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बस ऐसे ही...

मेरी बमुश्किल तीन-चार लोगों से पहले भेंट हुई थी, वह भी औपचारिक, इसलिए सभी से औपचारिक अभिवादन और परिचय के बाद मैं पुरुषों के एक ग्रुप में मूक दर्शक की भांति खड़ा हो गया था।

By Edited By: Published: Fri, 09 Sep 2016 01:44 PM (IST)Updated: Fri, 09 Sep 2016 01:44 PM (IST)
बस ऐसे ही...
इंदिरा कॉलोनी में शिफ्ट होने के बाद यहां शादी जैसे किसी बडे सार्वजनिक समारोह में सम्मिलित होने का यह मेरा पहला अवसर था। लगभग पूरी सोसाइटी ही आमंत्रित थी। मेरी बमुश्किल तीन-चार लोगों से पहले भेंट हुई थी, वह भी औपचारिक, इसलिए सभी से औपचारिक अभिवादन और परिचय के बाद मैं पुरुषों के एक ग्रुप में मूक दर्शक की भांति खडा हो गया था। हम पुरुष वैसे भी गपशप के मामले में स्त्रियों से काफी पीछे हैं। मैं देख रहा था कि पत्नी बेला स्त्रियों के झुंड में सक्रिय भूमिका अदा कर रही थी। सबसे हंसते-बोलते वह हर बात में अपना मत भी दृढता से रख रही थी। हुंह, चौबीसों घंटे खाली बैठे रहने वालों का काम ही क्या है? इधर-उधर घूमना, लगी-बुझाई करना...वैसे भी इन स्त्रियों के पास बातों के अलावा और है ही क्या..., अकसर मैं सोचता था। बेला ने बताया कि सोसाइटी की लेडीज ने अपना व्हॉट्स एप ग्रुप बना रखा है और वह भी इससे जुड गई है। 'इन लोगों को तो देखो! दिन भर व्हॉट्स एप पर लगे रहने के बावजूद इनकी बातें खत्म नहीं होतीं। एक हम हैं, राजनीति और क्रिकेट न हो तो हमारे पास विषय ही न बचें', डॉक्टर मल्होत्रा ने मेरे मन की बात कह दी। 'हम पुरुष अपनी ऊर्जा और वक्त इधर-उधर की बातों में नहीं गंवाते। हम उसे सोचने या रचनात्मक कार्य में लगाते हैं,' इंजीनियर शर्मा जी ने अपना मत रखा। 'ऐसा तो है नहीं कि हम अपना व्हॉट्सएप ग्रुप नहीं बना सकते। टेक्नोलॉजी में हम स्त्रियों से आगे हैं लेकिन हम इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहते, क्यों मेहता जी?' मेरे पास खडे राय साहब ने मेरा कंधा थपथपाया तो मैंने कठपुतली की तरह गर्दन हिलाई। 'वैसे मेहताजी यहां से पहले कहां थे आप?' 'जी, मैं ग्वालियर से आया हूं, हमारा पैतृक घर वहीं है। संयुक्त परिवार है। बैंक मैनेजर पद पर प्रमोशन के साथ स्थानांतरण हुआ तो बीवी-बच्चों के साथ घर से इतनी दूर आना पडा। दो बेटे हैं। बडा घर पर ही है, छोटा हमारे साथ आया है शादी में। ग्वालियर में तो बच्चे दादा-दादी के पास रह जाते थे, अब यहां किस पर भरोसा करें...।' 'जी, यही तो समस्या है। हमारी पीढी तो माता-पिता के साथ रही है मगर अब बच्चे पढाई के लिए घर से बाहर निकलते हैं तो जीवन भर बाहर ही रह जाते हैं। पहले हॉस्टल में, फिर खुद कमाने लगते हैं तो अपना घर, गाडी खरीद लेते हैं। जितना मोटा पैकेज, उतना ज्य़ादा काम!' प्रोफेसर सिन्हा बोले। 'भई हमारे जमाने में तो घर-गाडी जैसी सुविधाएं रिटायर होने के बाद ही मिलती थीं। मेरे बेटे सलिल की नौकरी लगे अभी दो साल ही हुए हैं और फ्लैट खरीदने की प्लैनिंग भी शुरू हो गई। गाडी तो पहले ही ले ली', सीए मित्तल साहब बोले। 