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अंत‌र्द्र्वद्व

छोटी सी एक दुनिया है घर और स्नेह भरे रिश्तों की। मगर इस छोटी सी दुनिया में आजकल एक दूसरी दुनिया सेंध लगा रही है और यह है आभासी या वर्चुअल दुनिया, जो कुछ पल एकाकीपन दूर करती है, मगर अगले ही पल इसके क्षणिक होने का आभास भी होता है। क्या आभासी दुनिया के रिश्ते अपनों की जगह ले सकते हैं? इसी सवाल से जूझती एक कहानी।

By Edited By: Published: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)
अंत‌र्द्र्वद्व

कहानियां बहुत पढी और सुनी हैं। कुछ सच्ची होती हैं तो कुछ काल्पनिक। कुछ बन जाती हैं तो कुछ बुनी हुई होती हैं। कहानियां राजा और रानी की हों तो बहुत पसंद की जाती हैं। बचपन में सुना करते थे, एक राजा था-एक रानी, दोनों मिल गए खत्म  कहानी।

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एक कहानी जो बनी नहीं, बल्कि बुनी हुई है शब्दों के ताने-बाने से। हमारी इस कहानी में राजा भी है और रानी भी। यहां राजा-रानी पहले तो मिल गए मगर अंत में मिलेंगे नहीं। इसका कारण यह है कि हमारी कहानी का राजा किसी और रानी का है। हमारी रानी भी किसी और राजा की रानी है..!

..अरे यहां तो कहानी शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई? लेकिन नहीं, जब इसे बुनना शुरू किया है तो अभी से खत्म कैसे कर सकते हैं। कुछ तो सोचना होगा राजा-रानी की इस कहानी को आगे बढाने के बारे में..।

..तो चलिए शुरू करते हैं। हमारी कहानी की नायिका है वेदिका..! आज उसकी चूडियां कुछ ज्यादा खनक रही हैं और पायल भी ज्यादा छनक रही है। मगर ये अपने पिया के लिए नहीं खनक रहीं, बस यूं ही आज बहुत खुश  है वेदिका ..! दौड कर सीढियां चढ रही है। छत पर पूनम का चांद खिला है। मगर उसे तो अपनी खिडकी से चांद देखना अच्छा लगता है। खिडकी वाला चांद ही उसका है, छत वाला चांद तो पूरी दुनिया का है। कमरे में जाकर देखा, राघव सो गया है। थोडी मायूस हो गई वेदिका। उसे बुरा लगता था कि वह रात में कमरे में आए तो पति सोता मिले। यही तो समय होता है, जब वह बात करने की फुर्सत पाती है, लेकिन अकसर ऐसा होता है कि जब वह काम निपटा कर कमरे में आती है, राघव सो जाता है। वह कुछ देर कुर्सी पर बैठ कर खिडकी से झांकता चांद निहारती रही। फिर उसकी नजर कमरे में सो रहे राघव पर पडी। वेदिका का मन किया, झुक कर राघव का माथा चूम ले, हाथ भी बढाया, लेकिन रुक गई।

संयुक्त परिवार में वेदिका सबसे बडी बहू है। राघव के दो छोटे भाई हैं। सभी अपने-अपने परिवारों सहित साथ ही रहते हैं। मां-बाबा भी अभी ज्यादा  बुजुर्ग नहीं हैं। बहुत बडा घर है यह, तीसरी मंजिल पर वेदिका का कमरा है। साथ में एक छोटी सी रसोई है। रात को या सुबह जल्दी चाय-कॉफी बनानी हो तो नीचे नहीं जाना पडता। बडी बहू होने के नाते उसे घरेलू कार्य तो कम ही करने पडते हैं, लेकिन उसकी जिम्मेदारियां बहुत ज्यादा हैं। पिछले बाईस बरसों से उसकी आदत है कि बच्चों को एक नजर  देख कर, हर कमरे में झांकती, सबसे बात करती, किसी बच्चे की समस्या सुलझाती हुई.. अंत में अपने कमरे में जाती है। उसे अपने बच्चों के साथ ही दूसरे बच्चों का भी खयाल है।

राघव की आदत है बिस्तर में जाते ही नींद के आगोश में गुम हो जाता है। वेदिका ऐसा नहीं कर पाती, वह बिस्तर पर लेट कर सारे दिन का लेखा-जोखा करके सोती है।

लेकिन आज वेदिका का मन उडान भर रहा था। वह धीरे से उठ कर खिडकी के पास आ गई। अभी शहर जाग ही रहा था। लाइटें कुछ ज्यादा चमक रही थीं। शादियों का मौसम था, लिहाजा तेज संगीत के स्वर हवा के साथ कमरे तक पहुंच जा रहे हैं।

