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सफर

हमसफर अच्छा हो तो मीलों की दूरियां भी कम नज़्ार आती हैं, वर्ना छोटी सी यात्रा भी अंतहीन लगने लगती है। शुरू में विंडो सीट के लिए ज़्िाद करती गुरूर से भरी वह लड़की मन को खिन्न कर रही थी, मगर धीरे-धीरे खुली तो ऐसी कि मन ही चुरा ले

By Edited By: Published: Fri, 27 Nov 2015 02:55 PM (IST)Updated: Fri, 27 Nov 2015 02:55 PM (IST)
सफर

हमसफर अच्छा हो तो मीलों की दूरियां भी कम नज्ार आती हैं, वर्ना छोटी सी यात्रा भी अंतहीन लगने लगती है। शुरू में विंडो सीट के लिए ज्िाद करती गुरूर से भरी वह लडकी मन को खिन्न कर रही थी, मगर धीरे-धीरे खुली तो ऐसी कि मन ही चुरा ले गई। एक रोमैंटिक सफर की कहानी।

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एक्सक्यूज्ा मी। आप मेरी सीट पर बैठे हैं।

मैं तो अपनी ही सीट पर हूं मोहतरमा। कंडक्टर से कह कर विंडो सीट ली है मैंने। आप टिकट देख सकती हैं।

लडकी ने मेरा टिकट लेकर तुरंत अपना टिकट थमाते हुए कहा, 'लीजिए अब तो हो गया न ये मेरा नंबर।'

'अरे-अरे। ये तो सरासर..', मैं कुछ कह पाता इसके पहले वह बोल पडी, 'लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। न ही ये सरासर ज्ाबर्दस्ती है। अब आप ही बताएं, मैं कहती कि मुझे गाडी में वॉमिटिंग होती है या बेचैनी होती है तो आप मुझ पर तरस खाकर सीट दे देते। इसके बाद यह सब न होता तो आप लडकियों पर भरोसा करना बंद कर देते। रही आपकी बात तो आप निहायत शरीफ इंसान हैं। गुटखा-पान खाते नहीं होंगे। आपके दांत इसके गवाह हैं। इसलिए आपको विंडो सीट की विशेष ज्ारूरत नहीं है। भई मुझे तो विंडो सिकनेस है।'

ये तो ग्ाज्ाब की दबंगई है। मैं तो बस उसका चेहरा देखता रह गया। मैं ही क्या, बस के अन्य सहयात्री भी। वह ऊपर केबिन में सामान रखकर मुझे अपनी प्यारी विंडो सीट से बेदखल कर चुकी थी। विशेष प्रयास से ली गई वह सीट उसके कब्ज्ो में थी। मैं इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए तैयार न था। भुनभुना कर रह गया मैं।

'अरे बैठ जाने दे बेटा। कुछ लडकियां होती ही हैं ज्िाद्दी।

पीछे की सीट पर बैठे बुज्ाुर्ग ने मुझसे कहा और फिर अपनी पत्नी से बोले, 'लगता है बेचारे की शादी नहीं हुई है अभी।

मुझे उनकी समझाइश और तर्क दोनों ही ज्ाहर बुझे तीर से लगे। फिर भी संस्कारों की वजह से ग्ाुस्सा पीकर रह गया और वह बेिफक्र खिडकी से बाहर के नज्ाारों में मशगूल हो गई। बस ने धीरे-धीरे रफ्तार पकड ली। लोग, इमारतें, पेड-पौधे सब भागते से नज्ार आने लगे। वह उन्हें उत्सुकता से निहार रही थी। जब हम इन चीज्ाों के पास होते हैं तो वे इतनी ख्ाास नहीं लगतीं, लेकिन वे ही जगहें खिडकी से झांक कर देखने में अधिक उत्सुकता पैदा करती हैं। मैं भी शायद इसीलिए खिडकी वाली सीट चाहता था। मैं अब भी बार-बार तिरछी नज्ारों से खिडकी के बाहर झंाक लेता था। मन में रह-रहकर टीस उठ रही थी, 'काश थोडा सख्त हो गया होता। फिर मन ने कहा, अरे बेवकूफ लडकी को छोड खिडकी के फेर में पडा है। यदि उसे पहले से ही ये सीट मिली होती तो क्या करते और यदि कोई खडूस आकर बैठ गया होता तो भी शायद तुम कुछ नहीं कर पाते। कभी-कभी परिस्थितियों से समझौता करना भी बेहतर होता है।

