Move to Jagran APP

अ‌र्घ्य

विवाह के सात साल बाद संतान-सुख देखा वत्सला ने और इस सुख ने जीवन के बाकी दुख भुला दिए। बेटा बड़ा हुआ, शादी हुई और घर में बहू के रूप में बेटी भी आ गई। जीवन के तीसरे दौर में मुसकराना सीखा था। दुनिया को रोशनी देने वाले सूरज को अ‌र्घ्य भी दिया, मगर तकदीर को शायद यह मंजूर न था..।

By Edited By: Published: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)
अ‌र्घ्य

साल भर बाद फिर आ पहुंची शरद ऋतु। कार्तिक का महीना, पर्व त्योहारों की गहमागहमी और उत्सव का माहौल। सब कुछ सुंदर-मनभावन। पर मेरे मन-आकाश में बादल छा जाते हैं। ये कितने काले होते हैं, कैसे उमडते-घुमडते हैं, यह तो मेरा ही मन जानता है। सोचना-कहना नहीं चाहती, पर कब तक? कभी तो बादल बरसेंगे, शायद भीतर की बदरी  छंटे तो मन का आकाश स्वच्छ हो..।

loksabha election banner

तब नहीं जानती थी कि छठ पर्व क्या है? क्यों गंगा के किनारे पूजा-अर्चना हो रही है? विवाह के बाद पहली बार पति के साथ यहां आई थी। नई जगह, नई भाषा-बोली और नई संस्कृति, अंजाना परिवेश, पर सुख-सुविधाओं की कमी नहीं थी। सुंदर साफ-सुथरा लंबा-चौडा बंगला, लॉन, हरदम मुस्तैद सेवा कर्मचारी और गाडी ड्राइवर सहित! एक प्रशासनिक अधिकारी की पत्नी बन कर कभी गर्व से इतराती तो कभी अकेलेपन में अकुलाती। पति की व्यस्त दिनचर्या, नपी-तुली बातचीत और संतुलित व्यवहार के साथ खुद को परिवेश में ढालने की कोशिश में दिन गुजरने  लगे।

मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में जन्मी, पली-बढी मैं, ऊंचे अफसराना कायदे-कानूनों से नावाकिफ, मस्त लडकी थी! पारिवारिक और गृहस्थी के तौर-तरीकों सहित रीति-रिवाजों में पारंगत  थी! परिवार का मानना था कि वत्सला सुंदर, सुशिक्षित बुद्धिमान, मृदुभाषी  व संगीत कला में पारंगत है, सुयोग्य उच्चपदस्थ जीवनसाथी पाने योग्य है। उनकी यह मनोकामना पूरी भी हुई और वैवाहिक विज्ञापन के जरिये मेरा रिश्ता तय हो गया प्रशासनिक अधिकारी श्री श्रीनिवासन के साथ। पति का पूरा परिवार प्रथम श्रेणी अधिकारियों से भरा था। मैनर्स,  एटिकेट्स,  सोसाइटी,  पार्टीज  जैसे चार शब्द यहां खूब चलते और अकसर मुझे बौना महसूस करा जाते। मेरा रहन-सहन अलग था। मुझे उलाहने मिलने लगे थे, जैसे मिडिल क्लास फेमिली की सोच भी मिडिल ही रहती है। इतने बडे अधिकारी की पत्नी को क्या यह शोभा देता है कि माली-चपरासी से गॉसिप  करे?

मैं हैरान हो जाती। अगर माली बाबा से कुछ देर बात कर ली तो क्या यह गलत  है?

माली काका.., मैं उन्हें इसी संबोधन से बुलाती थी मगर पति को यह बात नागवार लगती। वो कहते, आप नहीं समझेंगी, किसे कैसे संबोधन किया जाए, कैसे बात की जाए..। अपनी बात अधूरी छोड कर ये निकल जाते। मेरे हाथ आई तरह-तरह की दूब, हरी-पीली घास गिर जाती..। शाम को देखती कि इनके हाली-मुहाली कुछ पैकेट्स लेकर आए हैं। घंटी बजने पर आदतन खुद दरवाजा खोलने जाती, मगर मुझसे पहले चपरासी वहां पहुंच जाता, कहते हुए मेमसाहब आप ठहरें, हम देखते हैं। फिर वह एक पैकेट लाकर देता। पैकेट खोल कर देखा तो कुछ किताबें निकलीं। इशारा समझ गई, माली काका से बातें करने की मनाही के रूप में हैं ये किताबें। मां की चिट्ठी आती तो दौड कर खोलती। प्यार व आशीषों की स्याही से लिखे जाने-पहचाने अक्षर.., आंखें भर आतीं। मैं चाहती कि मेरे अनुभवों और एहसासों में पति भी शामिल हों। लेकिन वहां से कोई रिस्पॉन्स न मिलता, फिर भी उनसे कह ही देती कि मां ने दामाद जी को आशीष भेजा है..।

