Move to Jagran APP

दायरा रिश्तों का

हमेशा सहारे की जरूरत क्यों पड़े स्त्री को? क्या जरूरी है कि किसी बड़े ताकतवर पेड़ की छांह में वह सुरक्षित रहे? वह खुद भी तो पेड़ बन कर दूसरों को छांव दे सकती है...। बरसों पति की छत्रछाया में रहने के बाद जीवन की चुनौतियों का अकेले सामना करने

By Edited By: Published: Mon, 02 Feb 2015 11:17 AM (IST)Updated: Mon, 02 Feb 2015 11:17 AM (IST)
दायरा रिश्तों का

हमेशा सहारे की जरूरत क्यों पडे स्त्री को? क्या जरूरी है कि किसी बडे ताकतवर पेड की छांह में वह सुरक्षित रहे? वह खुद भी तो पेड बन कर दूसरों को छांव दे सकती है...। बरसों पति की छत्रछाया में रहने के बाद जीवन की चुनौतियों का अकेले सामना करने की हिम्मत एक स्त्री ही जुटा सकती है। एक मर्मस्पर्शी कहानी।

loksabha election banner

शिमला की घुमावदार सडकों और हरी-भरी वादियों के बीच बसे उस छोटे से रमणीक स्थल पर स्थित 'आनंद धाम' के दफ्तर में सुलभा से भेंट हो जाएगी, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। गहरा नीला रंग उसे प्रिय था। नीले रंग की साडी में उसने सलीके से दुर्बल काया को छिपा रखा था। हाथ में पकडे पेन को रजिस्टर पर तेजी से दौडाते हुए मैं उसको अपलक निहारती रह गई।

माथे पर चौडी कत्थई बिंदी और मांग में रक्तिम सिंदूर की आभा पुष्टि कर रही थी कि इतने संघर्ष के बाद भी अतीत से जुडे चंद पृष्ठों को भूलने में वह असमर्थ रही थी। मेज की ड्राअर खोलकर उसने चाभी का गुच्छा निकाला तो मैंने उसे पुकारा, 'सुलभा पहचाना नहीं क्या मुझे?'

वह चौंकी जरूर, मगर मुझे पहचान लिया हो, ऐसा नहीं लगा। उसका शुष्क व्यवहार मुझे अचरज में डाल गया। समय का अंतराल चाहे जितना हो, इतना भी नहीं होता कि चेहरा पहचानने में मुश्किल हो।

चश्मे को पोंछकर उसने फ्रेम ऊपर खिसकाया और पहचानने की कोशिश करने लगी। मैंने उसे फिर याद दिलाया, 'सुलभा मैं देवयानी... तुम्हारी शालिनी बुआ की बेटी...'

'अरे दीदी इतने बरसों बाद यहां कैसे?'

उसने मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा। फिर दराज बंद कर चाभी का गुच्छा पास ही खडे चौकीदार को पकडा कर कमरा बंद करने का निर्देश दिया और कमरे से बाहर निकल आई। कुछ ही कदम के फासले पर हरी-भरी झाडिय़ों और लतिकाओं से घिरा हुआ उसका घर था। लॉन का गेट खोलते हुए उसने पूछा, 'मेरा पता आपको किसने दिया?'

'दरअसल मैं विकलांग बच्चों पर एक किताब लिख रही हंू। इंटरनेट पर आनंद धाम का नाम पढा तो चली आई।'

दिसंबर की ठंडी धूप सामने वाले पेड पर अटकी थी। ठंडी हवाओं से सिहरन महसूस हुई तो मैंने शॉल ओढ ली।

'यहां शाम को ठंड बढ जाती है, चलिए अंदर चल कर बैठें।'

पलस्तर उखडे कमरे में चार कुर्सियां और मेजपोश से ढकी एक टेबल पर फाइलों के ढेर रखे थे। कोने में पुराना पलंग था, जिस पर कांच सी पारदर्शी आंखों में तटस्थ भाव लिए एक छोटा बालक लेटा था। सुलभा को देख कर उसके चेहरे पर स्मित हास्य के चिह्न दिखे। न जाने किस भाषा में वह बोल रहा था और वह उसी भाषा में जवाब दे रही थी।

मैं एकटक उसे देखती रही। वैसी ही गोरी, छरहरी, कंटीली भौहें, सुतवां नाक, मृगनयनी सी आंखें... कुल मिला कर आज भी उसमें आकर्षण है, पर शरमाई सी रहने वाली सुलभा अब आत्मविश्वास से भरपूर दिख रही थी, जिसने जीवन की टेढी-मेढी पगडंडियों और अंधेरे रास्तों पर आने वाली हर अडचन को चुनौती के रूप में स्वीकार किया था।