मन को समझा ही रहा था कि बस छोटे से कस्बे के स्टैंड पर रुकी। मेरी सहयात्री अचानक चिहुंक उठी, 'अरे देखिए न, छह-सात बरस की लडकी रस्सी पर कैसे चल रही है। सिर पर मटकी और हाथों में लाठी से संतुलन बनाते हुए।

कुछ देर पहले हुई बहस को वह भुला चुकी थी, जैसे कुछ हुआ ही न हो। परंतु मेरा मन अब भी भारी था। फिर भी उसके कहने के अंदाज्ा से मैं बरबस बाहर देखने लगा।

बांसों के बीच क्रॉस बना कर बीच में बंधी रस्सी पर लडकी बडे आत्मविश्वास से पैर रख रही थी। थाल और ढोलक की थाप के संगीत पर लडकी रस्सी पर थिरक रही थी। लडकी का छोटा भाई भी टोपी में लगे लंबे फुंदने को हिलाते हुए सबके मन को गुदगुदाने का प्रयास कर रहा था। तमाशबीनों की भीड धीरे-धीरे बढती जा रही थी।

'देखिए, पेट भरने के लिए लोग क्या-क्या जतन नहीं करते। बेचारे स्कूल जाने और खाने-खेलने की उम्र में करतब दिखा रहे हैं,

वह मेरी तरफ देखे बिना ही बोल रही थी। उसकी आवाज्ा में बच्चों के लिए बेबसी थी और उनके लिए कुछ न कर पाने की कसक भी। वह टकटकी लगाए अब भी बाहर देख रही थी। बस धीरे-धीरे चल पडी, लेकिन उसकी निगाहें कुछ देर उसी दृश्य का पीछा करती रहीं और मैं उसके इस तरह देखने का। अचानक मुझे इस तरह देख वह झेंप गई, फिर अगले ही पल संयत होकर अपने हैंडबैग से दो टॉफियां निकाल मेरी ओर बढाते हुए मुस्कुरा दी। मैं भी धीरे से मुस्कुरा दिया। मेरे मन का पत्थर सा भारीपन उसकी मुस्कुराहट में पिघल कर बह गया। दोनों के बीच का झगडा अब ख्ात्म हो गया था।

धीरे-धीरे सांझ ढलने लगी थी। वह खिडकी से बाहर रोशनी के टिमटिमाते धब्बों का पीछा करते हुए फिर अपनी दुनिया में खो गई कुछ गुनगुनाते हुए। उसके गले की मिठास ने धीरे-धीरे उसके प्रति मेरा आकर्षण बढा दिया। मैं तन्मयता से उसे सुन रहा था। बस सडक किनारे कब खडी हो गई, पता ही नहीं चला। कंडक्टर के अभ्यस्त स्वर ने मुझे जैसे नींद से जगाया, 'चलिए भाई खाना-पीना, नाश्ता-पानी जो करना है, कर लीजिए। आगे बस नहीं रुकेगी।

सवारियां शरीर की जकडऩ दूर करते हुए धीरे-धीरे उतरने लगीं। मैं भी उठने के लिए अपने आपको व्यवस्थित कर रहा था और वह भी अब बाहर की दुनिया से बस के अंदर की दुनिया में आ गई। मैं पहली बार अपनी तरफ से पहल करते हुए उसे देख मुस्कुराया। जवाब में उसने भी मुस्कुराते हुए कहा, 'इस ढाबे पर खाना बहुत बढिय़ा मिलता है। चलिए पेट-पूजा हो जाए।

हमारे आगे-आगे बुज्ाुर्ग अंकल-आंटी भी उतर रहे थे। अंकल तो सावधानी से उतर गए, लेकिन आंटी जैसे ही उतरने को हुईं, उनका पैर लगभग मुड ही गया। अंकल ने तुरंत बांहों का सहारा देकर संभाला और उलाहना देते हुए बोले, 'इस लडकी को कितनी बार समझाया कि संभल कर उतरा कर। लोग कहने लगे हैं हम बूढे हो गए हैं।

मैं मन ही मन सोच रहा था, वाह जी वाह क्या मुहब्बत है। जवां मुहब्बत। दिल से निकली बात दिल की गहराइयों में ऐसी उतरी कि दिल बाग-बाग हो गया। क्या प्यार इसी को कहते हैं।

'अरे अंकल जी लडकी को गोद में लेकर उतारिए न, बडी नाज्ाुक हैं।

मेरी हमसफर ने भी चुटकी छोडी।

हंसी के फौवारे फूट पडे। लोग हंसते-मुस्कुराते ढाबे की ओर बढ गए। लंबे सफर में ढाबे पर रुक कर ड्राइवर-कंडक्टर ही नही, सवारियां भी आगे के सफर के लिए तरोताज्ाा हो जाते हैं। फिर ढाबे का चाय-नाश्ता हो या खाना, उसके स्वाद का जवाब ही नहीं। सवारियों के पहुंचते ही ढाबे पर गहमागहमी बढ गई थी। अचानक जैसे ढाबा जीवंत हो उठा हो। वेटर भागदौड कर रहे थे। एक साफ-सुथरी सी टेबल पर हम भी कब्ज्ाा जमा चुके थे। एक वेटर हमारी टेबल पर जानबूझ कर कपडा मारते हुए लपककर बोला, 'क्या लगाऊं जी।

'नाम क्या है तुम्हारा?

