बड़ी मम्मी
जीवन के अनुभव यही सिखाते हैं कि हर हाल में जीना और इंसानियत का साथ देना ही जिंदगी है। कई बार जिंदगी किसी को भूल-सुधार का मौका नहीं देती, मगर कहते हैं न कि माफ करने वाला हमेशा महान होता है। एक मार्मिक कहानी।
जीवन के अनुभव यही सिखाते हैं कि हर हाल में जीना और इंसानियत का साथ देना ही जिंदगी है। कई बार जिंदगी किसी को भूल-सुधार का मौका नहीं देती, मगर कहते हैं न कि माफ करने वाला हमेशा महान होता है। एक मार्मिक कहानी।
करीब पंद्रह दिनों की घोर मानसिक और शारीरिकपीडा के बाद आज नेहा थोडी राहत की सांस ले पाई थी। मन तो अभी घायल पक्षी सा व्याकुल था। क्या सोचा था और क्या हो गया...। उसने ठंडी सी आह भरी। क्या कभी उसने सोचा था, उसे और राहुल को एकाकी जीवन जीना पडेगा! कभी उसे बिना मांगे ही शशांक जैसा सुदर्शन, हंसमुख, मिलनसार ढेर सारा प्यार करने वाला इंजीनियर पति और राहुल जैसा प्यारा बेटा सब कुछ यूं ही मिलता चला गया था। इतना सब पाकर उसे िकस्मत पर नाजहोता था। पर अचानक खुशियां हाथ से फिसलने लगीं और रह गया भयावह सन्नाटा, जिसमें नेहा और राहुल फंसे हुए खडे थे।
आठ वर्षों से वह और राहुल एक-दूसरे का सहारा बनते उस भयावह सच्चाई को झुठलाने की कोशिश में जुटे थे। फिर भी आज से पहले इस घर में पसरा सन्नाटा उसे इतना खौफनाक और त्रासदी भरा कभी नहीं लगा, न ही जीवन में मिले अकेलेपन ने उसे इतना विकल और बदहवास किया। इन वर्षों में भले ही शशांक के दिए दर्द के कारण उसके मन में सिर्फ राग-द्वेष ही पनपा था, मगर कहीं न कहीं एक आस भी थी कि शायद कभी वह लौट जाए। मगर फिर काल ने पूरी कहानी को ही खत्म कर दिया।
जीवन की जिन बुरी यादों को उसने मन में दफना रखा था, आज मौका पाते ही सारे बांध तोड यादों का समंदर दिल में उतरने लगा। लगभग आठ वर्ष पूर्व इसी कमरे में जब शशांक ने खुलकर स्वाति को अपनाने की बात की थी, बिजली सी गिरी थी दिल पर, जिसने उसका हरा-भरा संसार जला कर राख कर दिया। कितना रोई-गिडगिडाई वह शशांक के सामने, 'मुझे इस तरह बेसहारा मत करो शशांक। बिना पिता के राहुल की परवरिश कैसे होगी? मैं अकेली कैसे कर सकूंगी उसे बडा। मेरा नहीं तो उसका तो खयाल करो।'
'मैं इतना आगे चला गया हूं कि अब किसी भी हालत में स्वाति को नहीं छोड सकता। तुम स्वाति के साथ एडजस्ट कर सकती हो तो मुझे कोई ऐतराज नहीं। '
शशांक की बेहयाई देख नेहा तडप कर रह गई। दिल में जैसे किसी ने सैकडों नश्तर चुभा दिए हों। कितनी आसानी से शशांक ने यह सब कह दिया। एक बार भी अपने बच्चे के बारे में नहीं सोचा। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि विपत्ति के इस पल में किससे सहायता मांगे। उसके सास-ससुर अच्छे थे, मगर अब वे दुनिया में नहीं थे। शशांक के बडे भाई थे, जो अमेरिका में बस गए थे। मायके में मां थीं, जो स्वयं बेटों पर आश्रित थीं। तीनों भाई छोटा सा एक बिज्ानेस करके किसी तरह अपने परिवार पाल रहे थे।
