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फैलते दायरे

स्वाभिमान से जीने के लिए आत्मनिर्भरता जरूरी है। शादी के 30 साल तक पति के ताने और पुरुष अहं को सहन करने वाली चित्रा की जिंदगी में आखिर क्या बदलाव आया कि उनका जीने का तरीका ही बदल गया? घर-परिवार और पति के इर्द-गिर्द घूमने वाली समर्पिता पत्नी की भूमिका से बाहर निकल कर कैसे पाई चित्रा ने अपनी पहचान, एक प्रेरणास्पद कहानी।

By Edited By: Published: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)Updated: Sat, 02 Aug 2014 11:35 AM (IST)
फैलते दायरे

आज सुबह से ही बडी भागमभाग थी। एक तो रक्षाबंधन का त्योहार, ऊपर से आज ही चित्रा दी की लंदन की फ्लाइट भी थी। दी जल्दी-जल्दी पैकिंग कर रही थीं। अचानक उन्हें याद आया कि कुछ दवाएं नहीं आ पाई हैं, जो साथ ले जानी थीं। मुझे बता कर दी ने जल्दी से ड्राइवर को आवाज दी और बाजार के लिए निकल गई। मैं भी शीघ्रता से किचन के काम निपटा रही थी, क्योंकि मेरी ननदें आज पति एवं देवर को राखी बांधने आने वाली थीं। मैंने लंच तैयार करवाया और बाथरूम में घुस गई।

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आरती की थाल सजा ही रही थी कि मेहमान आ गए। ननदें-ननदोई एवं उनके बच्चों ने सबको हैप्पी रक्षाबंधन कहते हुए घर का माहौल उत्सव वाला बना दिया। मेहमानों को नाश्ता दिया ही था कि चित्रा दी की घबराई सी आवाज सुनाई दी। शायद वह दवा लेकर लौट आई थीं।

सुनो सिमी, मेरा एटीएम कार्ड नहीं मिल रहा है, पर्स में ही तो रखा था मैंने.., मैं समझ गई कि दी हडबडा गई हैं। तुरंत किचन से निकली और उनके पास पहुंच कर सांत्वना दी, आप घबराइए नहीं दी, फ्लाइट चार घंटे बाद है और कार्ड मिल जाएगा। चित्रा दी परेशानी में पर्स का सामान इधर-उधर बिखेरने लगी। मैंने उनके हाथ से पर्स ले लिया। ध्यान से देखा तो तो कार्ड एक छोटी सी डायरी के बीच में फंसा हुआ था। उन्होंने पसीना पोछते हुए मुझे शुक्रिया कहा और बाकी सामान पर्स में रखने लगीं।

चित्रा दी के चेहरे से बेचैनी और पीडा साफ झलक रही थी। उन्हें हॉल में आने को कह कर मैं मेहमानों को देखने चली गई। सभी खुश थे। बच्चों ने राखी बांधते हुए कई तसवीरें भी खिंचवा ली थीं। चित्रा दी सोफे पर बैठ गई। त्योहार में शामिल होने की नाकाम कोशिश करती दी के चेहरे से पीडा साफ जाहिर हो रही थी।

मुझे उन्हें हवाई अड्डे तक छोडने जाना था। इसलिए देर न करते हुए मैंने मेहमानों के लिए खाना लगवा लिया। थोडी देर बैठने के बाद ननदें चली गई तो मैंने दीदी से कहा कि मैं उनके लिए भी पूडी-सब्जी पैक कर देती हूं। बीच में जब कनेक्टिंग फ्लाइट के लिए इंतजार करना पडेगा तो कुछ खा लेंगी। मुझे पता था कि वे घर से बाहर खाना कम खाती हैं। लिहाजा उन्होंने धीरे से सिर हिला कर हामी भर दी। आंखों के कोर पर आंसुओं की बूंदें वह मुझसे छिपा नहीं पाई। हम निकलने ही जा रहे थे कि दी का मोबाइल बजा। कॉल जीजा जी की थी। वह पूछ रहे थे कि दी निकलीं या नहीं। दी ने उनसे दो टूक बात की और फोन काट दिया।

अलविदा कहते हुए दीदी मुझसे लिपट कर ऐसे रोई मानो आज ही उनकी विदाई हो रही हो। हम दोनों बहनें खूब रो लीं तो पति ने चलने का इशारा किया और सामान ट्रॉली में रख कर अंदर पहुंचा दिया। दी जाते हुए मुझे मुड-मुड कर देख रही थीं।