'जी झिंगरू मैडम जी, वह बोला।

'झिंगरू सबसे पहले गुटखा थूक कर अच्छी तरह मुंह साफ करके आओ। गिलास साफ करके पानी लाना। इसके बाद ही हम ऑर्डर देंगे और आगे से गुटखा खाते दिखे तो तुम्हारी ख्ौर नहीं।

वह बिलकुल मास्टरनी की तरह डांट रही थी। बस नाक पर चश्मे और हाथ में छडी की कमी थी। झिंगरू भी इस अचानक पडी डांट से सहम सा गया।

'हां जी, नहीं खाऊंगा जी गुटखा, कहकर वह भागा। डांट खाकर जितनी तेज्ाी से गया था, उतनी ही तेज्ाी से फिर हाज्िार हो गया, 'क्या लगाऊं जी।

वह पहले वाले अंदाज्ा में ऑर्डर दे रही थी और मैं बडे इत्मीनान से बस उसे ही देखे जा रहा था। चेहरे पर चमक, कंधे तक झूलते बाल, तीखे नाक-नक्श और ऊपर के होंठ पर दाहिनी ओर एक छोटा सा तिल उसकी सुंदरता बढा रहा था। उसके मेकअप विहीन सौंदर्य का मैं कायल हो गया। बातें करते हुए हाथों का संचालन उसके आत्मविश्वास को बढा रहा था। मन कर रहा था, वह इसी तरह सामने बैठी रहे और मैं उसे देखता रहूं। अचानक उसने मेरी ओर इशारा कर कहा,

'कुछ साहब की पसंद का ऑर्डर ले लो। अचानक हुए इस अप्रत्याशित आदेश से मैं झेंप सा गया। फिर संयत होकर बोला, 'ऑर्डर आपका ही चलेगा और बिल मेरा।

वह मुस्कुरा दी। उसकी मुस्कुराहट दिल में गहरे तक उतर गई। दिल कह रहा था वह फिर मुस्कुराए इसी तरह...।

झिंगरू ने बिना देर किए खाना लगा दिया। मैं उससे पूछ बैठा, 'क्यों भई तुम्हारा नाम झिंगरू किसने रखा।

'पता नहीं जी। मां बता रही थीं कि मैं बरसात की रात में पैदा हुआ था। बहुत पानी गिर रहा था जी और झींगुर भी बोल रहे थे। किसी ने कह दिया कि लो एक और झींगुर आ गया। तभी से नाम झिंगरू पड गया।

उसने बडी सहजता और सरलता से मेरी जिज्ञासा शांत कर दी। मैं इस आदिवासी बालक के भोलेपन और मासूमियत से प्रभावित हुए बिना न रह सका। हम दोनों उसकी बातों पर देर तक हंसते रहे।

वह बताने लगी, 'आदिवासी क्षेत्र में नाम के प्रति बडी सहजता होती है। घटना विशेष, समय, माह, दिन के आधार पर या फिर जो मन को अच्छा लगे, वह नाम हो जाता है। जैसे किसी लडकी का नाम जलधारा, बलमवती, रहसकली हो सकता है। लडकों का बुध को पैदा हुआ तो बुधेश, चैत माह में पैदा हुआ तो चैतू, बडी मुश्किलों में पैदा हुआ तो घुरूपरसाद या झाडूराम भी रख दिया जाता है, जिससे उसे नज्ार न लगे।

वह मुझे बता रही थी और मैं उसे देखते हुए मज्ो से यह नवीनतम ज्ञान ले रहा था। बिल का भुगतान कर जैसे ही हम बस में पहुंचे तो उसका एक अलग ही अंदाज्ा अब मेरे सामने था, 'भई वाह खाने में तो मज्ाा आ गया। अब भव्य भोजन के बाद दिव्य नींद ली जाएगी। जाइए-जाइए, अब आप अपनी प्यारी विंडो सीट का आनंद लीजिए। अपनी हसरत पूरी कीजिए। नहीं तो रात भर मुझे कोसेंगे। शायद रात भर नींद भी न आए।