पति व्यंग्य में बोलते, और भेज भी क्या सकती हैं तुम्हारी मां! है ही क्या उनके पास देने को। धीरे-धीरे समझ रही थी कि अफसर दामाद का मोल काफी होता है, हर कोई अदा नहीं कर सकता। सोच रही थी कि क्या इन लोगों ने कभी मन में झांक कर सोचा होगा कि इतनी पढी-लिखी लडकी आखिर क्या चाहती है? केवल प्यार, सम्मान, सहयोग..। तभी इनकी तीखी आवाज कानों में पडती, कह दो अपनी मम्मी से कि अब चिट्ठी पढने का समय नहीं है किसी के पास। फोन पर बात किया करें। एसटीडी  का पेमेंट इधर से हो जाएगा।

यह कैसे समझ लिया आपने कि इतना पैसा भी उनके पास नहीं है कि फोन का बिल दे सकें? पहली बार मेरी जुबान खुली। कहते-कहते रुलाई भी फूट गई। स्वाभिमान को कब तक दबा कर रखूं। इन्होंने शायद पहली बार मेरे आंसू देखे। तभी ये बोले, अरे, तुम्हें बुरा भी लगता है? मैं तो समझ रहा था कि तुम्हें कोई भी बात नहीं छूती। न सुख-सुविधाओं भरा लाइफस्टाइल और न यहां का माहौल! इसीलिए तो तुमसे अधिक नहीं बोलता, टाइम भी कहां है..।

सारी सुख-सुविधाएं हैं, पर जो नहीं है उस पर कभी ध्यान गया है आपका?

अच्छा तो तुम बोलती भी हो? वे हंसे। अच्छा बताओ क्या नहीं है तुम्हारे पास? समय आने पर बताऊंगी.., माहौल को हलका बनाने के लिए चाय बनाने की बात कहते हुए उठ खडी हुई मैं। फिर वही बात, वही मिडिल क्लास., ये कहते-कहते थोडा रुके, तुम क्यों बनाओगी, मनसुखिया को बोलो, वह बना लाएगी।

मैं फिर बैठ गई। उस दिन पहली बार इनके सामने मन की बात कह कर मैं खुद को हलका महसूस कर रही थी। साथ ही मुझे यह भी लग रहा था कि मुझे इस घर के हिसाब से बदलना होगा। इनके सर्कल को समझना होगा। एक तरह से मैं समझौते को तैयार थी।

धीरे-धीरे क्लब, किटी पार्टीज, शॉपिंग में व्यस्त रहने लगी तो घुटन भी कम हुई। पति कुछ संतुष्ट दिखे। उन्हें यात्राएं बहुत करनी पडती थीं।

व्यस्तता के बावजूद जब-तब मेरी उदासी मुझे घेर लेती थी। मेरे भीतर की चाह कब साकार होगी, कब ये मेरे दिल की बात समझेंगे, सोचती और परेशान हो जाती। तभी जैसे मनसुखिया ने मुझे कुछ दिन का मौका दिया, मेमसाब दू  दिन की छुट्टी चाहिए।

छुट्टी? पर क्यों?

दू दिन उपासे रहेंगे न। कल का दिन, परसों बिहान पारन के बाद ही आ सकेंगे।

कैसा व्रत है?

बच्चों के लिए ज्वीतिया  का व्रत होता है न, आप ना समझेंगी, इहां  का नाही  है न..।

तुम बताओगी ,  तब तो समझूंगी न..। 

बच्चों के उमिर,  दिरघजीवी  होने के लिए बरत करते हैं हमनी  के तरफ..