..बुआ की चार बेटियों में सबसे बडी थीं चित्रा दी। शादी को तीस साल हो गए हैं। एक योग्य प्रतिभाशाली इंजीनियर से शादी हुई। शादी के समय बुआ के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी क्योंकि फूफा जी एक छोटे पद पर सरकारी मुलाजिम थे। उनकी सीमित आमदनी में चार बेटियों और तीन बेटों का भरण-पोषण मुश्किल से हो पाता था। दीदी के ससुराल वाले संपन्न थे। ससुर सरकारी वकील थे। उनके दो पुत्र एवं एक पुत्री थी। जीजा जी इंजीनियर थे, छोटा भाई प्रशासनिक अधिकारी था, जबकि छोटी बहन मेडिकल कॉलेज में पढ रही थी।

शादी के बाद शुरुआत में सब ठीक रहा। फिर दी के समझौतावादी स्वभाव ने बुआ-फूफा जी सहित हम सभी को भनक भी न लगने दी कि वह ससुराल में खुश नहीं हैं। यूं तो जीजा जी प्रतिभाशाली, बुद्धिमान और योग्य व्यक्ति थे, लेकिन निजी जीवन में वह घोर अहंकारी, अडियल व सामंती सोच से ग्रस्त थे। रसूखदार परिवार में दी को ग्ारीब घर से आई निर्धन बहू का ही स्थान मिला। उन्हें बात-बात पर ताने दिए जाते। जीजा जी ने कभी सीधे मुंह उनसे बात नहीं की। उनमें जबर्दस्त पुरुष अहं था, लेकिन निम्नवर्गीय परिवार में पैदा हुई और सात भाई-बहनों में पली-बढी दी ने विपरीत परिस्थितियों में सामंजस्य बिठाना बखूबी सीखा था।

धीरे-धीरे समय बीता और दी दो बच्चियों की मां बन गई। उन्होंने खुद को मिटा कर पति व बच्चों के लिए अपनी जिंदगी समर्पित कर दी थी। गर्मियों की छुट्टी में दी बच्चों के साथ 15-20 दिन के लिए मायके आतीं तो वे दिन उनके लिए साल के सबसे खूबसूरत दिन होते। मायके में सभी दिल खोल कर उनका स्वागत करते थे। भाभियां भी बहुत आवभगत करतीं और उनकी पसंद का खयाल रखतीं। सारे भाई-बहन मिल बैठते तो बचपन की शरारतें याद कर-करके खूब हंसते-खिलखिलाते। न जाने हंसते-हंसते कैसे दी की आंखों में मोती झिलमिला जाते, जिन्हें वह बहुत सफाई से पोछ लेतीं। छुट्टियां खत्म होने के दिन आने लगते तो दी की हंसी भी कम हो जाती। बुआ की अनुभवी आंखें समझ गई थीं कि दीदी खुश नहीं हैं, मगर लाख पूछने के बावजूद दी ने अपने होठों पर ससुराल वालों की शिकायत कभी न आने दी। गर्मियों की छुट्टी के बहाने दी साल भर की सकारात्मक ऊर्जा खुद में भर कर लौट जातीं। जीवन में छा रहे तनावों के बावजूद वह बच्चियों की पढाई-लिखाई में कभी ढील नहीं आने देतीं। वह जी जान से बच्चियों को पढा रही थीं, ताकि उनका भविष्य उज्ज्वल हो सके। कई बार बच्चियों के नंबर कम आते तो जीजा जी सुनाने से नहीं चूकते कि दीदी बच्चों पर ध्यान नहीं देती हैं। लेकिन जब बच्चे अच्छा करते तो जीजा जी बेशर्मी से सारा क्रेडिट खुद पर ले लेते। दीदी की परवरिश का ही नतीजा था कि बडी बेटी अनुभा आइआइटी बांबे से इंजीनियरिंग करके एक बडी मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद तक पहुंच गई थी और छोटी अनुषा एम्स दिल्ली से मेडिकल की पढाई कर रही थी।