उसकी बातों में शरारत और चुलबुलापन था, लेकिन व्यंग्य जैसा कुछ भी नहीं। मैं आश्चर्यचकित था। मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा में उसकी ओर देखा तो वह फिर बोली, 'हां-हां बैठिए न प्लीज्ा और मैं कंधे पर सिर रखकर आराम से सोऊंगी, लेकिन लोग कहीं ग्ालत न समझ लें।

वह तिरछी निगाहों से मेरी ओर देख कर मुस्कुरा रही थी। उसकी बेिफक्री और बेबाकी न जाने क्यों मुझे भाने लगी था। वह सचमुच कंधे पर सिर रखकर इत्मीनान से सो गई। अधखुली खिडकी से आती ठंडी हवा के झोंके उसके घुंघराले बालों को बार-बार उडा रहे थे। मद्धिम रोशनी में उसका चेहरा बहुत मासूम लग रहा था, बिलकुल एक बच्ची के मानिंद। मैं उसके साथ बिताए अब तक के सफर के बारे में सोच रहा था- क्या कमाल की लडकी है। कभी अक्खड ज्िाद्दी, कभी चुलबुली मज्ााकिया तो कभी सख्त मास्टर जैसी और कभी समझदार....।

अब एक मासूम सा चेहरा मेरे कंधे पर था। मैं बार-बार चोर-नज्ारों से उसे देख रहा था। वह गहरी नींद मे थी। छोटी-छोटी चीज्ाों के लिए भी मोह और अहंकार नए दोस्त बनाने की जगह दुश्मन बनाने में पल भर की देरी नहीं करता। यदि मैं ज्य़ादा सख्त होता तो यह दूसरी सीट पर चली जाती और मैं इस रोमांच से वंचित हो गया होता। ऐसे हसीन सफर की कल्पना भी तो नहीं की थी मैंने। धीरे-धीरे मेरी पलकें भारी होने लगीं। कब नींद के आगोश में चला गया, पता ही नहीं चला।

अलस्सुबह नींद खुली तो देखा, बगल वाली सीट ख्ााली थी। मुझे आश्चर्य हुआ। ये कब उतर गई, मुझे बताया तक नहीं। कंडक्टर मेरी स्थिति समझते ही कान खुजलाते हुए बोला, 'वह दस मिनट पहले उतर चुकी हैं। आपकी नींद ख्ाराब न हो, इसलिए नहीं जगाया।

क्या अजीब लडकी है। जब तक साथ बैठी थी, बडा अपनापन दिखा रही थी। रात भर कंधे पर सिर रखे सोती रही। जाने लगी तो धन्यवाद देकर भी नहीं गई। सब लडकियां ऐसी ही होती हैं, मतलबी कहीं की। मेरा मन खिन्न था। बस धीमी रफ्तार से आगे बढ रही थी, पहर शुरू होते ही अधिकतर यात्रियों को उनके मनचाहे स्टॉप पर उतारते हुए। तभी मेरी नज्ार शर्ट की जेब पर पडी। एक छोटा सा पर्चा जेब से झांक रहा था। देखा तो टिकट के पीछे लिखा था, 'आपके साथ सफर बहुत अच्छा रहा। कहते हैं कि दुनिया गोल है। शायद फिर कभी मुलाकात हो जाए। इसी आशा के साथ, आपका धन्यवाद।

मैने टिकट की लिखावट को बार-बार पढा। उसका चेहरा और उसके साथ बिताए पल बार-बार आंखों में घूम रहे थे। सब कुछ बीते हुए सपने जैसा लग रहा था। ग्ाुस्सा भी था मन में। इतना सब कुछ लिखने की जगह अपना पता या फोन नंबर नहीं लिख सकती थी क्या। मैने भी तो कुछ नहीं पूछा उससे। कुछ लोग क्यों एक छोटी सी मुलाकात में ही दिल में जगह बना लेते हैं और फिर गहरी टीस दे जाते हैं।

फिर लगा, शायद उसकी अपनी कोई मजबूरी हो। जिंदगी के सफर में हर मोड पर लोग मिलते हैं। कुछ साथ चलते हैं, कुछ बिछुड जाते हैं। सबकी अपनी मंज्िालें हैं। वक्त के साथ चलते हुए आनंद लेना ही ज्िांदगी है।

एक झटके के साथ बस रुकी। कंडक्टर ने कहा, 'चलिए साहब, बस स्टॉप आ गया।

मेरी तंद्रा टूटी। हौले से मुस्कुराते हुए बैग उठाया और नीचे उतर गया।

गजेंद्र नामदेव


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