
बाकी बेटे भी कोई कम तो न थे। हां, यह अलग बात कि यह घर जानकी देवी का था। उनकी बरसों की संजोई यादें यहां थीं। कई हसीन पलों का गवाह था यह घर। कई बार मन होता है उनका कि शरद से सब कहें, मगर बहू के उलाहनों का भय उनका मुंह खुलने न देता।
धीरे-धीरे जानकी देवी का खाना कम होता जा रहा था। अब एक रोटी सुबह और एक शाम खाने लगीं। कम खाने से आंतें चिपक गईं और पेट में दर्द रहने लगा। दिन-प्रतिदिन दुबली होती जा रही थीं। दूध और कैल्शियम की कमी के कारण उनकी टूटी हड्डी भी नहीं जुड पा रही थी। मां घर में होते हुए भी नहीं थीं या अस्तित्व-हीन हो चुकी थीं।
दो-तीन दिन से उन्हें तेज्ा बुख्ाार और खांसी थी। बार-बार आंख और नाक से पानी बह रहा था, कमज्ाोरी के कारण बैठ नहीं पा रही थीं, बीच-बीच में उल्टी हो रही थी, मगर सांची ने शरद को कुछ भी नहीं बताया। जानकी देवी कमरे में पडी कराहती रहीं, ठीक से सफाई न होने के कारण कमरे में दुर्गंध आ रही थी। जानकी देवी को उठना था और वह बहू को आवाज्ा दे रही थीं, मगर सांची अपनी दोस्त के घर गई थी। जब असह्य हो गया तो जानकी देवी उठीं और वॉकर लेकर चल दीं। टॉयलेट से वापस आते हुए एकाएक उन्हें चक्कर आया और वह बेहोश होकर गिर पडीं। शरद के घर आने का वक्त हो रहा था। उसी समय सांची घर लौटी। ताला खोल कर किचन में गई और नाश्ता तैयार करने लगी।
शरद जब अंदर आ रहा था तो उसे मां के कराहने की आवाज्ा सुनाई दी। सांची से पूछा, 'मां ठीक हैं सांची?
'हां बिलकुल ठीक हैं। तुम नाश्ता करो। दोनों चाय पीने लगे। मां को कुछ होश आया तो वह उठने की कोशिश करने लगीं, मगर दोबारा गिर पडीं। आवाज्ा सुनकर सांची और शरद कमरे में आए। मां की दशा देखकर शरद अचंभित रह गया। जर्जर, कमज्ाोर, अंदर धंसी आंखें..., इतने ही दिनों में मां ज्िांदा लाश की तरह हो चुकी थीं। शरद का मन भर आया। उसने सहारा देकर मां को उठाया और बिस्तर पर लिटा दिया। आज एक अरसे बाद बेटे को देख कर मां का मन भर आया, 'मां तुम तो बहुत कमज्ाोर हो गई हो।
जानकी देवी की नज्ारों ने उलाहना दिया और कमज्ाोर आवाज्ा में कहा, 'बेटा तुझे आज पता चला। चलो, कम से कम मेरा दर्द तो महसूस किया तुमने। वैसे मैं ठीक हूं, तुम परेशान न हो।
शरद ने मां को डॉक्टर को दिखाया। एकाएक अपराध-बोध ने शरद को जकड लिया। सोचने लगा, 'सांची तो बहू है। वह भी घर की सारी ज्िाम्मेदारियां निभाती है और मां के काम करती है। लेकिन वह बेटा होते हुए इतना निष्ठुर कैसे हो गया? एक दिन में तो मां की यह हालत हुई नहीं है, वह तो धीरे-धीरे मौत के करीब पहुंची हैं...., शरद की आंखों से आंसू गिरने लगे। सोचने लगा, मां की इतनी सेवा करेगा कि वह उसे माफ कर देंगी। अब वह सांची के भरोसे नहीं रहेगा, ख्ाुद मां की ज्िाम्मेदारियां उठाएगा। शरद सोच ही रहा था कि मां की ब्लड टेस्ट रिपोर्ट देख कर डॉक्टर बोले, 'इन्हें डेंगू है और इनकी हालत अभी नाज्ाुक है। कमज्ाोर भी बहुत हैं। पैर में फे्रक्चर है, गिरने से कमर और कूल्हे में भी चोट लगी है। हम कोशिश करेंगे मगर इलाज थोडा मुश्किल हो सकता है। इन्हें अस्पताल में ही रखना होगा।