इसी बीच जीजा जी को अच्छी-खासी सरकारी नौकरी छोड कर विदेश जाकर पैसा कमाने की धुन सवार हो गई। उन्होंने वहां आवेदन कर दिया। बच्चों का जीवन अभी व्यवस्थित नहीं हुआ था, इसलिए दीदी इस निर्णय से असहमत थीं। मगर जीजा जी ने कब उनकी इच्छा का मान रखा था, जो इस बार रखते। जब विदेश की एक कंपनी से 4 लाख रुपये प्रतिमाह सैलरी पैकेज का ऑफर मिला तो जीजा जी ने दी को स्पष्ट आदेश दिया, मेरा पासपोर्ट वीसा तैयार है ही, तुम्हारा भी एक-दो महीने में तैयार हो जाएगा। तब तुम भी लंदन आ जाओगी। जीवन भर उनके निर्णयों को मौन स्वीकृति देती दीदी मुखर विरोध करने का साहस न जुटा सकीं। जीजा जी ने अपना बरेली वाला फ्लैट किराये पर दे दिया और ज्यादातर सामान बेच दिया। जो थोडा-बहुत सामान बचा, उसे पुश्तैनी घर में रख दिया।

जीजा जी के जाने के बाद दीदी एक-एक कर दोनों बच्चियों से मिलने चली गई, फिर सास-ससुर से मिलने के बाद मेरे घर आ गई। मैं उनका तनाव साफ देख पा रही थी। एक दिन बहुत कुरेदने पर वर्षो का दबा हुआ गुबार ज्वालामुखी की तरह फूट पडा। फिर उन्होंने रुक-रुक जो कुछ बताया, वह यूं तो हमारे लिए नया नहीं था, लेकिन दीदी के मुंह से मैंने पहली बार ये बातें सुनी थीं। दी ने बताया, सिमी शादी के तीस वर्षो तक मैंने वही किया जो तुम्हारे जीजा जी ने चाहा। उनके दंभी और अडियल स्वभाव के आगे झुकती रही। मैं करती भी क्या! मेरे आगे बच्चों का भविष्य था। विरोध करती तो घर में कलह होती। मैं नहीं चाहती थी कि लडाई-झगडा हो और उसका असर बच्चों पर पडे और आज जिस मुकाम पर मेरी बेटियां हैं, शायद न पहुंच पातीं। मैंने प्रेम, विनम्रता एवं आग्रह के साथ पति को समझाने की चेष्टाएं कीं, मगर सब व्यर्थ रहा। उन्होंने मुझे एक निर्धन परिवार की जरूरतमंद लडकी से ज्यादा अहमियत कभी नहीं दी। कभी अपने निर्णयों में शामिल नहीं किया। जबकि वह चाहते यह थे कि उनका आदेश मैं सिर झुका कर मान लूं। मगर मिटने की भी एक सीमा होती है। मैंने अपने सामने सिर्फ बच्चों का भविष्य रखा और खुद से वादा किया कि उन्हें खुशहाल जिंदगी दूंगी। मेरे मौन से यह फायदा तो हुआ कि मेरी बच्चियों का जीवन बर्बाद होने से बच गया। अब मुझे कोई अफसोस नहीं है। मेरी बेटियां आत्मनिर्भर हैं। मगर बेहद सफाई से इसका पूरा श्रेय भी पति ने खुद ले लिया। अब तक तो पति की हर बात मानती आई हूं सिमी, मगर अब उम्र के इस पडाव पर अपने देश और बेटियों को छोड कर विदेश में बसने का निर्णय मुझे गवारा नहीं है। मैं वहां क्या करूंगी? इससे तो बेहतर है कि यहीं रहूं और जीवन के इस मुकाम पर कुछ और करूं। मगर लगता है, नियति को यह भी गवारा नहीं है..। बोलते-बोलते दी फफक कर रोने लगीं। मैंने उन्हें तसल्ली दी। फिर उनसे कहा वह कोई काम करने के बारे में क्यों नहीं सोचतीं? दी ने अविश्वास से मेरी ओर देखा तो मैंने उनसे कहा, दी आपके हाथों में जबर्दस्त हुनर है। आप इतनी अच्छी मिठाई, नमकीन, गूझिया, मठरी बनाती हो। वहां कुकिंग का काम शुरू कर दो! या फिर घर में ही कुकरी क्लासेज लो! अगर यह संभव नहीं लगता तो क्रेश खोल लो। इससे व्यस्त रहोगी और कुछ क्रिएटिव करने का सुख भी मिलेगा। थोडे पैसे हाथ में आएंगे तो स्वाभिमान भी पैदा होगा..। मैं अपनी रौ में उन्हें सुझाव पर सुझाव दिए जा रही थी। दीदी अन्यमनस्क सी मेरी बातें सुन रही थीं। उन्होंने न तो कोई प्रतिक्रिया दी, न ही उत्साह दिखाया।