'अरे साहब, अब तो लोन का कुछ ऐसा ट्रेंड चल निकला है कि पूछिए मत। हमारे बैंक में आधे फॉम्र्स तो लोन के लिए ही भरे जाते हैं। हम तो उधार की खेती का पानी भी गले के नीचे उतारना पाप समझते थे और यह जेनरेशन है कि फ्रिज, टीवी सब ईएमआई पर ले रही है!' मैं भी बातों के दंगल में कूद पडा था। 'जनाब, इस जेनरेशन के खर्चे ही ज्य़ादा हैं। ईएमआई पर ही जीना पडेगा उसे! मोबाइल, प्ले स्टेशन, होम थिएटर, एसी, कार...अब लग्जरी नहीं, जरूरत बन गए हैं..,' एडवोकेट कमलेश जी भी भला कहां पीछे रहते। 'मेरे बेटे-बहू तो आधी सैलरी जिम और हेल्थ सप्लीमेंट्स पर ही लुटा देते हैं। टोकता हूं तो कहते हैं कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है...। अरे भई, सेहत सबको चाहिए मगर इस पर पानी की तरह पैसा बहाना कहां की समझदारी है? क्यों मल्होत्रा साहब, आप तो डॉक्टर हैं, कुछ बोलिए,' शुक्ला जी ने अपनी बात समाप्त कर बॉल फिर डॉक्टर साहब के पाले में उछाल दी थी। 'जी, अब तो ऐसी-ऐसी बीमारियां हो गई हैं, जिनके बारे में न कभी पढा-न सुना। इस चीज से एलर्जी, उससे इन्फेक्शन...। कल दो साल के एक बच्चे को उसके पेरेंट्स मेरे पास लेकर आए। उसे आटे, सूजी जैसे अन्न से एलर्जी है। बच्चे को खिलाएं क्या? जिस उम्र में बच्चा खाना सीखता है, उसी उम्र में यह सब? दूसरी ओर सिक्स पैक्स बनाने और अच्छी फिगर के लिए लोग जिम में पैसा और पसीना बहा रहे हैं। हमारे समय में यह सब कहां था?' 'जरूरत ही कहां थी डॉ. साहब! रोज एक प्लेट मिठाई और चावल खाकर भी हम मोटे न हुए। ठेले पर एक गिलास गन्ने का जूस चार दोस्त शेयर करके पीते थे पर कभी बीमार नहीं पडे। हमें कभी मिनरल वॉटर की बोतल लेकर नहीं घूमना पडा। जहां प्यास लगी, सार्वजनिक नल खोल कर पानी पी लिया। नंगे पांव ही गली-मुहल्ले और बाजार की खाक छान आते थे। कभी बीमार पडे तो दादी-नानी के घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाते थे। हॉस्पिटल का मुंह तो तभी देखते थे, जब सर्जरी की जरूरत पड जाए...,' खान साहब बोले। मुझे अब बातों में मजा आने लगा था। कौन बोल रहा है, यह मायने नहीं रखता था, क्या बोला जा रहा है, इस पर मेरे कान लगे थे। मुझे पता ही नहीं चला कि कब मैं पूरे जोश से बातचीत का हिस्सा बन गया, 'अजी अस्पताल छोडिए, स्कूल-कॉलेजों का भी यही हाल है। छोटे बेटे का नर्सरी में एडमिशन करवाने में मेरी हालत खराब हो गई। हमारा ही इंटरव्यू ले लिया स्कूल वालों ने...।' 'बेचारे छोटे-छोटे बच्चों को देखो, बस्तों के बोझ से कंधे दबे जा रहे हैं। होमवर्क और प्रोजेक्ट्स का टेंशन उनसे ज्य़ादा पेरेंट्स को होता है। उनका बचपन टीवी, विडियो गेम्स, आइफोन में सिमट गया है। पकडा-पकडी, सतोलिया, गिल्ली-डंडा, लुकाछुपी जैसे हमारे आउटडोर गेम्स की तो उन्हें जानकारी ही नहीं है। हम स्कूल से छूटने पर घर आकर जो बस्ता पटकते थे, अगले दिन स्कूल जाते वक्त ही उसे उठाते थे। सूरज ढलने तक बाहर खेलना और मां द्वारा खाने के लिए पुकारने पर ही घर लौटना हमारा रूटीन था। मुझे तो आजकल के बच्चों पर दया आती है।' 'अब तो ई बुक्स का जमाना आ रहा है, बस्तों के बोझ से बच्चों को छुटकारा तो मिल जाएगा लेकिन संसाधनों पर निर्भरता बढ जाएगी। नेट के बगैर तो अब बच्चे गाय पर भी चार लाइनें नहीं लिख सकते।' 