न जाने क्या हुआ, डॉक्टर की बात सुनकर मां का चेहरा खिल उठा। उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया गया। वह यही मुक्ति तो चाहती थीं। शरद ने कहा, 'मां तुम चिंता मत करो, आजकल हर बीमारी का इलाज है, मैं तुम्हारा इलाज करवाऊंगा। मगर जानकी देवी के चेहरे पर चिंता की रेखा तक नहीं थी। वह मुस्कुराते हुए बोलीं, 'बेटा यह डेंगू है और मेरी हालत बहुत ख्ाराब है, मगर मैं ख्ाुश हूं।
'क्या? शरद विस्मय से बोला।
'हां बेटा, अब मुझ पर हो रहे ख्ार्च कोई नहीं गिनाएगा। मेरे खाने पर अंकुश नहीं लगेगा और मुझे अकेलेपन से मुक्ति मिलेगी। बहू भी मेरे बोझ से आज्ााद हो जाएगी। दोष सांची का नहीं है बेटा, लेकिन जब अपने ही कोख से जन्मा बेटा मां को पराया समझने लगता है तो दुख होता है। मैंने पांच बेटों को अपने रक्त-मांस से गढा मगर आज पांचों के पास मुझे देने के लिए थोडा सा वक्त और प्यार नहीं है। काश कि मेरी बेटी होती, जो मां के दर्द को समझ पाती। अस्पताल में भर्ती होने पर इसीलिए ख्ाुश हूं मैं। इस बहाने घर के पिंजरे से मुझे मुक्ति मिलेगी।
'मां, शरद ने मां के जर्जर हाथ को सहलाते हुए कहा, 'मुझे माफ कर दो। मैं तुम्हारा हाल समझ ही नहीं सका। अपनी नौकरी, बच्चों और घर-परिवार में उलझा रह गया। मुझसे भूल हो गई।
सांची चुपचाप खडी मां-बेटे को देख रही थी। पर जानकी देवी बोली जा रही थीं, 'बेटा, मैंने अपनी रोटी भी कम कर दी कि कहीं तुम्हारे घर का बजट न बिगड जाए। मेरे पास न तो एफडी है, न पेंशन। मैं निर्भर थी तुम लोगों पर, अतिरिक्त बोझ नहीं डालना चाहती थी। कैसे कहती कि मुझे यह चाहिए? कोई बात नहीं बेटा, अब तो मुक्ति का द्वार मिल ही गया है। मैं अब अस्पताल से ही मुक्त हो जाना चाहूंगी। यहां अच्छा लग रहा है मुझे। तुम लोग सदा सुखी रहो बच्चों। मेरे पास आशीर्वाद देने के अलावा कुछ नहीं है। धन से हीन हूं। अपने भाइयों को भी मेरा आशीर्वाद और प्यार देना। अब मेरी जप माला और पूजा की पुस्तक दे दो। सांची ने मां को पुस्तक और माला दी।
जानकी देवी ने धरती मां को प्रणाम किया और कहा, 'मां, आज आपकी उदारता को मैं प्रणाम करती हूं। फिर वह पुस्तक खोलकर मंत्र पढऩे लगीं और हाथ में माला लिए जाप करने लगीं। रात गहरा गई थी। शरद व सांची मां के बिस्तर के पास ही सिर झुकाए बैठे थे।
'सांची तुमने मां की हालत की सही जानकारी मुझे नहीं होने दी, यह शिकायत तुमसे हमेशा रहेगी, शरद ने कहा।
'शरद यह समय शिकायत करने का नहीं है, मां का बेहतर इलाज कैसे हो सकता है, यह सोचो, सांची ने जवाब दिया।
दोनों बात ही कर रहे थे कि मां की गर्दन एक ओर लुढक गई। शरद दौड कर डॉक्टर को बुलाने गया। सांची मां के हाथ-पैर मलने लगी। डॉक्टर ने देख कर कहा, 'सॉरी....हम आपकी मां को नहीं बचा सके।
'मुझे माफ कर दो मां, कहकर शरद मां के पैरों पर गिर पडा।
करुणा पांडे