'दीदी, यह मानव है मेरा बेटा।'

बच्चे के कपडे बदलती हुई सुलभा बोली तो मैं पशोपेश में पड गई थी। इतना तो मुझे मालूम था कि आनंद के घर की चौखट लांघकर जब वह निकली थी तो उसका कोई बच्चा नहीं था।

सुलभा चाय बनाने अंदर गई तो मैं पास ही पडी कुर्सी पर आंखें मूंद कर अधलेटी सी हो गई। हवा के झोंकों से यादों के किवाड खुलने लगे। मामा-मामी के टूटे रिश्तों की बदरंग तसवीर, सहमी सी सुलभा, जिसने माता-पिता के तलाक के बाद दर-दर की ठोकरें खाई थीं। जब मामा-मामी पुनर्विवाह की डोर में बंध गए तो नन्ही सुलभा को मां ही लेकर आईं अपने घर।

यूं तो मां ने कभी अपनी बेटी या भाई की बेटी में अंतर नहीं किया, लेकिन सुलभा का भावुक मन कई बार विचलित हुआ था। कई बार उसका जी चाहता कि उसकी जिद पर कोई डांटे, रोने पर दुलार करे, पर उसे रोने का अवसर ही कब देती थीं मां। इतना लाड जताने के बाद भी उसे अपनी जननी न जाने क्यों याद आती थी? कई बार मेरी गोद में सिर रखकर वह सिसकी थी। कहती, 'दीदी, चिडिय़ा भी अपने बच्चों की देखभाल तब तक करती है, जब तक वे उडऩा न सीख जाएं। अगर मुझे पाल नहीं सकते थे तो जन्म ही क्यों दिया उन्होंने?'

मैं उसे समझा नहीं पाई कि कभी-कभी स्वार्थ का पलडा फर्ज के पलडे से भारी हो उठता है। उस कच्ची आयु में यह बात कैसे समझ पाती वह? बडी हुई तो माता-पिता के तलाक के लिए दोषी मां को ही ठहराया उसने।

....आसक्ति की हद तक चाहत और पत्नी की हैसियत से पूरा सम्मान मिला था उसे। कोई भी उनके सुख-संसार से ईष्र्या कर सकता था। आनंद की सुबह सुलभा के जागने से और रात उसके पलक झपकने से होती थी। दो दिन के लिए भी पीहर आती तो पीछे-पीछे चले आते। हम हंसते कि दो दिन की जुदाई भी बर्दाश्त नहीं कर पाते आनंद।

आनंद इंजीनियर थे। महत्वाकांक्षाएं आकाश छू लेने को मचलती थीं। भविष्य की योजनाएं बनाते हुए सपनों के काल्पनिक संसार में खो जाते। ख्ाुद सुलभा भी तो उन्हें शानदार जीवन जीते देखना चाहती थी। एक दिन लाड में बोले, 'बहुत जल्द सुलभा यह फ्लैट छोड कर बडी कोठी में जाने वाली है।'

'कोठी?' वह चौंकी थी।

और छह महीने में नई कोठी बन कर भी तैयार हो गई। गृह प्रवेश में शहर की जानी मानी हस्तियों को आमंत्रित किया गया था। मेहमानों से कोठी के वास्तु-शिल्प की प्रशंसा सुनकर आनंद गदगद हो रहे थे। इंद्रपुरी के वैभव की बातें लोगों ने पुस्तकों में पढी थीं, पर यहां तो सब कुछ आंखों के समक्ष था। हवन कुंड से उठती धूप की सुगंध से संपूर्ण परिवेश सुशोभित हो रहा था। तभी आनंद की भाभी का स्वर सुनाई दिया, 'ये नाम-काम किसके लिए है भैया? घर में बच्चे हों, तभी सब अच्छा लगता है।'

'बच्चे भी होंगे। वक्त आने दो।'

'शादी के दस साल हो गए, क्या अब भी वक्त नहीं आया?'

'दस साल? मुझे तो लगता है अभी कल ही सेहरा बांधा था मैंने।'

पिछले बीस बरसों में निरंतर उसके पत्र मुझे न्यूयार्क में मिलते रहते थे। कई बार फोन पर भी बात हुई। कभी ऐसा नहीं लगा कि कोई परेशानी है। यही महसूस होता रहा कि वह पूरी तरह अपने संसार में रची-बसी है। फिर ऐसा क्या हुआ कि उसके शबनमी आंगन को अकस्मात काली घटाएं निगल गईं?