उनके जाने के बाद कुछ दिन तक तो फोन पर बातें होती रहीं। धीरे-धीरे फोन का सिलसिला कम हुआ और मैं भी बच्चों और गृहस्थी में व्यस्त हो गई। काफी दिनों से न दी का फोन आया, न मैं कर सकी।

आज सुबह से बच्चे उत्साहित थे, क्योंकि मेरा जन्मदिन था। सबने मुझसे छिपा कर कुछ न कुछ प्लानिंग की थी। सुबह से ही मेरे फोन की घंटी बजनी शुरू हो गई। दिन चढा ही था कि दरवाजे की घंटी बजी। खोलने गई तो सामने कूरियर सर्विस का लडका हाथों में लाल गुलाबों का बडा सा बुके और गिफ्ट पैक लेकर खडा था। पूछने पर बोला कि चित्रा भारद्वाज ने इसे ऑर्डर किया था। मैंने कूरियर रिसीव किया और भीतर आकर फूलों को डाइनिंग टेबल पर सजा दिया। बच्चे गिफ्ट पैक खोलने के लिए उतावले हो रहे थे। वे यह जानने को उत्सुक थे कि आखिर चित्रा मौसी ने इतने बडे डिब्बे में मां के लिए क्या भेजा है। बाहर की चमकीली पन्नी हटाते ही मेरी आंखें आश्चर्य से फटी रह गई। कार्टन पर बडे-बडे अक्षरों में लिखा था, सिमी होम मेड इंडियन फूड्स लिमिटेड। अपना नाम पढ कर तो मैं अति उत्साहित हो गई। हर जगह पैकिंग पर यह लेबल देख कर मेरी जिज्ञासा बढती जा रही थी। डिब्बा खोलने पर उसमें से कई रंग-बिरंगे डिब्बे व शीशियां निकलीं। लड्डू, मठरी, मिठाई, अचार, मुरब्बा..। अंत में एक चिट्ठी थी..,

प्यारी बहन सिमी,

तुम्हारे जन्मदिन का तोहफा भेज रही हूं। तुम्हें फोन करना चाहती थी पर सोचा एक प्यारा सा सरप्राइज दूं। सिमी, तुम्हारी ही प्रेरणा है जो आज मैं आत्मनिर्भर बन पाई हूं। शुरुआत सोसाइटी के एक इवेंट से हुई। मैंने भारतीय व्यंजनों का स्टॉल लगाया था। वहां मेरे हाथ की चीजों ने ब्रिटिश लोगों को खासा प्रभावित किया। अगले ही दिन एक भारतीय पडोसी घर पर मिलने आए। वह वहां बैंक मैनेजर हैं। बोले, आपके हाथों तो जादू है। हमारे घर में सभी आपके प्रशंसक हो गए हैं। लंदन में भारतीय भोजन के चाहने वालों की कमी नहीं है। क्यों न, आप कुछ काम शुरू करें! उन्होंने मुझे बैंक की कई योजनाएं बताई तो मुझे तुम्हारी बात याद आ गई। बातों ही बातों में लोन संबंधी जानकारियां भी मिल गई। कुछ ही दिन में पडोसी के सहयोग से मेरा काम शुरू हो गया। सच कहूं सिमी, उस दिन तुम मुझे इतना प्रोत्साहित न करतीं तो शायद मैं कुछ करने के बारे में सोच भी न पाती। तुम ही मेरी प्रेरणा हो, इसीलिए मैंने अपनी फैक्टरी का नाम तुम्हारे नाम पर रखा है। आज मेरी छोटी सी फैक्टरी में 25 लोग काम कर रहे हैं। ऑर्डर इतने हैं कि रात-दिन मेहनत कर रही हूं। इसी व्यस्तता में तुम्हें फोन करना भूलती रही। सच कहूं तो मैं व्यस्त और खुश रहने लगी हूं। लेकिन सबसे बडी बात तो तुम्हें बताना ही भूल गई..। तो सुनो, तुम्हारे जीजा जी का नजरिया भी बदल गया है। ये न तो ताने देते हैं, न आदेश। बेटियों को भी अच्छा लग रहा है कि उनकी मां स्वावलंबी हैं। मेरा दायरा फैलने लगा है। ढेर सारे दोस्त बन गए हैं..।

दामाद जी और बच्चों को मेरा आशीर्वाद..!

तेरी चित्रा दी..।

अरुणिमा दुबे


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