कोई रास्ता न देख नेहा ने अपने स्वाभिमान और मान-सम्मान को त्याग कर घर बचाने की अंतिम कोशिश की। वह स्वाति के पास जा पहुंची। गिडगिडाने की हद तक गिर कर उससे मिन्नतें कीं, 'प्लीज्ा स्वाति, शशांक को मुझसे मत छीनो, देखो हमारा एक बेटा है। हमारी बसी-बसाई घर-गृहस्थी मत उजाडो, तुम अपनी ज्िांदगी बेहतर ढंग से गुज्ाार सकती हो। थोडा सोचो हमारे बारे में।'
स्वाति अपनी उसी सहेली की दुश्मन बन बैठी थी, जिसने कभी उसे सम्मानपूर्वक जीने की राह दिखाई थी और तब उसे मदद दी थी, जब उसके अपने भी उसके साथ नहीं थे। उसी सहेली का सब कुछ छीनते हुए उसे कोई अपराध-बोध तक नहीं हुआ। व्यक्ति ज्ारा से सुख के लिए कितना स्वार्थी हो सकता है भला! नेहा की बात पर स्वाति बोली, 'मैं क्या कर सकती हूं। शशांक तुम्हारा पति है, तुम्हीं क्यों नहीं रोक लेती उसे? तुम्हारे व्यवहार से तंग आकर ही वह मेरे यहां आता है। मैं मना कर दंूगी तो वह कहीं और चला जाएगा, मगर तुमसे वह इतनी दूर चला गया है कि तुम्हारे पास नहीं लौटेगा...।'
स्वाति की बातों से नेहा का मन गर्म रेत पर पडी मछली सा तडप उठा। उसने चुप्पी ओढ ली। वह खुद को स्वाति के सामने बौना बना चुकी थी, अब खुद को अपनी ही नज्ारों में नहीं गिरा सकती। विषम परिस्थिति का सामना उसे करना ही होगा।
शशांक ने मान-सम्मान और सामाजिकता छोड कर अपने ज्ारूरी सामानों के साथ घर छोड दिया और स्वाति के साथ रहने लगा। सात जन्म तक साथ निभाने का वादा करने वाले से एक जन्म भी न निभाया गया। शशांक के जाने के बाद वह खुद को संभाल भी न पाई कि पता चला, शशांक पटना से तबादला करवा कर रांची चला गया है। इसके बाद तो शशांक के लौटने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं।
पीछे मुडकर देखती तो नेहा को लगता कि उसी ने अपने दुर्भाग्य को न्यौता दिया था। स्वाति को पटना लाने का फैसला उसका ही था। स्वाति के पति सुधाकर की हार्ट अटैक से मौत के बाद ससुराल वालों ने कुछ दिन तो उसे ठीक से रखा, मगर धीरे-धीरे उनके ताने-उलाहने बढऩे लगे। उसके पास कोई सहारा न था। ऐसे समय में उसकी पुरानी दोस्त नेहा काम आई। उसने ससुराल वालों से इजाज्ात मांगी और स्वाति को अपने साथ पटना ले आई।
स्वाति पढी-लिखी थी। एक गार्मेंट कंपनी में उसे नौकरी मिल गई। कुछ दिन नेहा के साथ रहने के बाद उसकी के घर के पास उसने एक कमरा किराये पर ले लिया। शशांक और स्वाति का ऑफिस पास-पास था, इसलिए ऑफिस जाते हुए शशांक स्वाति को अपने साथ कार से ले जाता और अकसर दोनों शाम को भी साथ लौटते। सब कुछ सामान्य ही चल रहा था, मगर एक दिन नेहा की दोस्त रमा ने उसे चेताया कि पति और सहेली को इतनी छूट देना ठीक नहीं है। रमा ने नेहा को समझाया, 'देखो, सहेली की मदद करना सही है, मगर पति को उसके इतना करीब मत आने दो। पुरुष का क्या भरोसा, दिल कहीं भी फिसल सकता है।'