अच्छा, मैं चुप हो गई, मगर वह बोलती गई, जिनके नाहीं होत हैं ऊ भी ये बरत कर सके हैं होवे  की खातिर। 

पर तू परसों जरूर  आ जाना।

दो दिन बाद पति अपनी यात्रा से लौट आए थे। मनसुखिय ा शाम तक भी नहीं आई। मैं शौक से रसोईघर की ओर बढी कि इनकी आवाज  आई, डिनर बाहर कर लेंगे। मेरे पैर जहां के तहां रुक गए। पता नहीं मैं पति से इतना डरती क्यों हूं, उनकी हर पुकार मेरे लिए ऑर्डर  क्यों होती है?

अब मैं कैसे बताऊं कि मैंने व्रत रखा है। तबीयत ठीक न होने का बहाना बना कर मैंने बाहर भी कुछ नहीं खाया। अंतत:  मैंने उस रात इनसे पूछ ही लिया, आपने जानना नहीं चाहा कि क्यों मैंने खाना नहीं खाया?

पूछना जरूरी है क्या? मैं जगह-जगह जाता हूं। व्रत-उपवासों की मुझे अच्छी जानकारी है। मुझे अंदाजा  है कि तुम स्वस्थ हो तो किसी विशेष इच्छा से ही खाना नहीं खाया होगा, फिर तुम्हें क्यों रोकूं?

क्या अंदर ही अंदर ये भी उस अदम्य इच्छा को पाल-पोस रहे थे, जो मेरे मन में थी। अगली ही सुबह इनकी आवाज  सुनाई दी, जल्दी तैयार हो, साढे आठ का अपॉइंटमेंट  है, पहला नंबर हमारा ही है। डॉक्टर का जिक्रभी इन्होंने नहीं किया, पर मैं समझ गई थी। आधे घंटे बाद ही हम डॉक्टर के केबिन में थे। इन्होंने डॉक्टर को मेरा परिचय देते हुए कहा, ये वत्सला हैं, मेरी पत्नी। शादी को तीन साल हुए हैं, पर आज तक शिकायत नहीं की कि ये मां क्यों नहीं बन पा रही हैं। मुझे लगा कि हमें अब चेकअप कराना चाहिए। तो क्या यह पुरुष मुझे समझता है? मैं संकोच से गड गई थी। इसके बाद तो सिलसिला ही चल निकला। कई डॉक्टर्स,  एक्सप‌र्ट्स  के पास गए, जांचें हुई, यहां तक कि पूजा-पाठ और दान-दक्षिणा भी जीवन का नियमित हिस्सा हो गए।

विवाह का सातवां वर्ष था, जब मैंने धीरे से इन्हें बधाई दी। मैं जांच कराके लौटी थी। आखिर हमारे जीवन में बहार आ ही गई थी।

..उस दिन डूबते सूर्य को लाखों लोग अ‌र्घ्य  दे रहे थे। संध्या का झुटपुटा था। उसी समय एक नर्सिग  होम में मेरा बच्चा मेरे आंचल में आया। नर्स ने उसे मेरी गोद में डाला तो मैंने भावविह्वल होकर नर्स का हाथ चूम लिया। हमने बेटे का नाम रखा- अंशुमन। अंशु धीरे-धीरे बढने लगा। स्वस्थ-सुंदर-चपल, सभी के आकर्षण का केंद्र अंशु कब किशोर हुआ, कब युवा और कब उड गया हमसे दूर..पता भी नहीं चला।

एम.बी.ए. करना चाहता था अंशु। मैं मन ही मन कामना कर रही थी कि उसका चयन बैंगलोर  हो जाए तो ननिहाल में रह सकेगा। ऐसा ही हुआ। नाना-नानी के सान्निध्य और स्वस्थ वातावरण में बच्चे की मेहनत रंग लाई। एमबीए करते ही कैंपस सिलेक्शन में एक एमएनसी में अच्छी जॉब भी मिल गई। नानी ने साथ में एक और खुशखबरी दी, वत्सला, मैंने अंशु के लिए बहू पसंद की है। वैसे पसंद तो अंशु की ही है। बस तुम लोग यहां आ जाओ। फट से शादी कर देंगे। हम अगली ही फ्लाइट से बैंगलोर  पहुंच गए। अंशु ने लडकी से मिलवाया, मां यह संजना  है। हम साथ पढे हैं। बस अब आप दोनों का आशीर्वाद चाहिए। मैंने सहमति के लिए पति की ओर देखा। इनकी आंखों ने बता दिया कि इन्हें बहू पसंद है। मैंने संजना को तुरंत पर्स से एक रिंग निकाल कर पहना दी। इसी के साथ चट मंगनी पट ब्याह हो गया।