उसकी नजर फिर से चांद पर टिक गई। उसे चांद में प्रभाकर का चेहरा नजर  आने लगा। अचानक एक गाने के बोल उसके कानों पर आकर टकराए। एक बार खिडकी बंद करने को हुई, मगर यह गाना उसे बहुत पसंद है। यूं भी आजकल न जाने क्यों ऐसा होता है कि हर गाना ही उसे भा जाता है। उसे लगता है मानो हर गीत उसी पर बना है। ..बस यहीं से हमारी कहानी की नायिका यानी वेदिका का अंतद्र्वद्व शुरू होता है। भजन सुनने की इस उम्र में नए जमाने के गानों पर शर्माती, उन्हें गुनगुनाती वेदिका तो जैसे उम्र को ही भूल बैठी है। सच कहें तो उसका मन आजकल एक ही नाम गुनगुनाता है, वह है प्रभाकर का..।

अब आप पूछेंगे राजा-रानी के बीच यह प्रभाकर कहां से आ गया! यही तो ट्विस्ट है। वेदिका इतनी व्यस्त रहती है घर के काम-काज में, संयुक्त परिवार में उसे भला फुर्सत कैसे मिलती होगी जो वह किसी दूसरे राजा से दिल लगा बैठी? फिर वह मिली कैसे होगी प्रभाकर से? क्या प्रभाकर  उसका कोई पुराना..? जरूर ये सारे सवाल आपके दिल में उठ रहे होंगे।

जी नहीं..! अब कहीं जाने की क्या जरूरत है, जब एक चोर दरवाजा  घर में ही घुस आया है। हम बात कर रहे हैं इस हाइटेक जमाने के कंप्यूटर-इंटरनेट की!

नई-नई टेक्नोलॉजी सीखने का बहुत शौक है वेदिका को। बच्चों से ही कंप्यूटर चलाना सीख लिया। एक दिन बच्चों ने ही फेसबुक पर अकाउंट बना दिया। वेदिका तो चकित ही रह गई। क्या दुनिया है यह भी! परी-लोक इसी को तो कहते हैं। बस यहीं मिला प्रभाकर उसे। न जाने कब प्रभाकर को मित्र से मीत समझने लगी वह। आज खुश  भी इसलिए है कि पहली बार प्रभाकर से बात की है..।

ड्रेसिंग टेबल पर रखे मोबाइल से मेसेज टोन सुनते ही वह लपकी। प्रभाकर का ही संदेश था। एक गालिबाना शेर लिखा था और अंत में कई स्माइलीज के साथ गुडनाइट। तो यही था वेदिका की खुशी  का राज? पिछले एक साल से प्रभाकर से चैटिंग हो रही है। आज फोन पर बात भी हो गई और लीजिए अब तो मेसेज भी आ गया। नाइट-सूट पहन कर बिस्तर पर आ गई वेदिका। लेकिन नींद भला कहां आनी थी। राघव को निहारने लगी और सोचने लगी कि जो कुछ भी उसके अंतर्मन में चल रहा है क्या वह ठीक है! यह प्रेम-प्यार का चक्कर..! क्या है यह? वह भी इस उम्र में, जब बच्चों के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए उसे! अब इसमें राघव की क्या गलती है, जो वह इस तरह दूसरे पुरुष की ओर आकर्षित हो रही है! वह तो बहुत खयाल रखता है उसका, किसी चीज की कमी नहीं होने देता। हां, अपने काम में इतना व्यस्त जरूर है कि उसे समय कम ही दे पाता है। लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि वेदिका कहीं दिल लगा बैठे!

कहां गए उसके मूल्य? इतनी व्यस्त जिंदगी में जहां हवा भी सोच कर प्रवेश करती हो, प्रभाकर को आने की इजाजत कैसे मिल गई? दिल में सेंधमारी आखिर हुई कैसे?

अगले ही पल उसके विचारों ने झटका खाया। सहसा बिजली की तरह एक खयाल दौड पडा। सेंधमारी तो हो सकती है क्योंकि वह जितनी रोमैंटिक है-राघव उतना नहीं। उसे याद है, शादी के बाद जब पहली बार राघव के साथ बाइक पर बाजार गई थी। उसने पीछे से राघव की कमर को हाथ से पकडा ही था कि वह उखड कर बोल पडा, क्या कर रही हो वेदिका? यहां सब जान-पहचान के लोग हैं, कोई देख लेगा तो! सभ्य घर की बहू हो, थोडा तो सोचो..। उसने सहम कर हाथ पीछे कर लिए। उस वक्त जैसे दिल का कोई कोना चटक गया और वेदिका उसी रास्ते रिसने लगी, थोडा-थोडा रोज..। 