'हम तो माता-पिता व दोस्तों से पूछते थे, किताबें खंगालते थे। अब नेट ही बच्चों का दोस्त है। सच्चे दोस्त तो आजकल बस किस्से-कहानियों में ही मिलते हैं।' 'दोस्तों की भली कही! कल का ही किस्सा बताता हूं। बेटा आया है। कल मैंने पत्नी के साथ अपने पुराने दोस्त से मिलने का मन बनाया। बेटे ने मुझसे कहा भी कि फोन करके पूछ लीजिए, वे फ्री हैं या नहीं। मैंने कहा, उसने वीआरएस ले लिया है और मैंने भी, इसलिए हम सब फ्री हैं। दोस्तों के यहां जाने से पहले कोई पूछ कर जाता है क्या? बेटा बेचारा चुप रह गया। दोस्त और उसकी पत्नी बडे प्यार से मिले। पांच मिनट में ही चाय-नाश्ता भी आ गया मगर 10 मिनट बीतते-बीतते अंदर से खुसुर-पुसुर शुरू हो गई। दोस्त ने क्षमा मांगते हुए कहा, 'दरअसल बच्चों के साथ बाहर डिनर का प्रोग्राम था।' मेरा बेटा तुरंत यह कहते हुए उठ खडा हुआ कि कोई बात नहीं अंकल, मम्मी-पापा को फिर कभी ले आऊंगा। अंदर से उसकी बहू भी आ गई। बोली, 'आप पहले फोन कर लेते तो हम अपना प्रोग्राम बदल लेते।' बेटा हमें घूर रहा था। हम खिसियाते हुए घर लौटे। 'अब तो किसी के घर जाने का जमाना ही नहीं रहा। व्हॉट्स एप पर ही जन्मदिन, एनिवर्सरी की बधाई के बुके और केक भेज दो, राखी की फोटो भेज दो, बदले में फोन पर ही रिटर्न गिफ्ट का फोटो आ जाएगा।' 'बातों से पेट भरेंगे क्या? चलो खाना ले लेते हैं। कोई मनुहार करने नहीं आएगा। अब तो बराती-घराती सब बराबर हैं,' जैन साहब ने याद दिलाया तो हम सब खाने के पंडाल की ओर बढऩे लगे। तभी एक पुराने परिचित नजर आ गए तो मैं उनसे बतियाने रुक गया। 'अरे मेहता साहब कहां रह गए थे? आपने तो आते ही इतने सारे नए दोस्त बना लिए, हमें भी तो मिलवाते उनसे?' शर्माजी ने उलाहना सा देते हुए कहा। अरे जी बस....क्या करें टाइम पास कर रहे थे। फुर्सत ही कहां मिलती है हमें। अब देखिए न, मेरा छोटा बेटा अभी नर्सरी में है पर बारहों महीने उसके टेस्ट चलते रहते हैं। उसके टाइमटेबल के अनुसार ही उसकी मम्मी कहीं आने-जाने का प्रोग्राम बनाती है...मैं बोल ही रहा था कि बेटा दौडते हुए मेरे पास आ गया। 'बडा प्यारा बच्चा है! बिल्कुल आप की फोटोकॉपी है। बाप-बेटे ने शट्र्स भी एक जैसी पहन रखी हैं,' शर्मा जी ने छोटू को पुचकारा तो मैंने तुरंत इशारे से उन्हें टोक दिया, श्श्श्श... धीरे बोलिए। सुन लिया तो यहीं शर्ट उतार देगा। मैं दोनों भाइयों के लिए एक सा कपडा लाया था पर बडा वाला देखते ही भडक गया कि एक से कपडे पहनकर हमें बाबू बैंड नहीं बनना है। सो दूसरी शर्ट का कपडा मजबूरन मुझे सिलवाना पडा। 'सच में क्या जमाना आ गया है! हम छोटे थे तो सभी भाइयों के लिए एक से कपडे बनाए जाते थे। हममें कॉमन वाली नहीं, एकता वाली फीलिंग आती थी और इन्हें देखो, इन्हें एक से कपडे पहनते शर्म आती है....। 'अरे शुक्लाजी आपने प्लेट में इतना कम खाना क्यों लिया?' शर्माजी अब दूसरी ओर मुखातिब हो गए थे। 