उस समय तो रमा की बातों को उसने हंसी में उडा दिया, मगर जल्दी ही वह खुद भी परेशान होने लगी। कुछ समय से उसे महसूस होने लगा था कि शशांक स्वाति का कुछ ज्य़ादा ही खयाल रख रहा था। कई बार स्वाति के सामने ही नेहा का मज्ााक उडाता या उसके काम में मीनमेख निकालता और ऐसे समय में स्वाति भी उसका साथ देती। नेहा को बडा अपमान सा प्रतीत होता। स्वाति को उसने हलका सा इशारा किया तो उसने नेहा के घर आना-जाना कम कर दिया। मगर इससे शशांक की बेचैनी बढऩे लगी। वह स्वयं स्वाति के घर आने-जाने लगा। शाम को ऑफिस से लौट कर वहीं चला जाता और फिर देर रात गए लौटता। पति के इंतज्ाार में बैठी नेहा को ग्ाुस्सा भी आ जाता। बेटा भी उपेक्षित सा महसूस करता। इसी ग्ाुस्से में उसने शशांक को कई बार भला-बुरा भी कह दिया। इससे शशांक और चिढ गया। नेहा की लाचारी और बेबसी ने शशांक को ढीठ बना दिया था।
...शशांक चला गया तो आर्थिक ज्ारूरतों और राहुल की ज्िाम्मेदारी के चलते उसने छोटा सा बुटीक खोला और खुद को व्यस्त रखने की कोशिश की। बेटा टीनएज में आ रहा था और पिता के चले जाने से उसके बाल मन पर बुरा प्रभाव पडा था। वह दिन-प्रतिदिन अंतर्मुखी होता जा रहा था। न ज्िाद करता, न किसी बात पर प्रतिक्रिया जताता। समय से पहले उसकी परिपक्वता को देख कर नेहा का दिल तार-तार हो उठता और शशांक के प्रति उसकी नफरत बढ जाती।
....एक दिन शॉपिंग कर रही थी कि पीछे से एक आवाजआई, 'कैसी हो नेहा?'
चौंककर पलटी तो शशांक और स्वाति थे। तीन-चार साल का एक बच्चा भी साथ में था। हतप्रभ नेहा कोई जवाब न दे सकी। शशांक को पहचानने में थोडा समय लगा उसे। वह इन पांच-छह वर्षों में बेहद दुबला हो चुका था। बालों में सफेदी घिर आई थी। स्वाति के बगल में खडा गोल-मटोल सा बच्चा बहुत प्यारा था।
'मैं फिर से पटना आ गया हूं। नेहा, तुमसे ज्ारूरी बात करनी है। हो सके तो मेरी बात सुन लो..,' शशांक की गुज्ाारिश ने जैसे उसे नींद से जगा दिया। वह बिना बोले राहुल का हाथ थामे तेज्ाी से आगे बढ गई। पापा को देख राहुल मचल उठा, मगर उसने लगभग दौडते हुए एक ऑटो रिक्शा को रोका और उसमें बैठ गई। पहली बार उसके कलेजे में ठंडक पडी। जोश में आकर शशांक ने फैसला तो ले लिया, मगर अब लज्जा, विश्वासघात और आत्मग्लानि की पीडा उसे चैन से जीने नहीं दे रही थी।
नेहा के दिल को थोडी तसल्ली ही मिली। इस घटना को कुछ ही दिन बीते थे कि उसे पहले स्वाति और शशांक के दुर्घटनाग्रस्त होने और फिर अस्पताल में मौत की खबर मिली। स्तब्ध रह गई नेहा। बरसों से शशांक के लिए मन में जमी घृणा न जाने कहां खो गई। दुख, संवेदना व विवशता से उसकी आत्मा छटपटा उठी। काश कि उस दिन शशांक की बात सुन लेती। पता नहीं, वह क्या कहना चाहता होगा।