बाद में राघव ने उसे मनाया भी, मगर इस टूटे हिस्से को जोडने वाला सॉल्यूशन तो बना ही नहीं। वह उस प्यार को नहीं मानती, जो देह को तो छुए मगर मन तक न पहुंचे। जी भर आया वेदिका का.।

तभी मन के दूसरे कोने से आवाज आई, वेदिका तू बहुत भावुक है। मगर प्यारी यह जीवन भावुकता  से नहीं चलता..! यह सब प्रेम-प्यार किताबों में ही अच्छा लगता है, हकीकत में नहीं। हकीकत की पथरीली  जमीन  पर आकर यह टूट जाता है। और फिर इतने सालों में राघव बदल भी तो गया है। तू जैसा उसे बनाना चाहती थी, काफी हद तक वैसा ही हो गया न!

तो क्या हुआ..! रिसते मन पर कितनी भी फुहार डालो, वह जीवित कहां हो पाता है। वेदिका ने अपने दूसरे हिस्से को जवाब दिया। वह कुछ पल यूं ही राघव को निहारने लगी। धीरे से उसके हाथों को छूना चाहा, मगर नहीं छू सकी। बस अपना हाथ सरका कर राघव के हाथ के पास रख दिया। अचानक उसका हाथ राघव के हाथ को छू गया और उसने झट से वेदिका का हाथ पकड लिया। वेदिका ने जल्दी से अपना हाथ खींच लिया तो राघव चौंक कर जाग उठा, क्या हुआ..!

कुछ नहीं, आप सो जाइए.., वेदिका ने धीरे से कहा और करवट बदल कर लेट गई।

सोचने लगी, अब कितना बदल गया है राघव..! पहले जैसा तो बिलकुल नहीं रहा। याद करते हुए उसकी आंखें भर आई। एक रात उसने सोए हुए राघव के गले में बांहें डाल दी थीं तो वह जाग गया और वेदिका पर भडक उठा था। उसे नींद में डिस्टर्ब करना बिलकुल पसंद नहीं है। उस रात दिल का वह कोना कुछ और चटक गया।

तो क्या हुआ वेदिका! हर इंसान की अपनी सोच होती है। तुम्हारे पति की भी एक अलग शख्सीयत है। इसके बावजूद उसने खुद को तुम्हारे हिसाब से ढाला है, वह तुम्हारा खयाल रखता है। हो सकता है उसे भी तुमसे कुछ शिकायतें हों और वह तुम्हें न बता पाता हो। अरेंज्ड मैरिज में तो ऐसा ही होता है। पहले तन और फिर धीरे-धीरे मन भी मिल ही जाते हैं। व्यावहारिक बनो, भावुक नहीं..! उसके भीतर की मेच्योर वेदिका को गुस्सा आ गया।  

  हां, रखता है खयाल..! लेकिन मैंने ही तो बार-बार हथौडा मार कर यह मूरत गढी है। यह भी अभी सिर्फ मूरत है, इसमें अभी प्राण कहां हैं, मुस्कराना चाहा वेदिका ने।

वेदिका को बहुत हैरानी होती है कभी-कभी। जो इंसान दिन के उजाले में इतना गंभीर रहता हो, वही रात में इतना प्यार करने वाला और इतना खयाल  रखने वाला कैसे हो सकता है!

उसके भीतर की पत्नी फिर बोल पडी, चाहे जो हो वेदिका, अब तुम उम्र के ऐसे पडाव पर हो, जहां तुम कोई रिस्क नहीं ले सकतीं। तुम यह नहीं सोच सकती कि जो होगा देखा जाएगा और न सामाजिक परिस्थितियां तुम्हारे पक्ष में हो सकती हैं, यह परपुरुष का खयाल भी दिल से निकाल दो।

परपुरुष..! क्या प्रभाकर परपुरुष है? लेकिन मैंने तो सिर्फ प्रेम किया है। स्त्री जब प्रेम करती है तो वह बस प्रेम करती है, इसकी कोई वजह नहीं होती। उम्र, सुंदरता, पद-प्रतिष्ठा..वह कुछ नहीं देखती, एक एहसास होता है प्यार। प्रभाकर ने भी कहीं मेरे मन को छुआ है।

प्रभाकर का खयाल आते ही दिल को जैसे फिर सुकून आ गया। होठों पर मुस्कान आ गई, हां! मुझे प्यार है प्रभाकर से, इसके बाद मैं कुछ जानना-समझना नहीं चाहती।

बेवकूफ मत बनो वेदिका..! जो व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति वफादार नहीं, वह तुम्हारे प्रति कैसे वफादार हो सकता है? जो अपने जीवनसाथी के साथ इतने बरस रह कर उसके प्रेम को झुठला सकता है और कहता है कि उसे अपनी पत्नी से प्रेम नहीं है वह तुम्हें कैसे प्रेम करेगा! कभी उसका प्रेम आजमा कर देख लेना, फिर देखना वह कैसे अजनबी बन जाएगा, कैसे उसे अपने परिवार की याद आ जाएगी..! वेदिका के भीतर जैसे जोर से बिजली चमक पडी और वह झटके से उठ कर बैठ गई।