'आजकल तो प्लेट में खाना कम, दवाएं ज्य़ादा खानी पड रही हैं। मैं डायबिटीज, ब्लड प्रेशर को एलीट क्लास की निशानियां बताकर खुद पर गर्व करना सीख रहा हूं भाई। वैसे भी यहां तो , चाउमीन, मोमोज वगैरह के ही स्टॉल्स ज्य़ादा हैं, जो मुझे कम पसंद आते हैं,' शुक्लाजी ने कहा तो थोडी दूर खडे मिश्रा जी ने भी सहमति में गर्दन हिलाई, 'मुझे भी जंक फूड बिलकुल पसंद नहीं है मगर बच्चों को देखो, कैसे टूट रहे हैं...। अब तो छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी पसंद का ही खाते-पहनते और खिलौने खरीदते हैं। हम यही सोचकर उनकी मांगें मान लेते हैं कि क्या हुआ जो हमें यह सब नहीं मिला, कम से कम हमारे बच्चों को तो जिंदगी में कोई अभाव महसूस न हो। हमें तो जो मां-बाप पहना देते थे, पहन लेते थे, जो टूटा-फूटा खिलौना हाथ में पकडा देते थे, उसी से खेल लेते थे। मेरा तो पूरा बचपन बडे भाई-बहनों के कपडे पहन कर गुजर गया...,' मिश्रा जी को अनायास ही बचपन याद आ गया था। 'अरे आपका क्या, हम सभी का बचपन ऐसे ही गुजरा है जनाब और बचपन ही क्या, जवानी, बुढापा सब ऐसे ही गुजर रहा है। मुझे लगता है, हम जो 1950 से 1980 के बीच जन्मे हैं, बहुत ही लल्लू टाइप लोग हैं और हम अपने बुजुर्गों और नई जेनरेशन के बीच सैंडविच बन कर रह गए हैं। दोनों ही पीढी के लोग हमें इमोशनल फूल बना कर अपना उल्लू सीधा कर रहे है...,' इस बार शुक्ला जी बहुत गंभीर थे। 'नहीं दोस्तों, सच तो यह है कि हम सबसे अद्भुत और समझदार पीढी हैं। ये जान लीजिए कि हम वह अंतिम पीढी हैं, जो अपने बडों की भी सुनते हैं और बच्चों की भी। हम दुर्लभ किस्म की पीढी हैं जो जेनरेशन गैप का भी आनंद उठा रही है।' प्रोफेसर साहब के जोश से भरे वक्तव्य ने जैसे सबके भीतर जिंदगी जीने की नई ऊर्जा भर दी और लोग एकाएक निराशा से उबरने लगे...। माहौल एकदम हलका हो गया था। रात गहरा रही थी। मैं घडी देखने ही लगा था कि देखा, स्त्रियों का झुंड हंसता-खिलखिलाता हम पुरुषों के ही झुंड की ओर बढ रहा था। हमने विदा लेने में ही खैरियत समझी। 'आज तो तुम लोग बातों में ऐसे खोए कि घर लौटने का खयाल भी नहीं रहा। आखिरकार हम लोगों को ही बुलाने आना पडा,' बेला ने उलाहना दिया। 'हूं...।' 'क्यों जी, क्या बातें हो रही थीं? जरा हमें भी तो मालूम हो?' 'कुछ नहीं, ऐसे ही...घर-परिवार और समाज की...। वैसे तुम क्यों पूछ रही हो? मैं कभी पूछता हूं तुमसे कि तुम लोग क्या बातें कर रही थीं?' 'अजी, हमारी छोडिए। हमें तो यह जानने की उत्सुकता है कि आप लोग इतनी देर क्या बातें कर रहे थे? जरूर कोई खास विषय ही रहा होगा। हमारी तरह बेसिरपैर की बातें तो आप पुरुष कभी करते नहीं....क्यों है न!' 'अरे नहीं-नहीं....बस ऐसे ही...,' मैं बेला के आगे लाजवाब हो गया था। मुझे आज समझ आ रहा था कि स्त्रियां घंटों इतनी बातचीत कैसे कर लेती हैं। कहानी के बारे में : स्त्रियां बहुत बोलती हैं, अकसर पुरुषों की यही धारणा होती है लेकिन मौका मिले तो पुरुषों की गपशप भी कम नहीं होती। आसपास की जिंदगी से जुडे हैं इस कहानी के सभी पात्र। आम बातचीत को कहानी की शक्ल दी है। लेखिका के बारे में : डेढ सौ कहानियों के अलावा एक कहानी संकलन प्रकाशित। कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त। संप्रति : कोटा (राजस्थान) में निवास। संगीता माथुर

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