विडंबना यह थी कि शशांक और स्वाति का अंतिम संस्कार भी उसे करना पडा। स्वाति के घर से कोई आया ही नहीं। नेहा और शशांक अलग भले ही थे, मगर तलाक नहीं हुआ था। शशांक के घर में चार साल का छोटा सा बच्चा मयंक सहमा हुआ सब देख रहा था। नेहा उसे लगातार नज्ारअंदाजकरती रही। सारे काम निपटा कर वह घर लौटी।
दरवाज्ो पर घंटी बजी तो उसकी तंद्रा भंग हुई। दरवाज्ाा खोला तो चौंक गई। शशांक का दोस्त आलोक मयंक के साथ खडा था। उसे देखते ही नेहा के मुंह से निकला, 'नहीं भाई साहब, मुझसे कोई उम्मीद न रखें। मैं इसे नहीं रख सकूंगी। हां, मैं इसके खर्च का इंतज्ााम कर दूंगी, लेकिन प्लीज्ा इसे मेरे सामने न लाएं। शायद आप भूल गए कि पिता के होते हुए राहुल इतने साल अनाथ जैसी ज्िांदगी जीने पर मजबूर हुआ। मैं पति के जीते जी विधवा हो गई।'
आलोक कुछ बोलता, इससे पहले ही उसकी उंगली थामे दरवाज्ो पर खडा मयंक कांपा और फर्श पर गिर पडा। अचंभित नेहा को सोचने का अवसर भी नहीं मिला। आलोक की मदद से उसे पास के क्लिनिक में ले गई। उस अनाथ बच्चे के लिए न जाने क्यों दिल तडप उठा। उसकी अंतरात्मा उसे धिक्कारने लगी। हे भगवान! कैसा अनर्थ हो गया! वह नन्ही सी जान के प्रति इतनी संवेदनहीन कैसे हो गई? कुछ समय बाद मयंक को बेहोशी में बडबडाते सुना, 'मम्मी मुझे छोड कर मत जाना...., पापा मुझे छोडकर मत जाना...।'
नेहा ने उसके माथे पर हाथ फेरा तो वह निश्चिंत होकर सो गया। दो-तीन दिन मयंक अस्पताल में रहा। राहुल को पडोसियों के सहारे छोड वह दिन-रात उसी की सेवा में जुटी रही और उसे एहसास दिलाती रही कि वह अकेला नहीं है। धीरे-धीरे बच्चा स्वस्थ होने लगा। चौथे दिन वह उसे अस्पताल से सीधे घर लाई। एक ही दिन में मयंक, राहुल से घुल-मिल गया। वर्षों से खोई राहुल की चंचलता भी छोटे भाई से मिल कर वापस आने लगी। वह ढूंढ-ढूंढ कर अपने खिलौने मयंक को देने लगा।
सूने-उदास और बेरंग घर में रौनक लौटने लगी थी। मानो वर्षों से बिखरे घोंसले का तिनका-तिनका फिर से जुडऩे लगा हो। एक दिन मयंक बाहर से दौडता हुआ हाथ में आइसक्रीम लिए आया, 'बडी मम्मी यह लीजिए आइसक्रीम, भैया ने खरीदी है।'
'बडी मम्मी' संबोधन सुन कर नेहा बुरी तरह चौंकी थी। जाने वह कैसे नेहा के मन की बात समझ गया था, 'मुझे पता है, आप मेरी बडी मम्मी हो। मम्मी ने मुझे बताया था, जब हम दुकान पर मिले थे। याद है आपको?'
मयंक के लिए नेहा के दिल में उमडता ममता का वेग आंखों के रास्ते बाहर निकल आया। उसने बच्चे को सीने से लगा लिया, 'बडी मम्मी नहीं, मैं तुम्हारी मम्मी हूं और तुम मेरे राजा बेटा हो....,' बाकी के शब्द उसके भर्राए गले में अटक कर रह गए।
रीता कुमारी