हां, यह बात सच है मगर यही बात तो मुझ पर भी लागू होती है। मैं भी कहां वफादार हूं राघव के प्रति..! यह सोचना कहां शोभा देता है कि प्रभाकर.., वेदिका बेचैन  हो उठी।

बिस्तर से उठ कर खिडकी के पास आ खडी हुई। बाहर का कोलाहल कम हो गया था, लेकिन मन के भीतर का कोलाहल अभी नहीं थमा था। नींद कोसों दूर थी। क्या यह पहली बार प्रभाकर से बात करने की खुशी  है या उसके भीतर का अपराध-बोध, जो धीरे-धीरे उसे कचोट रहा था? क्या यह सब किस्मत का खेल है जिसे होना ही था! अगर होना था तो पहले क्यों नहीं मिले वे? राघव के साथ रहते-रहते भी तो उसे प्रेम हो ही गया एक दिन। अब यह समझौता हो, लगाव हो या फिर नियति, एक डोर से तो बंधे ही हैं वे..। वेदिका अजीब सी सोच में घिरी रसोई की तरफ बढ गई। अनजाने में चाय की जगह कॉफी बना ली। बाहर छत पर पडी कुर्सी पर बैठ कर सिप लिया तो चौंक पडी वेदिका। अरे यह क्या..! उसे तो कॉफी की महक से भी परहेज  था और आज वह आधी रात को कॉफी पी रही है! तो क्या वह सचमुच बदल गई है? अपने उसूलों से डिग गई है वह? जो कभी नहीं किया वह आज कैसे हो रहा है..!

राघव की निश्छलता  वेदिका को कचोट रही थी कि वह गलत  दिशा में बढ रही है। जब राघव को पता चलेगा तो क्या वह इसे सहन कर सकेगा?

क्या लोग उसे माफ कर पाएंगे?

अचानक उसे लगा मानो वह कटघरे में खडी है और लोग उसे घूरे जा रहे हैं नफरत से, सवालिया नजरों से..। खडी हो गई वेदिका।

जितना सोचती, उतना ही और घिर जाती। लग रहा था मानो रात बीत जाएगी, मगर उसकी उलझनें नहीं सुलझेंगी।

रात भी बीत चली। तीन बज गए, लेकिन वेदिका को एक पल को भी चैन नहीं था। यह मन भी कितना बडा छलिया है। एक बार फिर डोल गया और प्रभाकर का खयाल  आ गया। क्या वह सो गया होगा..?

फिर से फोन में मेसेज टोन सुन कर उसने मोबाइल टटोला। प्रभाकर का ही संदेश था। किसी ने सच ही कहा है कि मन से मन को राह होती है। शायद तभी रानी जाग रही है तो राजा भी जागेगा ही..।

अब इस कहानी का क्या किया जाए क्योंकि वेदिका का अंतर्दद्व खत्म  तो हुआ नहीं।

प्रभाकर के प्रति उसका शारीरिक आकर्षण तो है नहीं, सिर्फ उससे बात करके कुछ सुकून सा मिलता है। वह उसकी बात ध्यान से सुनता है और सलाह देता है। उसकी बातों में लाग-लपेट भी नहीं दिखती, फिर क्या करे वह? वह एक तरह से सच्चा मित्र ही हुआ न! सच्चे मित्र से प्रेम तो हो सकता है। लेकिन इस तरह समय-असमय संदेशों का आदान-प्रदान तो ठीक नहीं है.., सोचते हुए वेदिका मुस्करा पडी। शायद उसे कोई हल मिल गया हो।

सोच रही है कि फेसबुक के रिश्ते यहीं तक सीमित रहें तो बेहतर है। अब वह प्रभाकर से सिर्फ फेसबुक पर बात करेगी, वह भी सीमित शब्दों में। माना कि नए जमाने में पुरुषों को मित्र बनाने में कोई बुराई भी नहीं है, लेकिन यह मीत-वीत बनाने का चक्कर ठीक नहीं है। प्रभाकर को वह खोना भी नहीं चाहती। उसने तय कर लिया कि अब वह फोन पर बात नहीं करेगी। अंतत: अंतद्र्वद्व खत्म  हुआ तो सुबह तडके वेदिका को नींद भी आ गई। रानी को समझ आ गई है तो अब राजा को भी समझना होगा कि असल और आभासी दुनिया में एक लंबा फासला होता है..।

उपासना सियाग

उपासना सियाग


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