अपने आख्िारी पत्र में उसे लिखा था, 'सारे बंधन तोड कर एक दिन मैं आजाद हो जाऊंगी। नासूर बन गए जुडाव की लहूलुहान पीडा से मुक्ति का सुख अधिक आनंददायक होगा। लगता है वह समय आ गया है। जिंदा रही तो जरूर मिलूंगी- आपकी सुलभा।'

उसके बाद वह कहां गई, मुझे पता न चल सका। मां रही नहीं। पास-पडोस के लोगों से पूछताछ की तो सही उत्तर नहीं मिला था।

...सुलभा के घर पर बैठे काफी समय निकल चुका था। टेबल पर रखी चाय बर्फ हो चुकी थी। सहसा मेरा ध्यान साइड स्टूल पर रखे आनंद के फोटो की तरफ चला गया। कुरेदने के विचार से पूछ बैठी, 'सुलभा। आनंद को भूली नहीं अब तक?'

'अतीत को भुलाना इतना सरल नहीं है दीदी। यादें धूमिल हो जाती हैं, मिटती नहीं कभी।'

'तो फिर क्यों छोड दिया वह सब?'

'जो कुछ किया आनंद ने ही किया,' उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। आंखों से बहते आंसू दांपत्य की टूटन और सामाजिक प्रताडऩा के त्रास से उत्पन्न हताशा के सूचक थे।

मैंने फिर पूछा, 'कुछ कहोगी नहीं?'

'क्या कहंू? हारे हुए जुआरी की तरह ख्ााली हाथ लौट आई हंू। जिस कोठी को घर बनाने में मेरा एक-एक पल बीत रहा था, उससे मेरा इतना ही संबंध था? घर तो पुरुष का होता है। स्त्री तो झूठा भ्रम पाल बैठती है और इस भ्रम में जीवन बिता देती है।'

कुछ खोजती सी सुलभा की आंखें बादलों से भर आती थीं, मगर उन आंसुओं की आवाज सुनने वाला उससे दूर जा चुका था। मैं अपने विचारों में खोई सुलभा के भीतर जमे हिमखंड को पिघलते देख रही थी। वह बोल रही थी, 'आनंद को बच्चों से बहुत प्यार था। बच्चों के लिए अपने सौ जरूरी काम छोड कर भी दौड पडता था वह। सास से बेटे की उदासी देखी नहीं जाती थी। मौका मिलते ही मुझे घेर लेतीं, कब तक दूसरों के बच्चों से मन बहलाता रहेगा आनंद? एक प्यारा सा मुन्ना या मुन्नी पैदा करके डाल दे आनंद की गोदी में। बच्चे से घर बन जाता है। सास को तो यह एहसास अब हुआ था, मगर मुझे तो ब्याह के चार-पांच साल बाद ही चिंता शुरू हो गई थी। एक वर्ष में सैकडों टेस्ट, डॉक्टरों के चक्कर, जिसने जो कुछ बताया किया, मगर निराशा हाथ लगी। दौड में हारे हुए प्रत्याशी की तरह आनंद मायूस हो गया था, मगर मैंने हिम्मत नहीं हारी। कहती रही कि मेडिकल साइंस ने बहुत विकास किया है। सफलता न मिली तो बच्चा गोद ले लेंगे। दीदी, हम कैसे एक झूठ अपने आसपास गढ लेते हैं और जानबूझकर उससे नहीं निकलते। मैं जान ही न पाई कि प्रेम का हरा-भरा वृक्ष अब सूखने लगा है। एक दिन आनंद काम से लौटा तो बेबस चेहरा लिए बोला, एक महीने के लिए दुबई जा रहा हंू। नया कॉन्ट्रेक्ट मिला है। पेपर साइन करके वापस आऊंगा। लौटते ही किसी डॉक्टर से मिलेंगे। आनंद चला गया। मुझे क्या मालूम कि सब कुछ पूर्व नियोजित था। मेरी हां या ना का प्रश्न ही नहीं था। शुरू-शुरू में आनंद दिन में दो बार फोन करता था। धीरे-धीरे अंतराल बढा। मैं मन को तसल्ली देती कि शायद व्यस्त होंगे। मगर जब फोन आने बंद हुए तो मेरा माथा ठनका। आनंद के नंबर पर संपर्क नहीं हो पा रहा था। दीदी, तीन साल ऐसे ही बीत गए। मुझे तो आनंद का पता-ठिकाना तक मालूम न था। मन में अजीब-अजीब ख्ायाल आते। उन्हीं दिनों पडोस के शर्मा साहब कुछ दिनों के लिए दुबई गए। वापस लौट कर उन्होंने जो बताया, उसे सुन कर तो जैसे मुझे लकवा मार गया था। आनंद अपनी भाभी की बहन के साथ लिव-इन में था। भाभी कोई चाल चल रही हंै, इसका आभास तो था मुझे, लेकिन आनंद अपनी भाभी की बहन के घर रहते हुए इस हद तक गिर जाएगा, यह तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी। महीनों मैंने इसी भ्रम में काट दिए कि शायद यह झूठ हो, लोग अफवाहें फैलाने में माहिर होते हैं। मगर सच को एक दिन स्वीकारना ही था। आनंद को इतना प्रपंच करने की क्या जरूरत थी? शायद थोडी ग्ौरत बची थी उसमें। कुछ दिन बाद आनंद लौट आया। वह दूसरी शादी कर रहा था। उसने मुझसे कहा कि बच्चे के लिए वह दूसरी शादी कर रहा है। उसने यह भी कहा कि मैं चाहूं तो शादी के बाद भी उसके साथ रह सकती हूं।'