हनीमून के बाद दोनों काम में व्यस्त हो गए। कुछ महीने बाद आए तो अंशु का मन हुआ कि संजना  को नालंदा और राजगीर दिखाए। लौटते हुए देवघर  के दर्शन हो जाएंगे। आनन-फानन हम निकल पडे। कभी ये ड्राइव करते तो कभी अंशु। संजना को मैं संभालती देखो हील मत पहनो, कहीं ठोकर न लग जाए, धीरे-धीरे चढो बेटा..। संजना कुछ ही दिनों में मेरी लाडली बेटी बन गई। हर बात पर पूछती, मां, यह ड्रेस पहन लूं, गॉडी तो नहीं है? कैसी लग रही हूं? हम दोनों हर बात पर हंसते। मैं इतनी मुखर कैसे हो गई? ये मुझे कनखियों  से देख मुस्कराते। लौटते हुए मैंने कहा, संजना तुम मेरे पास बैठोगी पीछे, पापा अंशु के साथ बैठेंगे।

संजना  के भीतर मेरे अंशु का अंश जो पल रहा था। मैंने गाडी में संजना को अपने करीब बिठाया। उसका सिर मेरे कंधे पर टिका था। हम वापस हो रहे हैं। एक घंटे में घर पहुंच जाएंगे, फिर छठ की पूजा करेंगे, सुबह का अ‌र्घ्य  देंगे सूर्य को.., मैं संजना  को बता रही थी। अंशु अपनी धुन में गाडी तेज ड्राइव कर रहा था। मैंने टोका, अंशु धीरे। तुरंत पति की आवाज आई, डोंट डिस्टर्ब हिम। एकाएक घने बादल छाने लगे, बारिश शुरू हो गई। मौसम ठंडा हो गया तो मैंने संजना  का दुपट्टा उसके सिर पर ढका और साडी का आंचल उसके हलके उभरे पेट पर रख दिया। संजना  ने आंखें मीच लीं। अचानक गाडी ने कुछ झटके खाए और कुछ ही सेकंड्स में हमने देखा कि गाडी फिसलती हुई नीचे जा रही थी। मैं संजना  को संभाल रही थी। ..और फिर कई घंटे बाद अर्ध-चेतना में सामने बैठी नर्स को देखा तो पूछा, कहां है अंशु, संजना  कहां है? नर्स ने उंगली से बगल वाले बिस्तर की ओर इशारा किया। संजना की उठती-गिरती धडकन सुन पा रही थी। संजना,  पापा कहां हैं? अंशु कहां है? बदहवास सी उठना चाहती थी, नर्स ने जबरन लिटा दिया। डॉक्टर की आवाज आई, ब्लड चढाना होगा दोनों को। आपका ब्लड ग्रुप क्या है मैडम? बी पॉजिटिव,  डूबती आवाज  में बोली मैं।

साहब को तो वह मैच नहीं करेगा..

तो अंशु को कहिए न, कहां है वह? मेरे प्रश्न का उत्तर न देकर वे मुझे आइसीयू  में ले गए, जहां अंशु बेहोश था सामने। मन में तीन चेहरे उभर रहे थे- अंशु, संजना  और उसमें समाया अंशु का अंश। पता नहीं, कौन मेरा रक्त ले रहा था, लेकिन समझ आ रहा था कि बूंद-बूंद जो रक्त उसके शरीर में जा रहा है, वह मेरा बी-पॉजिटिव रक्त है और मैं उगते सूरज को अ‌र्घ्य  दे रही हूं। कान सुन नहीं पा रहे, मगर सुदूर गंगा घाट से गीतों की अस्फुट आवाजें  आ रही थीं, बहंगी लचकत  जाए, दउरा लचकत  जाए..।

गिरती-पडती दौड रही थी, कहां हैं श्रीधरन?  नर्स सहारा देकर ले गई वहां, जहां मेरा प्राण गहरी नींद में था। हाथ जोड कर मन ही मन कहा, मुझे माफ कर पाओगे श्रीधरन?  काश यह अ‌र्घ्य तुम्हें समर्पित कर पाती..।

प्रतिभा विनोद 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.