सुलभा डबडबाई आंखें लिए बोलती जा रही थी, 'दीदी, कहते हैं रिश्ते जीवन को अर्थ देते हैं। मगर मैंने जिस रिश्ते को सर्वस्व दिया, उसी ने मुझे तनहा कर दिया। आनंद का घर छोड कर कहां जाती? मायके में मेरा था ही कौन? मेरे पास सोने की चार चूडिय़ां थीं, जिन्हें बेच कर ट्रेन से शिमला आई। यहां कई दिन काम ढूंढती रही। फिर ऐसा भी हुआ कि तीन दिन तक खाना खाने के भी पैसे नहीं बचे। भूखे पेट इधर-उधर भटक रही थी, एक शाम चक्कर आ गया। होश आया तो पाया कि सामने एक स्त्री खडी है। वह भाग्यलक्ष्मी थीं। वही मुझे इस आश्रम में ले आईं। आश्रम में बच्चों को पढाना शुरू किया तो लगा मेरे मातृत्व को पूर्णता मिल रही है। जीवन ने सहज गति पकड ली। फिर कई दिन से भाग्यलक्ष्मी को आश्रम में नहीं देखा तो उनके घर चली आई मिलने। मानव उन्हीं का बेटा है। सडक हादसे में उन्होंने पति को खो दिया था, ख्ाुद कैंसर की बीमारी से लड रही थीं। वह मानव और आश्रम को लेकर चिंतित थीं। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं आश्रम के साथ उनके विकलांग बेटे की जिम्मेदारी भी उठा सकती हूं?'

'आनंद कहां है आजकल?' मैंने बात काटते हुए बीच में ही पूछा।

'बेटे के साथ वहीं....। सुना है, भाभी की बहन बेटा छोड गई और आनंद की संपत्ति बटोर कर वापस लौट गई पूर्व प्रेमी के पास। आनंद ने पेपर में इश्तहार डाला था कि जहां भी हंू लौट आऊं। मगर जिस राह मुझे जाना नहीं, उसकी तरफ देखूं क्यों? सम्मानित जीवन जीने की लालसा में हमेशा स्त्री ही क्यों भटकती आई है? मैं बच्चा पैदा करने में सक्षम नहीं थी, लेकिन जरा सोचो दीदी, क्या यही दोष आनंद में होता तो क्या मैं इस तरह उससे नाता तोडती? औरत तो पुरुष के दोष को भी अपने सिर ओढ लेती है। मगर अब लगता है कि क्यों किसी पुरुष के आसरे की जरूरत पडती है स्त्री को? क्या जरूरी है कि हमेशा किसी बडे पेड की छांह मिलती रहे। ख्ाुद भी तो पेड बन कर किसी को छांव दी जा सकती है।'

सुलभा के दिल में बरसों का गुबार जमा था, जिसे वह मेरे सामने निकाल रही थी। वह फिर बोली, 'पहले आनंद को बच्चे की जरूरत थी, मेरी नहीं। अब बच्चा है तो उसे बच्चे के लिए मां की जरूरत होगी। मेरी उपयोगिता क्या सिर्फ मां बनने के लिए है? रिश्तों के ऐसे दायरे में बहुत सी मजबूर औरतें खडी होती आई हैं, पर मैं अब सिर्फ किसी की जरूरत बन कर नहीं जी सकती। रिश्ते ढोए नहीं जाते, न उन्हें हमेशा निभाया जा सकता है। उन्हें जिया जाता है दीदी। ढोते रहे तो नासूर बन कर उम्र भर पीडा देते हैं रिश्ते...।'

मैं हैरान थी। एक शर्मीली लडकी एकाएक इतनी बोल्ड कैसे हो गई? आहत मन इतना स्वाभिमानी कैसे हो गया कि भविष्य को इतनी कडी चुनौती दे डाली?

आसमान पर चांद का टुकडा कब खिडकी की राह कमरे में दाख्िाल हो गया, पता ही नहीं चला। उठकर बाहर निकली तो चांद मुस्करा रहा था....।

पुष्पा भाटिया


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.